कहते हैं जब जब धरती पर अत्याचार और पाप बढ़ जाते हैं, अधर्म का बोलबाला बढ़ जाता है। तब तब अवतारी पुरुष इस धरा पर जन्म लेते हैं, और वे ही पृथ्वी पर हो रहे अत्याचारों और पाप को खत्म करते हैं, धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करते हैं। ठीक ऐसे ही द्वापर युग में घोर अत्याचारी राजा कंस का दूराचार और अधर्म अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था। जन जन में त्राहि-त्राहि मची हुई थी।, यह सब देखकर पृथ्वी इतनी ज्यादा व्यथित हुई कि वह व्याकुल हो उठी, तब उसने अपनी समस्या निदान की भगवान विष्णु से प्रार्थना की, विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया कि – “हे पृथ्वी तू चिंतित हो रही है मैं बहुत जल्दी ही तेरी छाती का भार हल्का कर दूंगा। जा तू निश्चिंत रह मैं शीघ्र ही अवतार लेकर कंस का वध कर दूंगा। पृथ्वी पर बढे पाप अधर्म और चारों ओर मचे हाहाकार को खत्म करूंगा।” पृथ्वी यह सुनकर बड़ी प्रसन्नचित वापस लौटती है।
उधर कंस की राजधानी इस समय मथुरा थी। उसने अपने न्यायप्रिय पिता को बेड़ियों में जकड़कर काल कोठरी में डाल दिया था और स्वयं जबरदस्ती राजा बन बैठा था। कंस के इस कदम से किसी को जरा भी प्रसन्नता नहीं हुई उल्टे हर कोई बहुत दुखी हुआ, पर किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि वह उसके विरुद्ध कोई भी टिका टिप्पणी कर सके। सो सभी ने मुंह सी लिया था। कंस की एक बड़ी लाड़ली बहिन देवकी थी, उसने उसका विवाह अपने ही दरबार के उच्चाधिकारी वसुदेव से कराया था। एक दिन भविष्यवाणी होती है कि – “हे कंन्स अब तेरा विनाश होने का समय निकट आ गया है, तेरा काल शीघ्र ही तेरी ही बहन देवकी के कोख से जन्म लेगा”। कंस ने जब यह सुना तो उसने तत्काल अपनी प्यारी बहिन और अपने बहनोई देवकी वासुदेव को करागार में डाल दिया। कंस भविष्यवाणी से इतना ज्यादा डर गया था कि उसने कृष्ण जन्म के पूर्व ही देवकी के सात नवजात शिशुओं को मौत के घाट उतार दिया। वहीं उसने राज्य में जन्म लेने वाले प्रत्येक बच्चों को भी मार डाला। उस कालखंड में जन्मे सहस्त्रों शिशु आने वाली क्रांति के लिये बलि हो गये। लेकिन जो होना है वह तो होकर ही रहेगा, जो विधाता ने लिख दिया है वह तो किसी के मिटाए मिट ही नहीं सकता, कंस चाहे कितना भी शक्तिशाली रहा पर वह भी विधि की रचनाओं में बाधा नहीं डाल सका।
देवकी पुनः आठवीं बार पुनः गर्भवती थी। निरंतर कंस के गुप्तचरों की निगरानी जारी थी, कि कब देवकी शिशु को जन्म दे और कंस उसका वध कर सके। भादो की काली अंधेरी रात्रि कृष्ण पक्ष की बेला में अर्धरात्रि को कारावास में ही कृष्ण ने जन्म लिया। कृष्ण जन्म के समय सभी द्वारपालो गुप्तचरों को अचेतावस्था ने आ घेरा (वह तो कृष्ण की माया थी) और वसुदेव ने गुप्त रूप से कृष्ण को मथुरा से दूर सुरक्षित स्थान वृंदावन में नंद के पास पहुंचा दिया, जहां देवकी से भी बढ़कर ममत्व लुटाने वाली माता यशोदा कृष्ण का इंतजार कर रही थी। कंस ने कालांतर में कृष्ण का पता लगाकार पूतना, अकासुर, बकासुर, धन्वासुर आदि अनेक राक्षसों के द्वारा कृष्ण का वध करना चाहा, किंतु कृष्ण ने इन सभी का नाश खेल खेल में ही कर दिया। शत्रु उसे मारने आते, कृष्ण उन से खेलते और वे मारे जाते। वे तो बस मंद-मंद मुस्कुराते रहते और बांसुरी बजाते रहते। एक तरफ ये खेल चल रहा था। दूसरी ओर कृष्ण गोपियों की मटकी फोड़ना, दही और माखन चुराना और तरह तरह की बाल सुलभ लीलाओं का खेल भी खेल रहे थे। जब माता यशोदा उनके शरारतों से तंग आकर उनके कान उमेठती तो कृष्ण बढ़ी मासूमियत से कहते हैं।
” ब्यान आन सन बैर पड़ी हैं, बरबस मुख लपटाओ , मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो “
माखनचोर कृष्ण क्या गोपियां और क्या ग्वाले वह तो जनजन के मन में बस गये है। कृष्ण की मोहनी मूरति के प्रेम में सारा समाज ही डूब रहा था। वो शायद काले कलुटे कृष्ण के मन में यमुना के पानी से अधिक गहरा प्रेमजाल था, जिससे प्रत्येक जन को अपने अंदर समा लिया था। कृष्ण का प्रेम तो गोपियों, ग्वालो, गांव, वृंदावन, कुंज गलियों, कदंब पेड़ों, यमुना नदी और क्या कहें सृष्टि के कण कण में उसकी मनोहर छवि और बांसुरी की माधुरी में सब कुंछ समा गया। महारास के प्रेम पर्व पर हर गोपी के साथ पारलौकिक प्रेम के नृत्य माधुर्य में डूबे गोपाल कृष्ण की मधुर मुरली की वह तान जब गोपियाँ सारे बंधन और लोकलाज को तज तोड़कर पहुंच गई थी, अपने गोपाल कृष्ण के पास। अधूरे श्रृंगार में अधूरे वस्त्र में प्रेमरस से भावविभोर, जिसे घर में बंद कर दिया गया था, उस गोपी का मात्र शरीर ही रह गया, दिव्य आत्मा तो शरीर त्यागकर पहुंच गई महारास में। कृष्ण वृंदावन छोड़ मथुरा के लिये प्रस्थित हो रहे थे, तब विश्व के इस महान प्रेमी कृष्ण के लिये वृंदावन, बाग-बगीचे, ग्वाले गोपियां, फूल-पत्ते, घाट-बाट, गाय-बछड़े, नर, नारी, नंद यशोदा सभी रो उठे थे उनकी विरह वेदना से, पर… कृष्ण ने भी तो इस विरह वेदना को भोगा था।