परंपरागत एवं आधुनिक चिकित्सा में समन्वय की जरूरत

एक और नये चीनी वायरस ह्यूमन मेटान्यूमोवायरस (एचएमपीवी) के संक्रमण के उपचार को लेकर दुनिया भारत की प्राचीन प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धति की ओर आशाभरी निगाहों से देख रही है, क्योंकि मानव इतिहास की सबसे बड़ी एवं भयावह महामारी कोरोना के निदान में भी उसकी भूमिका प्रभावी एवं कारगर रही है। निस्संदेह, आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने शोध-अनुसंधान व बड़े पूंजी निवेश के चलते अप्रत्याशित स्वास्थ्य उन्नति एवं चिकित्सा क्रांति की है। बावजूद इसके आधुनिक समय में भी प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां असाध्य बीमारियों के लिये कारगर बनी हुई है।

भारत ही नहीं, विदेशों में भी भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की स्वीकार्यता बढ़ी है। आयुष मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2014 में जो आयुष बाजार 2.8 अरब डॉलर था, उसका आकार बीते साल तक 43.4 अरब डॉलर हो गया है। इतना ही नहीं प्राकृतिक चिकित्सा उत्पादों का निर्यात भी दुगना हुआ है। जिससे इस पद्धति की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता का पता चलता है। यानी इन्हें एक पूरक चिकित्सा के रूप में मान्यता मिल रही है। इन स्थितियों को देखते हुए यदि आधुनिक विज्ञान व परंपरागत चिकित्सा पद्धति में समन्वय बने तो मानवता कल्याण का नया रास्ता उद्घाटित होगा।

प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक सम्पूर्ण क्रांति है। इसमें प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। योग, ध्यान एवं संतुलित जीवनशैली इस चिकित्सा के आधार है। प्राकृतिक चिकित्सा निर्धन व्यक्तियों एवं गरीब देशों के लिये विशेष रूप से वरदान है।

इसीलिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से भारत का जो प्राचीन सेहत का ज्ञान सदियों से हाशिये पर रहा है, उसे पिछले एक दशक में देश-विदेश में व्यापक रूप से प्रतिष्ठापित किया गया है और भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, योग को दुनिया में फैलाया गया है। भारत में भीषण गरीबी के चलते प्रकृति के सान्निध्य में सेहत के गुर को महसूस करते हुए महात्मा गांधी ने प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों को देश में प्रतिष्ठा दी थी। आज भी उनके अनुयायी पूरे देश में इस मुहिम में जुड़े हुए हैं। जरूरी है कि सदियों के अनुभव से हासिल गुणवत्ता व प्रमाणिकता के परंपरागत ज्ञान और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के मध्य तालमेल की कोशिश की जाए।

पारम्परिक एवं पूरक चिकित्सा पर विश्व स्वास्थ्य संगठन- डब्ल्यूएचओ की वैश्विक रिपोर्ट (2019) के अनुसार, दुनिया भर में इस्तेमाल की जा रही पारम्परिक चिकित्सा की विभिन्न प्रणालियों में, एक्यूपंक्चर, हर्बल दवाएँ, स्वदेशी पारम्परिक चिकित्सा, होम्योपैथी, पारम्परिक चीनी चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा, कायरोप्रैक्टिक, ऑस्टियोपैथी, आयुर्वेद व यूनानी उपचार शामिल हैं। डब्ल्यूएचओ के 170 सदस्य देशों ने अपनी आबादी द्वारा पारम्परिक चिकित्सा के उपयोग पर रिपोर्ट दी है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) भी, पारम्परिक उपचार प्रणालियों के अध्ययन और अभ्यास में क्रान्ति ला रही है। आयुष शब्द आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध, सोवा रिग्पा और होम्योपैथी का संक्षिप्त रूप है।

इसी आधार पर प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियांें को आधुनिक समय में प्रासंगिक बनाने के लिये भारत सरकार में आयुष मंत्रालय बना है। इसी मंत्रालय के प्रयासों से जहां आयुष बाजार को विस्तार मिला, वहीं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उपचार में मदद मिली है। इससे रोजगार व उद्यमिता को भी नई ऊंचाइयां मिली हैं। एक ओर जहां आयुर्वेदिक दवाओं के उत्पादन से रोजगार बढ़े हैं, वहीं इसमें प्रयोग की जाने वाली जड़ी-बूटियों, फल और इससे जुड़े जैविक उत्पादों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी संबल मिला है। कमोबेश इसी तरह योग से जुड़ी सामग्री का निर्यात भी तेजी से बढ़ा है। प्रधानमंत्री के प्रयासों से योग, आयुर्वेद, भारतीय खानपान एवं जीवनशैली को वैश्विक मान्यता मिली है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत सरकार की सहभागिता में गत वर्ष भारत के गुजरात प्रदेश के गांधीनगर शहर में प्रथम पारम्परिक चिकित्सा वैश्विक शिखर सम्मेलन आयोजित कर गम्भीर स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने और वैश्विक स्वास्थ्य एवं टिकाऊ विकास में प्रगति को आगे बढ़ाने में, पारम्परिक, पूरक व एकीकृत चिकित्सा की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए इसे व्यापक बनाने की अनेक योजनाओं पर सहमति जताई। विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सरकार ने आधुनिक विज्ञान एवं टैक्नॉलॉजी के ज़रिये, पारम्परिक औषधि में निहित सम्भावनाओं को साकार करने के इरादे से एक वैश्विक केंद्र स्थापित किये जाने के समझौते पर भी हस्ताक्षर किये और गुजरात राज्य के जामनगर शहर में बनाए जाने वाले इस केंद्र की मदद से आमजन की सेहत में बेहतरी लाने और विश्व के हर क्षेत्र में सम्पर्क व लाभ सुनिश्चित किये जाने की योजना को आकार दिया जाने लगा है।  

नये विश्व की विडम्बना है कि तीव्र विकास की छाया में गरीबी का भी विस्तार हुआ है। महंगी होती आधुनिक चिकित्सा पद्धति गरीब की पहुंच से दूर होती जा रही है। सरकारी चिकित्सा तंत्र मरीजों के भारी बोझ से चरमरा रहा है। ऐसे में यदि जीवन शैली में सुधार, सजगता व शारीरिक सक्रियता से लोगों को स्वास्थ्य लाभ मिले तो किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। इसे पूरक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया ही जाना चाहिए। यह सुखद है कि हम देर से ही सही, इस दिशा में आगे बढ़े हैं। हमारे आयुर्वेद के उत्पादों को विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्यता मिलना भी एक बड़ी उपलब्धि है। इस दिशा में आधुनिक चिकित्सा के साथ समन्वय स्थापित कर आगे बढ़ने के लिये साझे प्रयास जरूरी हैं। पारम्परिक चिकित्सा उत्पादों और पद्धतियों के शोध का यह उपयुक्त समय है। दुनियाभर में लोग वैकल्पिक निदानों का रुख़ कर रहे हैं। इससे अधिक शोध व अधिक साक्ष्य सामने आ रहे हैं और शोध के परिणाम बेहद आशाजनक दिख रहे हैं। प्राचीन संस्कृतियों द्वारा चिकित्सा हेतु प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के अलावा, आधुनिक रोगों से निपटने के लिए पारम्परिक समुदाय-आधारित स्वास्थ्य प्रथाओं का भी अभूतपूर्व महत्व है। चेचक के टीके का विकास इसका एक सशक्त उदाहरण है।

भारत की प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां के प्रति बढ़ते आकर्षण एवं रूझान को देखते हुए जरूरी हो जाता है कि हम आयुष उत्पादों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें। उनको हम विज्ञान की कसौटी पर भी कसे। भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति वैश्विक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य समाधान करने में सक्षम एवं कारगर बन रही है तो हमें इस पर व्यापक शोध, अनुसंधान एवं प्रयोग को बल देना चाहिए। दरअसल, भारतीय परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों मसलन आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, योग, सिद्ध आदि पद्धतियों की धारणा रही है कि किसी रोग को दबाने के बजाय उसके कारकों का उपचार किया जाए। पारम्परिक चिकित्सा को पूर्व-वैज्ञानिक युग की पद्धति के रूप में देखा जाता है, जिसका स्थान आधुनिक, बेहतर, विज्ञान-आधारित चिकित्सा ने लिया। हालाँकि, आधुनिक विज्ञान और चिकित्सा का प्रादुर्भाव, पारम्परिक उत्पादों व प्रथाओं से ही हुआ है, जिसका एक लम्बा इतिहास है। आज लगभग 40 प्रतिशत फ़ार्मास्युटिकल उत्पाद, प्रकृति और पारम्परिक ज्ञान से आते हैं, जिनमें कई महत्वपूर्ण दवाएँ शामिल हैं।

प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां का आधार हमारे विचार, खानपान और प्रकृतिमय जीवन है, जो बीमारियों को पनपने नहीं देता, यदि फिर भी कोई बीमारी आ जाती है उसका सस्ता, सरल, प्रभावी एवं सुगम इलाज पारम्परिक चिकित्सा पद्धति में है। जो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है। प्राकृतिक व परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां को विस्तारित एवं सशक्त करते हुए हमें आधुनिक चिकित्सा पद्धति की अनदेखी नहीं करनी है बल्कि समन्वय करके इंसानों को स्वस्थ बनाने की दिशा में क्रांति का शंखनाद करना है। निश्चित रूप से यदि विज्ञान व परंपरा के समन्वय का मणिकांचन संयोग होगा तो बढ़ती बीमारियों एवं महामारियों की चिन्ता को दूर करने के लक्ष्य हासिल करना ज्यादा आसान होगा।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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