पुस्तक-महाकुंभ से एक नये दौर का सूत्रपात

देश में दो महाकुंभ चल रहे हैं, एएक प्रयागराज में सनातन धर्म का महाकुंभ तो दूसरा दिल्ली में पुस्तकों का महाकुंभ। 1 फरवरी से 9 फरवरी 2025 तक प्रगति मैदान के भारत मंडपम में पाठकों, लेखकों और प्रकाशकों एक भव्य महा-उत्सव जो पांच दशकों की समृद्ध विरासत के साथ, साहित्य, संस्कृति और ज्ञान का जीवंत संगम बना हुआ है। इस वर्ष के पुस्तक मेले की मुख्य थीम ‘रिपब्लिक @ 75’ है, जो भारतीय संविधान के 75 वर्षों के जश्न पर एक मजबूत भारत की परिकल्पना, राष्ट्र-निर्माण में प्रगति, और 2047 तक विकसित भारत के लक्ष्य पर केन्द्रित है। पुस्तक मेले का एक मुख्य आकर्षण बच्चों का मंडप है, जिसका उद्देश्य बच्चों के साहित्य को बढ़ावा देना और युवाओं में पढ़ने की आदत विकसित करना है। पुस्तक मेला केवल किताबों तक सीमित नहीं है; यह सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का भी एक मंच है।

मेले में आयोजित नाट्य, संगीत, लोक कला और परंपरागत प्रस्तुतियाँ इसे एक समग्र अनुभव और वैश्विक दृष्टिकोण के संवाद का अवसर प्रदान कर रही है। इस अवसर पर विभिन्न देशों के साहित्यिक प्रतिनिधिमंडल की सहभागिता हो रही है, जो अपने सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और साहित्यिक दृष्टिकोण को साझा कर रहे हैं। आज डिजिटलीकरण और कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) के दौर में भले ही पुस्तकों की उपादेयता एवं अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह टंग रहे हो, लेकिन ऐसे अनूठे एवं विलक्षण पुस्तक मेले पुस्तकों की उपयोगिता, प्रासंगिकता एवं महत्व को नये पंख भी दे रहे हैं।  

पुस्तक मेलों की परंपरा भारत और विश्व में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। प्राचीन भारत में भी पांडुलिपियों के आदान-प्रदान और साहित्यिक संवाद की परंपरा थी। आधुनिक युग में, पुस्तक मेले का आयोजन पहली बार यूरोप में 15वीं शताब्दी में हुआ। गुटेनबर्ग द्वारा मुद्रण तकनीक के आविष्कार के बाद पुस्तकों का वितरण तेज़ी से बढ़ा और इसने पुस्तक मेलों के आयोजन को प्रेरित किया। भारत में पुस्तक मेलों की आधुनिक परंपरा 1970 के दशक में प्रारंभ हुई, जब नेशनल बुक ट्रस्ट ने दिल्ली में पहले विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया। ये मेले न केवल साहित्यिक संवाद का माध्यम बने हैं, बल्कि विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों को जोड़ने का एक सशक्त मंच बनकर शब्द, विचार तथा भावनाओं को जीवंत किया हैं। ये केवल पुस्तकों की खरीद-बिक्री का स्थान नहीं, बल्कि भाषाई और साहित्यिक विविधता को प्रोत्साहित करते हुए समाज के विभिन्न वर्गों को एक मंच पर लाकर उनके विचारों को साझा करने का अवसर भी प्रदान करते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुस्तक मेले न केवल साहित्यिक चेतना को सजीव करते हैं, बल्कि गहरी सांस्कृतिक चेतना का पोषण भी करते हैं।

विश्व पुस्तक मेला न केवल पुस्तकों का उत्सव है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक धरोहर, साहित्यिक समृद्धि और विविधता का उत्सव मनाने के साथ पुस्तक-संस्कृति को सजीव बनाने का अवसर भी है। इंसान की ज़िंदगी में विचारों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। वैचारिक क्रांति एवं विचारों की जंग में पुस्तकें सबसे बड़ा हथियार है। जिसके लिए न तो कोई लाइसेंस लेना है, न ही इसके लिए किसी नियम-क़ायदे से गुज़रना है, लेकिन यह हथियार जिसके पास हैं, वह ज़िंदगी की जंग हारेगा नहीं। जब लड़ाई वैचारिक हो तो किताबें हथियार का काम करती हैं। किताबों का इतिहास शानदार और परम्परा भव्य रही है। पुस्तकें मनुष्य की सच्ची मार्गदर्शक हैं। पुस्तकें सिर्फ जानकारी और मनोरंजन ही नहीं देती बल्कि हमारे दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखती हैं। समाज में पुस्तकें पुनः अपने सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठित हो, इसके लिये ऐसे मेले मील का पत्थर है।

पुस्तकें वैचारिक जंग के साथ-साथ जीवन-जंग को जीतने का सक्षम आधार है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पुस्तकों के महत्व पर लिखा है कि तोप, तीर, तलवार में जो शक्ति नहीं होती, वह शक्ति पुस्तकों में रहती है। तलवार आदि के बल पर तो हम केवल दूसरों का शरीर ही जीत सकते हैं, किंतु मन को नहीं। लेकिन पुस्तकों की शक्ति के बल पर हम दूसरों के मन और हृदय को जीत सकते हैं। ऐसी जीत ही सच्ची और स्थायी हुआ करती है, केवल शरीर की जीत नहीं! वस्तुतः पुस्तकें सचमुच हमारी मित्र हैं। वे अपना अमृतकोश सदा हम पर न्यौछावर करने को तैयार रहती हैं।

उनमें छिपी अनुभव की बातें हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हमारे मन में उठ रहे सवालों का जवाब पाने के लिए पुस्तकों से बेहतर ज़रिया कोई भी नहीं। तब भी जब हमारे आस-पास कोई नहीं है, हम अकेले हैं, उदास हैं, परेशान हैं, किताबें हमारी सच्ची दोस्त बनकर हमें सहारा देती हैं। पुस्तकोें का महत्व एवं क्षेत्र सार्वकालिक, सार्वभौमिक एवं सार्वदैशिक है। जहां तक जीवन की पहुंच है, वहां तक पुस्तकों का क्षेत्र है। पुस्तकों की यही कसौटी बताई गयी है कि वे जीवन से उत्पन्न होकर सीधे मानव जीवन को प्रभावित करती है। दो और दो चार होते हैं, यह चिर सत्य है पर साहित्य नहीं है क्योंकि जो मनोवेग तरंगित नहीं करता, परिवर्तन एवं कुछ कर गुजरने की शक्ति नहीं देता, वह साहित्य नहीं हो सकता अतः अभिव्यक्ति जहां आनन्द एवं जीवन ऊर्जा का स्रोत बन जाए, वहीं वह साहित्य है। पुस्तकें पढ़ना विचार सुनने या भाषणों से बेहतर हैं।

रेडियो पर अपने मन की बात के जरिये प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने हिन्दी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचन्द का उल्लेख करते हुए लोगों से अपने दैनिक जीवन में किताबें पढ़ने की आदत डालने का आह्वान किया था। साथ ही उपहार में ‘बुके नहीं बुक’ यानी किताब देने की बात कही। पुस्तक-संस्कृति को जनजीवन में प्रतिष्ठापित करने की दृष्टि से उनकी यह एक नयी प्रेरणा है, झकझोरने एवं सार्थक दिशाओं की ओर अग्रसर करने की मुहिम है। देश में स्वामी विवेकानंद की धारा से पुनर्जागरण का एक दौर शुरू हुआ था जिससे हमें आजादी मिली थी, आचार्य श्री तुलसी के नैतिक क्रांति के शंखनाद-अणुव्रत आन्दोलन से नैतिक, वैचारिक एवं चारित्रिक बल मिला और अब मोदी के नेतृत्व में पुनर्जागरण का एक नया दौर शुरु हुआ है जो देश को एक नये सांचे में गढ़ने वाला साबित हो रहा है, इससे नया भारत निर्मित हो रहा है एवं पढ़ने की कम होती रूचि पर विराम लग रहा है। पुस्तक मेलों से पुस्तक एवं पुस्तकालय क्रांति के नये दौर का सूत्रपाठ हो रहा है।

नये युग के निर्माण और जन चेतना के उद्बोधन में वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैचारिक क्रांति का सशक्त आधार पुस्तकें हैं। पुस्तकें नई दुनिया के द्वार खोलती हैं, दुनिया का अच्छा और बुरा चेहरा बताती, अच्छे बुरे की तमीज पैदा करती हैं, हर इंसान के अंदर सवाल पैदा करती हैं और उसे मानवता एवं मानव-मूल्यों की ओर ले जाती हैं। ये पुस्तकें ही हैं जो बताती हैं कि विरोध करना क्यूँ जरूरी है। ये ही व्यवस्था विरोधी भी बनाती हैं तो समाज निर्माण की प्रेरणा देती है। भले ही आज के इंटरनैट फ्रैंडली वर्ल्ड में सीखने के लिए सब कुछ इंटरनैट पर मौजूद है लेकिन इन सब के बावजूद जीवन में पुस्तकों का महत्व आज भी बरकरार है। उन्नत एवं सफल जीवन के लिये पुस्तकों के पठन-पाठन की संस्कृति को जीवंत करना वर्तमान समय की बड़ी जरूरत है। क्योंकि पुस्तकों में तोप, टैंक और एटम से भी कई गुणा अधिक ताकत होती है।

अणुअस्त्र की शक्ति का उपयोग ध्वंसात्मक ही होता है, पर सत्साहित्य मानव-मूल्यों में आस्था पैदा करके स्वस्थ समाज की संरचना करती है। पुस्तकें मित्रों में सबसे शांत व स्थिर हैं, वे सलाहकारों में सबसे सुलभ व बुद्धिमान हैं और शिक्षकों में सबसे धैर्यवान। पुस्तकें समाज एवं राष्ट्र रूपी शरीर की मस्तिष्क होती है, जिनसे हमारी रूचि जागे, आध्यात्मिक एवं मानसिक तृप्ति मिले, हममें शक्ति एवं गति पैदा हो, हमारा सौन्दर्यप्रेम एवं स्वाधीनता का भाव जागृत हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश उपलब्ध हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न करें। दिल्ली विधानसभा चुनावों की राजनीतिक सरगर्मियों के बीच यह पुस्तक मेला नये भारत, सशक्त भारत, विकसित भारत का इंजन है। आज भी सबसे बड़ी लड़ाई विचारों की है और विचारों के युद्ध में पुस्तकें ही वास्तविक हथियार हैं।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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