अपनी तान से दीप प्रज्वलित करने वाला संगीत सम्राट तानसेन 

          – सुरेश सिंह बैस “शाश्वत” 

संगीत में भारत की साधना का इतिहास संभवतः वैदिककाल से भी पहले से आरंभ होता है। प्राचीनकाल से ही संगीत का हमारे धार्मिक एवं सामाजिक जीवन से गहरा संबंध रहा है, और हर युग में एक गौरवशाली परम्परा जीवित है। वैदिक गायकी से लेकर आधुनिक गीत गायकी तक एक लंबी श्रृंखला संगीत की विभिन्न शैलियों को इतिहास के पन्नी में पिरोय हुए हैं। समय और परिस्थितियों के अनुरूप संगीत में भी भिन्न -शैलियों का आविर्भाव और विकास होता रहा।      ​

राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उतार चढ़ावों के साथ यह श्रृंखला कभी तनती और कभी ढीली पडती रही, लेकिन टूटकर बिखरी नहीं। इस बात का इतिहास साक्षी है। इसी श्रृंखला की एक स्वर्णिम कडी था। समन्वय और सांस्कृतिक समागम का वह युग, जबकि स्थापत्य में जहाँ-ताजमहल जैसी अनुपम कलाकृति का निर्माण हुआ,  संगीत में ख्याल तथा ठूमरी जैसे शैलियों का आविर्भाव हुआ, जो आज संगीत की शान है। साथ ही पुरातन संगीत धारा ने भी ध्रुपद की भव्य शैली के रूप में अपना विशुद्ध स्वरूप बनाये रखा। इस भव्य शैली के पालन पोषण, रस सिंचन में जिस कलाकार का नाम गर्व और सम्मान के साथ लिया जाता है वह हैं संगीत सम्राट तानसेन।

 संगीत सम्राट तानसेन का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास की एक अनोखी पहेली बना हुआ है। तानसेन संगीत – कला से इतने अधिक समरस हो चुके हैं कि संगीत का विचार तानसेन के व्यक्तित्व से अलग नहीं किया जा सकता। भक्ति संगीत का विचार तानसेन के व्यक्तित्व से अलग नहीं किया जा सकता। भक्ति संगीत के सर्वश्रेष्ठ कलाकार “सूर” की तानसेन संबंध में निम्न उक्ति विचारणीय है-

“भलो भयो विधि ना दिये शेषनाग के कान। 

धरा मेरु सब डोलते तांनसेन की तान ।।”

    ‌किसी कलाकार की किसी अन्य सम सामयिक कलाकार के संबंध में इससे अधिक हार्दिक श्रद्धाजलि क्या हो सकती है? और वह भी सूर जैसा महान भक्त कलाकार जो किसी का क्रातदास न हो और जो अपनी निष्पक्ष मान्यता निःसंकोच देने की क्षमता रखता हो। तानसेन ईसा की 16 वी शताब्दी के अलौकिक कलाकार रहे। उनके कलाकार रूप के निर्माण में स्वामी हरिदास का योगदान विशेष महत्व का रहा। दोनों व्यक्तित्व शताब्दियों तक जन परंपरा में एक दूसरे से गुंथे हैं। तानसेन के समकालीन सभी भक्त गायको के लिये स्वामी रामदास गुरु सहृदय रहे और प्रत्येक कलाकार ने इस गंधर्व कला विशारद महासभा से संगीत प्रसाद पाने की भरसक चेष्टा की। तानसेन भी इसके अपवाद न रहे।

 सोलहवी सदी में ग्वालियर के एक ब्राम्हण परिवार में तानसेन का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम मकरंद पाण्डे था। संगीत की प्राथमिक शिक्षा भी उन्हें पिता से ही प्राप्त हुई। कला – मनीषी स्वामी हरिदास, जो स्वयं महान संगीतज्ञो में गिने जाते हैं, ने भी उन्हें संगीत की शिक्षा प्रदान की। अपने शैशव काल में संगीत की साधना उन्होंने ग्वालियर के समीप बेलट में की। आज भी वहाँ हरित पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे हुय सुरम्य बनकुंज में एक विशाल वटवृक्ष की छांव में शिव मंदिर स्थित है, जहाँ अपने आराध्य भगवान त्रिलोचन के चरणों में बैठकर तानसेन संगीत की साधना किया करते थे। युवाकाल में तानसेन सम्राट शेरशाह के पुत्र दौलतखान के आश्रम में रहे और उसके बाद एक लंबे समय तक रीवा राज्य के राजा रामचंद बघेल के दरबार मे रहे। 1562 ई. में उन्हें सम्राट अकबर ने ससम्मान अपनी राजसभा में बुला लिया। 1589 ई. के लगभग संगीत का यह प्रकाशसंगीत सम्राट तानसेन का नाम उतना ही गौरवशाली है जितना भारतीय काव्य कालीदास या तुलसीदास का। तानसेन ने ध्रुपद शैली के सर्व संगीत की प्राचीन प्राणधारा को जीवित बनाए रखा, वरन उसे एक नई गरिमा प्रदान की। तानसेन का प्रिय राग प्रातमैव भैरव राग था. जो देवाधिदेव शंकर के नयनाभिराम स्वरूप का सजीव चित्रण करता है, जिनके सुंदर मुख पर तीसरा नेत्र सुशोभित है, मस्तक पर दूज का शीतल अर्धचंद्र अंकित है, जटाओं में से गंगा की पवित्र धारा का उदगम हैं, गरदन और बाहों में लिपटे हुये सर्प शोभायमान हैं हाथ में त्रिशूल है तथा शरीर पर धवल श्वेत वस्त्र हैं। संस्कृत में आदि राग भैरव हैं.. जिसके गायन से तानसेन का शरीर झुलस गया था तथा सघन अंधकार में दीपकों में रोजनी प्रज्वलित हो उठी थी। इसके अलावा रागिनी दोडी भी तानसेन ने पद रचना की है। भारतीय संगीत को मियां की मल्हार मियां की दौड व मियां की साए तानसेन की देन समझे जाते हैं।.

 ऐतिहासिक तथ्यों से माना जाता है कि तानसेन को तानसेन की उपाधि राजा मानसिंह (ग्वालियर के महाराजा) के पुत्र विक्रमाजीत सिंह के द्वारा दिया गया था। इस संबंध में यह विचारणीय है कि ग्वालियर के रा‌जा विक्रमाजीत का समय 1516 से 1526 ई. रहा, जिसमें वे स्वतंत्र नरेश के रूप में केवल दो वर्ष ही रहे। उनका शेष समय पराधीन राजा के रूप में व्यतीत हुआ। इस स्थिति में तानसेन को तानसेन की उपाधि से विभूषित किये जाने की बात 1516 से 1518 तक के संभाव्य हो सकती हैं। मुस्लिम सत्ता के सर्वथा परवश हो जाने के वाद संगीतादि ललित कला का वह प्रश्रय संभव नहीं जो छत्रपति काल में था। तानसेन जैसी विशिष्ट उपाधि ऐसे ही संगीतकार को दी जा सकती है जिसने संगीत में अधिकार प्राप्त कर लिया हो। स्वयं तानसेन ने अपने ध्रुपद  में स्वयं का उल्लेख तानमणी तानसेन अर्थात तान अंग रूप में किया है। संगीत संबंध में राज्यारोहण वर्ष 1516 ई. तक तानसेन की आयु कम से ‌कम 25-26 वर्ष मानी जाये, तो उनका जन्मकाल 1490 ई. ठहरता है। तानसेन की मृत्यु तिथि का उल्लेख समकालीन ग्रंथ अकबर नामा में हुआ है, जो अकबर इतिहासकार के द्वारा रचित होने के कारण सर्व विश्वसनीय है। इसके अनुसार तानसेन का देहावसान दिनांक 26 अप्रैल 1589 ई. को हुआ। तानसेन लगभग सौ साल तक की उम्र तक जीवित रहे।

 तानसेन के बचपन का नाम क्या रहा। इस संबंध में इतिहास मौन है। विभिन्न विभिन्न लेखक इस विषय में अपनी अपनी कल्पनाएँ करते हैं। किन्ही के अनुसार उनका नाम तन्ना रहा। अन्य लोगों के अनुसार रामत रहा। कोई उन्हें त्रिलोचन बताते है। इनमें से किसी के लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं। 1857 ई. क मुहम्मद करम इमाम ने रियाले तानगन जैसे मध्यकालीन ग्रंथों के आधार पर बताया है कि वे ग्वालियर के मकरंद पांडे के पुत्र थे। अकबरी दरवार के इतिहासकारो ने ग्वालियर निवासी कलाकारों में उनको प्रथम स्थान दिया है। उनकी मृत्यु कहाँ हुई. इस संबंध में एक नया विवाद विगत वर्षो से चला है, परंतु  प्रमाण एवं परंपरा के अभाव में यह मत प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सका है। इस मान्यता के अनुसार तानसेन का समाधि स्थल ग्वालियर में ब्रजभूमि है। यह मान्यता ब्रजभूमि में कुछ लोगों द्वारा देखी गई तानसेन की तथाकथित समाधि पूर्वी समाधि वहाँ रही जिस पर तानसेन का नाम अंकित रहा। कहा जाता है कि यह समाधि आज तक मौजूद है। परंतु नाम का अता पता नहीं।

  विगत हजार वर्षों में ऐसा गायक नहीं हुआ। अकबर के इस  स्वाभाविक उदगार तानसेन व्यक्त होते हैं। ग्वालियर आगरा से दूर ही कितना है, आगरे में खबर पहुंचते उनके दाह संस्कार के संबंध में आदेश देने में कितनी देर लगी होगी?  जीवन के सौ वर्ष की अवस्था में दरबारी गायक रहना तो उनके लिए दुश्वारियां से भरा रहा होगा अकबरी दरबार से आते समय विश्वामित्र की बात भी सोचते रहे थे ऐसा अबुल फजल ने स्पष्ट लिखा है! इस समय इनकी आयु 50-60 की तो अवश्य ही रही होगी। अकबरी दरबार में तो आखिर तक वह जीवन के अंतिम चरण में इस गौरवाशाली गायक को अपनी जन्मभूमि मैं लौटने  की अनुमति अवश्य ही गई होगी और वहाँ जाने पर उनका देहांत हुआ ऐसी स्थिति में. उनका दफन भी ग्वालियर में ही किया गया और उनका स्मारक भी यही बना यह  मानने में कोई आपत्ति नहीं। 

“आवाज का जादू चलाकर सुरताल राग की रचना रचकर गीत संगीत की दुनिया बनाकर ‘ अमर हुए गायकी बादशाह तानसेन।,,,”    

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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