खुली आंखों से समानता के साथ न्याय करने का संदेश

प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने भारतीय न्याय प्रणाली की अनेक विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करते हुए अब न्याय की देवी की मूर्ति की आंखों से काली पट्टी हटा दी गई है। इसके साथ ही मूर्ति की हाथ में तलवार की जगह संविधान ने ले ली है। यह कानून को सर्वद्रष्टा एवं भारतीयता का रंग देने की एक सार्थक एवं समयोचित पहल है। सांकेतिक रूप से देखा जाए तो कुछ महीने पहले लगी न्याय की देवी की नई मूर्ति साफ संदेश दे रही है कि न्याय अंधा नहीं है और वह संविधान के आधार पर काम करता है। इस सराहनीय कदम के बावजूद एक बड़ा सवाल है कि क्या मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा देने का असर कानूनी प्रक्रिया पर पड़ेगा? भारत में न्याय प्रणाली पर आम धारणा है कि पुलिस और अदालतें लोगों की जिंदगी को तबाह कर देती हैं, वर्षों लम्बी न्याय प्रक्रिया झेलने के बाद भी लोगों को समुचित न्याय नहीं मिल पाता है। न्याय में देरी न्याय के सिद्धांत से विमुखता है, न्याय प्राप्त करना और इसे समय से प्राप्त करना किसी भी आदर्श न्याय व्यवस्था में आम व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार होता है। लेकिन यह स्थिति कब बनेगी? क्या न्याय की देवी की मूर्ति में परिवर्तन करने से न्याय प्रक्रिया में कुछ बदलाव हो सकेगा?

खुली आंखों से समानता के साथ न्याय करने का संदेश देने वाला यह बदलाव सुप्रीम कोर्ट की जजों की लाइब्रेरी में लगी न्याय की देवी की प्रतिमा में हुआ है। इस प्रतिमा में न्याय की देवी को भारतीय वेषभूषा में दर्शाया गया है। वह साड़ी में दर्शाई गई हैं। सिर पर सुंदर का मुकुट भी है। माथे पर बिंदी, कान और गले में पारंपरिक आभूषण भी नजर आ रहे हैं। जो प्रतीकात्मकता में बदलाव का संकेत है और भारत में न्याय की उभरती भावना को दर्शाता है। लेकिन नई प्रतिमा जिन मूल्यों एवं मानकोें की ओर इशारा कर रही है, क्या उसे समझने एवं देखने की हमारी तैयारी है? अगर इस प्रतीकात्मक बदलाव के मूल उद्देश्य को हम नहीं समझ पायेंगे तो यह बदलाव भी अर्थहीन ही होगा। निश्चित ही प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट और न्याय व्यवस्था पारदर्शिता की ओर कदम बढ़ा रही है। लगातार यह संदेश देने की कोशिश हो रही है कि न्याय सभी के लिए है, न्याय के समक्ष सब बराबर हैं और कानून अब अंधा नहीं है। अब न्याय की देवी के एक हाथ में तराजू और दूसरे हाथ में पुस्तक है जो संविधान जैसी दिखती है।

यह सर्वविदित एवं लोगों में आम धारणा है कि थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगा-लगा कर आम आदमी की जिंदगी तबाह हो रही है, तब मूर्ति की आंखों से पट्टी हटाकर भला क्या सुधर जाना है? न्याय की देवी को सच में आंखें देनी हैं तो कानून में आमूल-चूल परिवर्तन, त्वरिता, समयबद्धता एवं समानता की जरूरत होगी। यह तो चीफ जस्टिस भी जानते हैं। आखिर किसे नहीं पता कि इस देश में सड़क से लेकर अदालत तक, हर जगह कानून की धज्जियां उड़ती हैं और न्याय की देवी यूं ही स्टैच्यू बनी रहती हैं। कोई हरकत नहीं, बिल्कुल संवेदनहीन। सड़कों पर कानून तमाशबीन बनकर खड़ा है, थाने में वह उगाही और उत्पीड़न का अस्त्र बना है तो अदालतों में दलीलों और तारीखों की बेइंतहा ऊबाऊ प्रक्रिया का जटिल हिस्सा है, जिसकी जकड़न में गए तो खैर नहीं।  अब तक अंधे कानून की त्रासदी न्याय की देवी देख नहीं पाती थीं, अब वो खुली आंखों से सब देखेंगी। कम-से-कम उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि देख पाने के कारण न्याय की देवी की मूर्ति में भी संवेदना जग जाए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने वाकई अच्छी पहल की है, उसका स्वागत होना चाहिए।

1983 को एक फिल्म अंधा कानून रिलीज हुई थी। इस फिल्म एवं इसके गाने में कोर्ट-कचहरी, वकील-दलील, सुनवाई-फैसले के हालात को शब्द दिए गये हैं। कहा गया कि अस्मतें लुटीं, चली गोली, इसने आंख नहीं खोली। फिर गीत कहता हैं- लंबे इसके हाथ सही, ताकत इसके साथ सही। पर ये देख नहीं सकता, ये बिन देखे है लिखता। इस तरह फिल्म कानून को अंधा बताती है। स्थिति यह है कि आज भी न्यायालयों में यह चर्चा अमूमन होती है कि अदालत में पेश होने वाले अभियोजन या अभियोग पक्ष के रुतबे को देखकर न्याय प्रभावित हो जाता है। लेकिन उस समय की मूर्ति की मूल भावना कहां और कितनी प्रभावी रही है, यह सर्वविदित है। अब नयी संशोधित प्रतिमा का संदेश है कि देश में न्याय अंधा नहीं है, वह इस बात पर जोर देती है कि भारत में न्याय दूरदर्शिता और समानता के साथ काम करता है। जो संतुलन और निष्पक्षता का प्रतीक है-यह दर्शाता है कि न्यायालय किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले सभी पक्षों से तथ्यों और तर्कों को तौलता है। इसका मतलब है कि कानून की नजर में सभी बराबर हैं, इसमे न पैसे वाले का महत्व, न रुतबा, ताकत और हैसियत को महत्व दिया जाता है।

न्याय की देवी, जिसे हम अक्सर अदालतों में देखते हैं, असल में यूनान की देवी हैं। उनका नाम जस्टिया है और उन्हीं के नाम से ‘जस्टिस’ शब्द आया है। उनकी आंखों पर बंधी पट्टी दिखाती है कि न्याय हमेशा निष्पक्ष होना चाहिए। 17वीं शताब्दी में एक अंग्रेज अफसर पहली बार इस मूर्ति को भारत लाए थे। यह अफसर एक न्यायालय अधिकारी थे। 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के दौरान न्याय की देवी की मूर्ति का सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल होने लगा। भारत की आजादी के बाद भी हमने इस प्रतीक को अपनाया। यह बदलाव औपनिवेशिक शासन के अवशेषों को हटाने के अन्य प्रयासों को दर्शाता है, भारत गुलामी के सभी संकेतों से बाहर निकलना चाहता है। जैसे कि हाल ही में आपराधिक कानूनों में बदलाव, भारतीय दंड संहिता की जगह भारतीय न्याय संहिता को लागू करना है।

यहां नई मूर्ति के नए संकेतों का अर्थ गहराई से समझना भी जरूरी है। न्याय समाज में संतुलन का प्रतिनिधित्व करें, न्यायिक संचालन-प्रक्रिया सांविधानिक प्रावधानों के अनुरूप चले। सबको समान रूप से देखें। हम न्याय की देवी द्वारा इंगित मूल्यों में संजीदगी दिखाये। हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि आखिर भारतीय न्याय-व्यवस्था को लेकर आम धारणा इतनी कटु क्यों है? यह क्यों माना जाता है कि यहां न्याय देर से मिलता है, जबकि अदालतों में तारीखें अनवरत मिलती रहती हैं? जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की वकालत की गई है, उसे वास्तविक अर्थों में साकार करने में हम अब तक क्यों विफल रहे हैं? जब तक इन सवालों के उचित जवाब हम नहीं खोज लेते हैं, तब तक न्याय की देवी के प्रतीक-चिह्नों की सार्थकता कठघरे में खड़ी की जाती रहेगी। असल में, प्रतीक-चिह्न एक पहचान के रूप में काम करते हैं।

इन प्रतीक-चिह्नों से जो प्रतीकात्मक अर्थ निकल रहा है, वह हर हाल में साकार हो। भारतीय अदालतें इस मामले में उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतर सकी हैं। लिहाजा, इन संकेतों के सार्थक होने के लिए हमें कुछ अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। न्याय में देर करना अन्याय है। भारत की न्यायप्रणाली इस मायने में अन्यायपूर्ण कही जा सकती है, क्योंकि भारत की जेलों में 76 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं, जिनका अपराध अभी तय नहीं हुआ है और वे दो दशक से अधिक समय से जेलों में नारकीय जीवन जीते हुए न्याय होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए न्यायप्रणाली की धीमी रफ्तार को गति देकर ही ऐसे विचाराधीन कैदियों के साथ न्याय देना संभव है और इसी से सशक्त भारत का निर्माण होगा और प्रतीकात्मक प्रतीक चिह्नों में बदलाव का कोई सार्थक उपयोग एवं असर होगा। भारत को अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थिति और अपने गौरवपूर्ण इतिहास बोध के अनुसार एक वैकल्पिक न्याय तंत्र भी स्थापित करना चाहिए, किंतु जब तक यह नहीं होता वर्तमान व्यवस्था में ही कुछ आवश्यक सुधार करके हमें इसे समसामयिक, तीक्ष्ण, समयबद्ध और उपयोगी बनाए रखना चाहिए। न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिये। भारत की सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण होना चाहिए।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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