संसद का विशेष सत्र सार्थक बहस का माध्यम बने

आज संसद में भारतीय संसदीय इतिहास का आठवां विशेष सत्र प्रारंभ हुआ, ऐतिहासिक रूप से देखें तो विशेष सत्र आमतौर पर महत्वपूर्ण विधायी या राष्ट्रीय घटनाओं के उपलक्ष्य में बुलाए गए हैं। संसदीय इतिहास में अब तक संसद के सात विशेष सत्र बुलाए जा चुके हैं जिनमें से तीन बार ऐसे सत्र तब बुलाए गए जब देश ऐतिहासिक उपलब्धियों का जश्न मना रहा था। वहीं दो बार राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए 1977 में तमिलनाडु और नगालैंड में तो 1991 में हरियाणा में विशेष सत्रों का आयोजन किया गया।

इस बार 75 साल की संसदीय यात्रा पर चर्चा के लिए मुख्यतः विशेष सत्र बुलाया गये हैं। इस बार का विशेष सत्र संसदीय परम्परा के श्रेष्ठ स्वरूप को उपस्थित करके उसके उत्कर्ष को बढ़ाने और उसे उन्नत-आदर्श बनाने के लिये होना चाहिए, न केवल इस विषय पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए, बल्कि इस पर चिंतन और मनन भी होना चाहिए। क्योंकि इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ वर्षों में संसद में कामकाज के तौर-तरीकों में गिरावट आई है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का विशेष सत्र अन्य सत्रों की तरह हंगामेदार, अमर्यादित एवं अनुशासनहीन न होने की बजाय सार्थक बहस का माध्यम बनना चाहिए कि हमारी संसदीय कार्यप्रणाली किस प्रकार प्रेरक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक बने। बिना राजनीति आग्रह एवं पूर्वाग्रह के इस पर चिंतन और मनन भी होना चाहिए कि संसदीय कार्यवाही कैसे गरिमापूर्ण तरीके से चले। ऐसे अवसर दुर्लभ ही रहे हैं जब संसद में कोई सार्थक चर्चा हुई हो। इसलिये उचित होगा कि इस सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तावित किए हैं उन पर भी बिना सोचे-समझे विरोध जताने के बजाय विपक्षी दल स्वस्थ बहस के लिए तैयार रहें। यह तभी हो सकता है जब नकारात्मकता का परिचय देने के बजाय विधेयकों की रूपरेखा देखने के उपरांत प्रतिक्रिया व्यक्त की सकारात्मक मानसिकता को अपनाया जाये।

निश्चित ही भारतीय संसद के अमृतकाल कोे अमृतमय बनाने के लिये संसद एवं आजादी की 75 साल की उपलब्धियों एवं निरन्तर बढ़ रही कमियों पर चर्चा के साथ उन कमियों एवं विसंगतियों को दूर करने का रोडमेप तैयार होना चाहिए। हमें अब तक संसदीय यात्रा की उपलब्धियां, अनुभव, स्मृतियां, कमियों और उनसे मिली सीख को चर्चा का माध्यम बनाते हुए सर्वसम्मति से नये संसदीय यात्रा के लिये उन्नत एवं आदर्श मूल्यों को अपनाने के लिये तत्पर होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद में भी विरोध के लिए विरोध की राजनीति अधिक देखने को मिलती है। विपक्षी दल संसद में चर्चा करने से अधिक नारेबाजी करने, नारे लिखी हुई तख्तियां दिखाने, अध्यक्ष के आसान तक पहुंच कर हंगामे करने में ज्यादा ऊर्जा खपाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में तो ऐसा लगातार हो रहा है और इसके चलते कई सत्र ऐसे भी रहे जब कोई खास काम नहीं हो सका।

18 सिंतबर से 22 सिंतबर तक चलने वाले इस विशेष सत्र के दौरान कुल 8 विधेयकों को चर्चा और पारित करने के लिए सूचीबद्ध किया गया है। इनमें मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति, उनकी सेवा की शर्तें और कार्यकाल की अवधि विषयक विधेयक-2023, द प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ पीरियोडिकल्स बिल, डाकघर विधेयक प्रमुख हैं। इस विशेष सत्र की कार्रवाही का पहला दिन पूराने संसद भवन में एवं बाकि चार दिन नये संसद भवन में आयोजित होगी। इस सत्र की एक और विशेषता है कि लोकसभा और राज्यसभा के सभी सांसदों का दूसरे दिन मंगलवार सुबह ग्रुप फोटो होगा। यह भी संभावना की जारही है कि यह मौजूदा संसद का आखिरी सत्र हो सकता है और सरकार लोकसभा चुनाव समय से पहले करवा सकती है।

लोकतंत्र में सफलता की कसौटी है- संसद की कार्रवाही का निर्विघ्न संचालित होना।  लेकिन संसद के विशेष सत्र शुरु होने से पूर्व ही कांग्रेस ने नकारात्मक राजनीति के संकेत दे दिये हैं। क्योंकि कांग्रेस की नकारात्मक राजनीति का ही यह उदाहरण है कि सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस की ओर से यह कहा गया कि विशेष सत्र में मणिपुर की स्थिति का मुद्दा भी उठाया जाएगा। जबकि सरकार ने संसद के पिछले सत्र में इस विषय पर चर्चा को लेकर कई बार सहमति जताई थी और अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की ओर से विपक्ष के सवालों के जवाब भी दे दिए गए थे तब विशेष सत्र में इस मुद्दे को उठाने का क्या कोई औचित्य नहीं है। कांग्रेस एवं विपक्षी दलों के इस तरह के आग्रह एवं पूर्वाग्रह कोई नई-अनोखी बात नहीं है। लेकिन कांग्रेस एवं विपक्ष ने इस विशेष सत्र को भी हंगामेदार करने की ठानी है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां तक महंगाई, बेरोजगारी, चीन सीमा, आतंकवाद, चुनावों की स्वच्छता, जैसे मुद्दों को उठाने एवं इन विषयों पर सरकार से जबाव मांगने का प्रश्न है, यह स्वस्थ एवं जागरूक लोकतंत्र की निशानी है। लेकिन इन्हीं या दूसरे मुद्दों को आधार बनाकर जहां संसद की कार्रवाई को बाधित करने की स्थितियां हैं, यह अलोकतांत्रिक है, अमर्यादित है।

विशेष सत्र लोकतांत्रिक समझौते के साथ समझ को विकसित करने का उदाहरण बने, यह अपेक्षित है। स्वतंत्रता के अमृतकाल में संसदीय यात्रा पर चर्चा के लिए बुलाए गए विशेष सत्र में भी सरकार के प्रत्येक कदम की आंख बंदकर विरोध करने की स्थितियों की बजाय राष्ट्रीय महत्व एवं संसदीय गरिमा के विषयों पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए, ताकि देश को कोई दिशा मिल सके, विकास के कार्यों को गति मिल सके, लेकिन इसके स्थान पर आरोप-प्रत्यारोप अधिक होना औचित्यपूर्ण नहीं है। कई बार तो इसे लेकर गतिरोध कायम हो जाता है जो संसद के अमूल्य समय की बर्बादी है।

मौजूदा माहौल में सरकार के लिए चर्चा से इनकार करना मुश्किल होगा, लेकिन विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि अधिक आक्रामक रुख अख्तियार कर वह संसद की कार्यवाही को बाधित करने तक सीमित न रह जाए। ऐसा होने से लोकतंत्र की मूल भावना पर आघात होता है। विपक्ष सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने और विशेष सत्र को सुचारुरूप से चलाने के लिए पहल करें एवं एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करें।

देश की संसद को निरपेक्ष भाव एवं सकारात्मक ढंग से राष्ट्रीय परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लोगों को राहत प्रदान करने के प्रावधानों पर चिन्तन-मंथन के लिये संचालित करना होगा। संसद केवल विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद का स्थल नहीं होती है बल्कि जन हित में फैसले करने का सबसे बड़ा मंच होती है। इसके माध्यम से ही सत्तारूढ़ सरकार की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय होती है और जरूरत पड़ने पर जवाबतलबी भी होती है परन्तु यह भी सच है कि सत्ता और विपक्ष की संकीर्णता एवं राजनीतिक स्वार्थ देश के इस सर्वोपरि लोकतांत्रिक मंच को लाचार भी बनाते हैं जो 140 करोड़ जनता की लाचारी बन जाते हैं। कहना कठिन है कि संसद के विशेष सत्र में क्या होगा, लेकिन अच्छा यह होगा कि राजनीतिक दल  इस विशेष सत्र को निश्चित ही देशहित में ‘विशेष’ बनाये।

जरूरत पड़े तो उन देशों की संसद में होने वाली कार्यवाही को अपना आदर्श बनाएं, जहां प्रत्येक विषय पर धीर-गंभीर एवं सार्थक बहस होती है। आखिर अपने देश में अमेरिका और ब्रिटेन की संसद की तरह से बहस क्यों नहीं हो सकती? यह ठीक है कि विपक्षी दलों को सरकार के किसी भी कदम और कार्य का विरोध करने का अधिकार है, लेकिन संसद में तो कम से कम आम सहमति की राजनीति की संभावनाएं टटोली जानी चाहिए। विरोध या आक्रामकता यदि देशहित के लिये, ज्वलंत मुद्दों पर एवं समस्याओं के समाधान के लिये हो तभी लाभदायी है।

लोकमान्य तिलक ने कहा भी है कि -‘मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिंदा राष्ट्र का लक्षण है।’ राजनीति के क्षेत्र में आज सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है- विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के प्रति विरोध या आक्षेप-प्रत्याक्षेप करना। सत्ता पक्ष को कमजोर करने के लिये संसदीय कार्रवाई को बाधिक करना और तिल का ताड़ बनाने जैसी स्थितियों से देश का वातावरण दूषित, विषाक्त और भ्रान्त बनता है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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