सघन वृक्षों की छांव में खिलखिलाता बचपन

“सर! बाहर देखिए, बच्चे अतूत के पेड़ के नीचे बेफालतू घूम रहे हैं।” कक्षा 2 में पढ़ रही मीनाक्षी ने मेरी दाहिनी बांह झिंझोड़ते हुए शिकायत की। उसके लहजे में उलाहना का स्वर भी शामिल था क्योंकि कल उसे शहतूत के पेड़ों के नीचे घूमने से मना किया था। दरअसल, नई चारदीवारी बनने के बाद अभी भी कुछ ईंटें और बालू-रोड़ा वहां बिखरा पड़ा है जिसे मैदान में बिछा-कूट कर समतल कराया जाना है पर धान रोपाई के कारण मजदूर और कारीगर न मिल पाने से काम रुका पड़ा है। बारिश के कारण ईंट रोड़ा के ढेर में सांप-बिच्छू होने के भय के कारण बच्चों, खासकर छोटे बच्चों, को उधर नहीं जाने देता। मैं बाहर निकला तो देखा कि 15-20 बच्चे शहतूत के पेड़ों के नीचे गिर हुए शहतूत के फल बीन रहे हैं।

मुझे निकट आता देख बच्चे ठिठके और अपने बीने हुए शहतूत से भरी जेबें पकड़े नल की ओर चल पड़े। कक्षा 4 की छात्रा अंकिता ने मेरी ओर मुट्ठी खोल हथेली पसारते हुए कहा, ” सर, आप भी खा लीजिए। बहुत मीठे हैं।” मैंने एक शहतूत मुंह में डालते हुए कहा कि कुछ शहतूत मीनाक्षी को दे दो। मीनाक्षी शहतूत पाकर चहक उठी, उसे शिकायत करने का मीठा फल मिल गया था। बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर बह चले थे। शहतूत के रस से मेरा मुंह भर गया और मिठास घुलने लगी। मैं अमरूद की एक डाल को बायें हाथ से पकड़ उसमें लगी कलियों और छोटे फलों को दायें हाथ से हौले से स्पर्श किया। मन अतीत के उपवन की मधुर स्मृतियों में विचरण करने लगा था।

वह 7 अगस्त, 2019 का दिन था जब मैंने इस विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यभार ग्रहण किया था। मेरे नेतृत्व में ही चार अन्य शिक्षक-शिक्षिकाओं ने भी अपने नये विद्यालय की पारी आरम्भ की थी। वहां कार्यरत प्रधानाध्यापक मैडम दूसरा विद्यालय आवंटित होने तक विद्यालय संचालन का कार्य देखती रहीं। पांच कक्षाएं और आठ शिक्षक, मेरे लिए कोई काम न था। मैं चैनल वाले हॉल में एक किनारे कुर्सी-मेज लगा बैठा भविष्य के अपने सपनों के स्कूल की योजना बनाता रहता तो कभी हिंदी के किसी पाठ पर आधारित शिक्षण अधिगम सामग्री। स्कूल के पीछे चार फीट ऊंची चारदीवारी से घिरा एक बहुत छोटा खाली मैदान था जिस पर बेतरतीब उगी-फैली घास और कूड़ा मुझे रोज चुनौती देता दिखाई देता। मैंने इस छोटी सी जगह को हरा-भरा करने का संकल्प कर लिया था।

लगभग एक महीने बाद मैडम अपने आवंटित विद्यालय चली गईं। मैंने उसी दिन दोपहर बाद सभी टीचर्स के साथ बैठक की और विद्यालय विकास सम्बंधी योजना साझा कर सुझाव एवं सहयोग मांगा। मेरे सहयोगी खुले मन-मस्तिष्क से बातें सुन उदार हृदय से हर सम्भव सहयोग करने की प्रतिबद्धता दिखा कहा कि वे कक्षाएं संभालेंगे और मैं अन्य सभी काम। मन मिले तो रास्ते खुल गये। अगले दिन सुबह ही मैंने विद्यालय के पड़ोस के अभिभावकों को बुला उनके पशुओं हेतु मैदान की घास काट कर ले जाने का अनुरोध किया। आधा घंटे में मैदान साफ हो गया। अगले दिन सफाई कर्मी बुला सभी कूड़ा बाहर गड्ढों में भरवा दिया। सितम्बर समाप्ति की ओर था और तेज धूप उमस से वृक्षरहित विद्यालय में बैठना मुश्किल हो रहा था। अगले तीन दिन में कुदाली-फावड़ा ले पौधे लगाने लायक गड्ढे खोद डाले।

वन विभाग की नर्सरी से शीशम, सागौन के पौधे खरीदे। ग्राम प्रधान जी से अमरूद और आंवला के पौधे प्राप्त हुए। सीताफल, नीम और बेल बाजार से लाया, सहजन के पौधे विद्याधाम समिति के सौजन्य से मिले। ब्रह्मकमल, चांदनी, तुलसी, गुड़हल, बोगनविलिया आदि कुछ फूल और लताएं परिचित मित्रों से मांग लाया। धीरे-धीरे ये सब पौधे गड्ढों में लगने लगे और समुचित खाद पानी और देखरेख से अपनी जड़ें जमा बढ़ने लगे। वह छोटा सा मैदान अब संवरने लगा था। विद्यालय आते ही मैं एक-एक पौधे से बच्चों की तरह मिलता, उनको स्पर्श कर बातें करता। कटाई-छटाई हेतु बागवानी के उपकरण भी खरीद लिए थे। शिक्षक साथी सराहना कर विनोद करते कि आपके बच्चे अब अच्छी बढ़वार में हैं।

यह सुन मैं खुशी से झूम उठता। पर मेरी खुशी जैसे किसी को रास न आई। एक सोमवार जब विद्यालय खोल मैदान पहुंचा तो देखा फूलों के पौधे गायब थे। कोई सभी पौधे उखाड़ ले गया था, एक पल को विश्वास नहीं हुआ पर सच सामने था। एक पल गुस्सा आया, पर स्वयं को समझाया और अगले सप्ताह नये पौधे एवं कुछ कटिंग्स रोप दी। गड्ढों में फिर जीवन सांसें लेने लगा। दिन बीतते समय न लगा, शीत ऋतु ने दस्तक दी। भयंकर ठंड के कारण छुट्टी घोषित हो गई और पंद्रह दिन बाद मैं विद्यालय पहुंच। मैदान की हालत देखकर मन चीत्कार कर उठा। पौधों को कोई तोड़ गया था। अधसूखी शाखाएं इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। विचार करता रहा, आखिर विद्यालय के पौधों से किसे दिक्कत हो सकती है। मैंने तुरंत पडोस के अभिभावकों और अन्य गांव वालों को बुलवाया। सब स्थिति दिखाई। वे बोले कि बहुत ग़लत हुआ है पर यह काम किसी बड़े का नहीं है। छुट्टियों में बच्चे चारदीवारी फांदकर घुस आते थे, खेलते थे। निश्चितरूप से उन्होंने ही किया है।‌

वे चले गये, मन बहुत निराश हुआ। सोचा कि अब नहीं करना कुछ। सहसा मन में गूंजा ” इतनी जल्दी हार स्वीकार कर ली। तुम्हें तो भविष्य निर्माण करना है। उठो, फिर खड़े हो। सफलता अवश्य मिलेगी।” लगा कि किसी अदृश्य शक्ति ने तन-मन में ऊर्जा, उत्साह का संचार कर दिया। बागवानी के उपकरण उठाये, एक-एक पौधे की आवश्यकतानुसार कटिंग की। उस रात विचार करता रहा कि कहां चूक हो रही है, यही सोचते नींद के आगोश में चला गया। सुबह का सूरज मेरे लिए नया संदेश लेकर उगा। मैंने निर्णय लिया कि प्रत्येक पौधे के साथ बच्चों की एक टोली को जोड़ कर देखरेख की जिम्मेदारी दूंगा। स्कूल जाने से पहले नर्सरी गया कुछ पौधे खरीदे और नये उत्साह से स्कूल पहुंचा। प्रार्थना सत्र में ही कक्षा चार एवं पांच के बच्चों से कहा कि जो बच्चे बागवानी सीख पेड़ों से दोस्ती करना चाहते हैं, हाथ उठायें। लगभग तीस बच्चों ने हाथ उठाये।

सभी बच्चों के साथ पेड़-पौधों के महत्व, देख-रेख पर बातचीत की। तीन-तीन बच्चों की टोलियां बना दीं। पेड़ों की नम्बरिंग करके जिम्मेदारी दी। बच्चों ने मिलकर लाए गए पौधे रोपे, पानी पिलाया, खुशी से चहकने लगे। मुझे लगने लगा कि वृक्ष संरक्षण की हिचकोले खाती गाड़ी सहजता से बढ़ने लगी। मैं देखता कि बच्चे जिम्मेदार हो रहे हैं, वे पौधों की चिंता करते, निराई-गुड़ाई कर पानी देते। सूखी पत्तियां और घास हटाते। रोज ही मुझसे प्रगति बताते, “सर, आज हमारे पौधों में नयी गुलाबी पत्तियां निकली हैं।” तो कोई खुशी से चहकती, “मेरा पौधा मुझसे एक बीता बड़ा हो गया।” तो कोई निराश हो बुझे स्वर में पूछता, ” मेरे पौधों में फूल कब आएंगे।” मैं देखता कि टोलियां आपस में एक-दूसरे को छेड़ती रहतीं कि देखो हमारी टोली का पौधा फूलों से भर गया है और तुम्हारे पौधे अभी सो रहे हैं। एक महीने बाद टोलियों के साथ बैठक हुई।

हर टोली ने अपने काम का विवरण साझा किया। क्या प्रगति हुई, क्या नुकसान हुआ, किन पौधों में कीड़े लगे और रोकथाम के लिए क्या उपाय किया, आदि सब बताया। बच्चों ने कॉपियों में दिनांक अनुसार खाद, दवा देने, फूल निकलने की तिथि अंकित की थी। तभी मुझे पता चला कि एक टोली ने पत्ती कुतरने वाले कीड़े से बचाव के लिए पौधे पर राख और नीम की सूखी पत्तियां मिलाकर पाउडर धुरका था तो अन्य टोली ने सब्जी के छिलकों से गड्ढे में कैसे खाद बनाई, यह लिखा। हालांकि मुझसे कुछ भी छिपा नहीं था, मैं प्रत्येक दिन उन सभी की गतिविधि देख ही रहा था। पौधे अब बिल्कुल सुरक्षित थे, छुट्टी के बाद भी बच्चे विद्यालय आकर एक-दो बार चारदीवारी से झांक जाते। मार्च का महीना आ गया था। शहतूत के पौधों में पहली बार फल लगे थे। ये लाल कत्थई रंग की बजाय हरे, मीठे एवं आकार में बड़े थे।

रसोईयों द्वारा गोबर से लीपा गए मैदान में डालों को हिलाकर बच्चों ने एक छोटी टोकरी भर फल एकत्रित किए, जिन्हें सभी बच्चों में बांट दिया गया। पहली बार बच्चों ने शहतूत का स्वाद चखा था। अब तो स्कूल खुलते ही शहतूत बीनने को बच्चे पेड़ों की ओर दौड़ पड़ते। छोटे से मैदान में 30 से अधिक ऊंचे वृक्षों की छांव तले हंसते-खेलते बचपन को देख खुशी मिलती कि कुछ सार्थक हो गया है। “सर, आज कितने लीटर दूध लेना है।” मैं स्मृतियों की गुफा से जैसे बाहर आया। देखा, रसोईया दूध लेने हेतु बाल्टी लिए खड़ी हैं। मैं बोला कि 80 बच्चे हैं आज तो 12 लीटर ले लीजिए। मेरी नज़र शहतूत के पौधों की ओर घूमी तो देखा कि कुछ बच्चे शहतूत बीन रहे थे। मेरे चेहरे पर खुशी की लकीरें उभर आई थीं।

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)

             

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