जाने कहाँ गए वो दिन..

– अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

जाने कहाँ गए वो दिन, जब बचपन की मासूमियत और बेफिक्री जीवन का हिस्सा हुआ करती थी। आज, समझदारी और जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे हुए, वो दिन किसी खूबसूरत ख्वाब जैसे लगते हैं। वो पल, जब न भविष्य की चिंता थी, न किसी बात का डर, सिर्फ खेल-कूद, दोस्तों के साथ शरारतें और हर छोटी-सी बात में खुशियाँ ढूंढ लेने का हुनर था। बचपन की वो सुनहरी यादें अब भी दिल के कोने में कहीं छुपी हुई हैं, जो कभी-कभी सजीव होकर मुस्कान ला देती हैं। जीवन की भागदौड़ में, शायद वही सरलता और सुकून सबसे ज्यादा याद आता है।

जैसे-जैसे उम्र ढल रही है और जीवन आगे बढ़ता जा रहा है, इस व्यस्तता में कभी-कभी बचपन के वो मासूमियत भरे दिन बहुत याद आते हैं, जहाँ भले ही समझ की कमी थी, लेकिन बचपन की अटखेलियों से जीवन में आनंद था। मुझे आज भी याद है, जब छोटे थे तो स्कूल जाना बड़ा बुरा लगता था, लेकिन दोस्तों के साथ खेलने को मिलेगा, इस लालच में स्कूल चले जाया करते थे।
मोहल्ले के सब बच्चे एक साथ पैदल स्कूल जाते थे, जिसके पास सायकल होती वो अपने आप को किसी राजा-महाराजा से कम नहीं समझता। ऐसे ही मेरे एक मित्र के पास सायकल थी, जिस पर हम तीन दोस्त स्कूल जाया करते, एक आगे के डंडे पर बैठता दूसरा सायकल चलाता और तीसरा पीछे के कैरियर पर बैठता। इस तरह हमारी शाही सवारी स्कूल पहुँचती। सायकल भले ही हमारे मित्र की थी लेकिन ठाठ-बाट हमारे भी कम नहीं थे।

जैसे-तैसे एक-आध घंटा पढ़ाई की और फिर खाने की छुट्टी का इंतजार होने लगता था, छुट्टी होने के आधा घंटा पहले ही आपस में गुप्त चर्चा शुरू हो जाती कि कौन क्या लाया है और जो खबर लग गई कि किसी के डब्बे में बढ़िया पकवान आए हैं, तो फिर वह आधा घंटा निकालना भी मुश्किल हो जाता था। बस फिर जहाँ खाने की छुट्टी की घंटी बजी की हम सभी दोस्त अपना खाने का डब्बा लेकर पेड़ की छाँव ढूँढने लगते और और फिर सब साथ मिलकर मिल बाँट के खाना खाया करते, उस खाने में जो तृप्ति थी वो आज बड़े-बड़े फाइव स्टार होटलों में भी नहीं मिलती।

पेट पूजा होने के बाद पढ़ने-लिखने की थोड़ी सुध पड़ती, तो अपने कपड़े के थैले में स्लेट और स्लेट पेंसिल की खोज करते, बड़ी कक्षाओं में यह खोज अपनी पेंसिल के लिए करने लगे। सिवाए इसके स्कूल के दिनों में और कुछ नहीं बदला। पढ़ने-लिखने में बहुत मन कभी लगा नहीं, इसलिए सज़ा पाना आदतन हो गया था। लेकिन इससे कभी आत्मसम्मान पर आँच नहीं आई, दरअसल तब हम जानते ही नहीं थे कि आत्मसम्मान होता क्या है? अब तो कोई जरा से रूखेपन से भी बोल दे तो हमारा ईगो हर्ट हो जाता है। अब जब सारा दिन कक्षा के बाहर ताका-झाँकी करने, घर जाने और खाने की छुट्टी की राह और दोस्तों के साथ शरारतें करने में ही निकल जाए, तो विद्या देवी का आशीर्वाद कहाँ से प्राप्त हो सकेगा, इसलिए अपनी किताब-कॉपियों के बीच मोर पंख और विद्या के पौधे की बारीक पत्तियाँ दबाकर रखते थे, हमें विश्वास था कि इससे विद्या देवी हम पर कृपा जरुर करेंगी। पढ़ाई-लिखाई में भले भी मन न लगता हो, लेकिन विद्या देवी रुष्ट ना हों, इसका पूरा ध्यान था। गलती से भी कभी पढ़ाई की किसी वस्तु पर पैर लग गया, तो झट से उसे सिर से लगा लिया करते थे। अब बड़े ज्ञानी हो गए हैं, इन सब चीजों के पीछे का कारण जान चुके हैं, तो अपनी ही हरकतें बचकानी लगती हैं, लेकिन उस भोलेपन की भी बात अलग थी। ये वाकये आज भी याद आते हैं, तो चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।

फिर घर आते ही बस्ता फेंका और भाग गए दोस्तों के साथ खेलने के लिए, तब ना भूख प्यास लगती थी, न धूप सताती थी। न ही किसी बात की चिंता.. दोपहर से साँझ खेल-कूद में ही हो जाती थी। अँधेरा होने पर घर की याद भी आती, घर पहुँचते तो गरमा-गरम खाना तैयार मिलता। इस तरह आनंद में जीवन चल रहा था। लेकिन, पिताजी से बड़ा डर लगता था। इस डर का ही प्रभाव था कि उनके घर आने का समय होते ही, दोपहर में लापरवाही से फेंके अपने बस्ते की खबर भी ले लिया करते थे। उनके प्रकोप से बचने के लिए ही सही, स्कूल में हुई पढ़ाई पर भी नजर दौड़ा लिया करते थे। इसमें भी कुछ समय पढ़ाई में निकलता और कुछ समय अपने बस्ते को अगले दिन के लिए करीने से जमाने में लगा दिया जाता था। इस तरह हमने पिताजी के डर से जो पढ़ाई कर ली, उसका ही नतीजा है कि आज इस मुकाम पर पहुँच सके हैं।

ये सभी यादें जब ताजा होती हैं, तो एहसास होता है कि हम कहाँ से कहाँ आ गए हैं। आज कहने को तो बहुत समझदारी आ चुकी है, लेकिन इस समझदारी को पाने के चक्कर में वह भोलापन, वह बेफिक्री भेंट चढ़ गई। उन पलों को याद करता हूँ, तो मन में विचार आता है कि बचपन के वो पल चाहे अच्छे या बुरे थे लेकिन खास थे। काश वो समय फिर लौट आए..
अब तो हम सब गिरते-सम्भलते, संघर्ष करते हुए अपना अपना प्रारब्ध पूरा कर रहे हैं, कुछ मंजिल पा गए हैं, तो कुछ न जाने कहाँ खो गए हैं। जीवन में सबसे आगे निकल जाने की दौड़ ने ही हमें जिन्दा रखा है, वरना जो जीवन हमने बचपन में जीया है, उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं है। इसलिए जब भी जब बेचैन हो, तो अपने बचपन की यादों के पन्नों को पलटिए, सच में आप एक बार फिर से जी उठेंगे..

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