लोकतंत्र को मजबूती देने के लिये मतदाता को जागना होगा

-राष्ट्रीय मतदाता दिवस – 25 जनवरी, 2025-

भारत में राष्ट्रीय मतदाता दिवस प्रत्येक वर्ष 25 जनवरी को मनाया जाता है। विश्व में भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदान को लेकर कम होते रुझान को देखते हुए इस दिवस को मनाने की आवश्यकता महसूस हुई और पहली बार इसे वर्ष 2011 में मनाया गया। इसके मनाए जाने के पीछे निर्वाचन आयोग का उद्देश्य था कि देश अधिकतम मतदान को प्रोत्साहन दिया जाये। ‘मतदाता बनने पर गर्व है, मतदान को तैयार हैं’ जैसे नारों के साथ मतदान दिवस मनाने का मुख्य कारण है कि लोगों को मतदान का महत्व बताया जाए ताकि लोग इसके प्रति जागरूक हो और अपने मत का आवश्यकतरूप से उपयोग करते हुए सही उम्मीदवार को चुने। 15वें राष्ट्रीय मतदाता दिवस-2025 की थीम है ‘‘वोट जैसा कुछ नहीं, वोट जरूर डालेंगे हम।’’ ऐसा करके ही लोकतंत्र को मजबूती दी जा सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में इसने मतदान के अधिकार के बारे में जागरूकता बढ़ाने और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विशेषतः युवा मतदाताओं को पंजीकृत करने, उन्हें मताधिकार का उपयोग करने के लिये अग्रसर और प्रेरित करने में इस दिवस की महत्वपूर्ण भूमिका बनी है। चुनाव आयोग इस मंच का उपयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में योगदान देने वाले अधिकारियों, हितधारकों और संगठनों के प्रयासों को मान्यता देने के लिए भी करता है। यह लोकतांत्रिक मील का पत्थर  बना है और भारत के लोकतंत्र के 78 वर्षों की यात्रा और चुनावी अखंडता के प्रति इसकी प्रतिबद्धता के लिये इसे जश्न रूप में मनाया जाता है।

किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का एक दिन। इसलिये इस दिन भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने राष्ट्र के प्रत्येक चुनाव में भागीदारी की शपथ लेनी चाहिए, क्योंकि भारत के प्रत्येक व्यक्ति का वोट ही देश के भावी भविष्य की नींव रखता है और उन्नत राष्ट्र के निर्माण में भागीदारी निभाता है। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं बैठता अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है। लेकिन जनता तिलक किसको लगाये, इसके लिये सब तरह के साम-दाम-दंड अपनाये जा रहे हैं। हर राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वायदों एवं घोषणाओं को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है। लेकिन ऐसा होता तो आजादी के अमृतकाल तक पहुंच जाने के बाद भी देश गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से नहीं जुझता दिखाई देता। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ”अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।“ इसलिये यह दिवस मतदाता को जागरूक करने के साथ प्रशिक्षित भी करता है।

भारतीय लोकतंत्र दुनिया का विशालतम लोकतंत्र है और समय के साथ परिपक्व भी हुआ है। बावजूद इसके लोकतंत्र अनेक विसंगतियों एवं विषमताओं का भी शिकार है। मुख्यतः चुनाव प्रक्रिया में अनेक छिद्र हैं, सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा छिद्र चुनावों की निष्पक्षता एवं पारदर्शिता को लेकर है। खरीद-फरोख्त, नशा एवं मतदाताओं को लुभाने एवं आकर्षित करने का आरोप भी लोकतंत्र पर बड़े दाग हैं। चुनाव सुधारों की तरफ हम चाह कर भी बहुत तेजी से नहीं चल पा रहे हैं। चुनाव आयोग जैसी बड़ी और मजबूत संस्था की उपस्थिति के बाद भी चुनाव में धनबल, बाहूबल एवं सत्ताबल का प्रभाव कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। ये तीनों ही हमारे प्रजातंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। इन सब संकटों से मुक्ति के लिये मतदाता की जागरूकता की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पहलू चुनाव है, लोकतंत्र में स्वस्थ मूल्यों को बनाये रखने के साथ उसमें सभी मतदाताओं की सहभागिता को सुनिश्चित करना जरूरी है। इसके लिये चुनाव आयोग का आरईवीएम के प्रयोग का प्रस्ताव सैद्धांतिक तौर पर एक सराहनीय एवं जागरूक लोकतंत्र की निशानी है। क्योंकि आजादी के बाद से ही जितने भी चुनाव हुए है, उनमें लगभग आधे मतदाता अपने मत का उपयोग अनेक कारणों नहीं कर पा रहे हैं, ऐसा हर चुनाव में होता आया है। इसलिए लंबे समय से मांग उठती रही थी कि ऐसे लोगों के लिए मतदान का कोई व्यावहारिक एवं तकनीकी उपाय निकाला जाना चाहिए। उसी के मद्देनजर निर्वाचन आयोग के द्वारा घरेलू प्रवासियों के लिए आरवीएम का प्रस्ताव एक सूझबूझभरा एवं दूरगामी सोच एवं विवेक से जुड़ा उपक्रम है। जरूरत है राजनीतिक दल ऐसे अभिनव उपक्रम का विरोध करने या अवरोध खड़ा करने की बजाय उसका अच्छाइयों को स्वीकार करते हुए स्वागत करें।

इनदिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां उग्रता पर है और इसमें मुफ्त की रेवडियां बांटने की होड़-सी लगी है। लोकतन्त्र में यह मुफ्त बांटने की मानसिकता एक तरह का राजशाही का अन्दाज ही कहा जायेगा जो लोकतंत्र के मूल्यों के विपरीत है। लोकतंत्र में कोई भी सरकार आम जनता की सरकार ही होती है और सरकारी खजाने में जो भी धन जमा होता है वह जनता से वसूले गये शुल्क या टैक्स अथवा राजस्व का ही होता है। राजशाही के विपरीत लोकतन्त्र में जनता के पास ही उसके एक वोट की ताकत के भरोसे सरकार बनाने की चाबी रहती है। दरअसल, जनता के हाथ की इस चाबी को अपने पक्ष में घुमाने एवं जीत का ताला खोलने के लिये यह मुफ्त की संस्कृति एक राजनीतिक विकृति के रूप में विकसित हो रही है। वृद्धों को मुफ्त धार्मिक यात्रा-पेंशन, युवाओं को रोजगार देने का वायदा, महिलाओं को नगद राशि एवं मुफ्त बस सफर हो या बिजली-पानी या गैस सिलेंडर। हालात यह हो गए है कि इस मामले में लगभग सभी पार्टियों के बीच एक होड़ जैसी लग गई है कि मुफ्त के वादे पर कैसे मतदाताओं से अपने पक्ष में लुभा कर मतदान कराया जा सके। इससे राज्यों का आर्थिक संतुलन लड़खड़ाता है या वे कर्ज में डूबती है तो इसकी चिन्ता किसी भी दल की सरकार को नहीं है। इस बड़े संकट से उबारने का काम मतदाता ही कर सकता है, वह बिना प्रलोभन, लोभ एवं मुफ्त की सुविधाओं के निष्पक्ष मतदान के लिये आगे आये।

राष्ट्रीय मतदाता दिवस से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण विमर्शनीय विषय है लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का सुझाव, इसको लेकर एक सार्थक बहस छिड़ी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों चुनावों को एक साथ कराने का सुझाव दिया था। चुनाव एक साथ कराने का विचार बहुत नया हो, ऐसा भी नहीं है। पिछली सरकारों में भी समय-समय पर इस पर चर्चाएं होती रही हैं। लेकिन इस व्यवस्था को लागू करने को लेकर अनेक संवैधानिक समस्याएं भी और कुछ बुनियादी सवाल भी है। इन सबका समाधान करते हुए यदि हम यह व्यवस्था लागू कर सके तो यह सोने में सुहागा होगा।

जनता की गाढी कमाई की बर्बादी को रोकने, बार-बार चुनाव प्रक्रिया के होने जनता को होने वाली परेशानी और प्रशासनिक कार्य में होने वाली असुविधाओं को रोकने के लिए चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था निश्चित रूप से लोकतंत्र को एक नई उष्मा एवं नया परिवेश देगी। यदि इसके लिये कोई सर्वमान्य रास्ता निकलता है तो सचमुच यह देश, समाज और लोकतंत्र के हित में होगा। जैसाकि हम जानते हैं कि लोग शीघ्र ही अच्छा देखने के लिए बेताब हैं, उनके सब्र का प्याला भर चुका है। लोकतंत्र को दागदार बनानेवाले अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। जो कोई सुधार की चुनौती स्वीकार कर सामने आता है, उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। लेकिन इस बार राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर ऐसा एक नया रास्ता बने जो लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने एवं चुनाव की खामियों को दूर करने के लिये एक नया सूरज उदित करे और मतदाताओं को उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराये, तभी इस दिवस की सार्थकता एवं प्रासंगिकता है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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