शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) शिखर बैठक में हिस्सा लेने पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच रविवार को हुई द्विपक्षीय बातचीत पर अगर दुनिया भर की नजरें टिकी थीं तो यह उद्देश्यपूर्ण एवं वजहपूर्ण थी, क्योंकि बदलती दुनिया में हाथी और ड्रैगन का साथ-साथ चलना जरूरी हो गया है। दोनों शीर्ष नेताओं की सौहार्दपूर्ण बातचीत ने न केवल दोनों देशों के रिश्तों में बढ़ते सामंजस्य की प्रक्रिया को मजबूती दी है बल्कि कई तरह की अनिश्चितताओं के बीच विश्व अर्थ-व्यवस्था के लिए भी नई संभावनाएं पैदा की हैं, चीन में दिखे दोनों देशों के मिठासभरे संबंध अनेक नई आशाओं एवं उम्मीदों को नया आकाश देने वाले बनते हुए प्रतीत हुए हैं। दोनों देशों के रिश्तों में लंबे समय बाद सकारात्मकता की नई हवा बहती दिखाई दे रही है। एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की मुलाकात ने संकेत दिया है कि दोनों देश पुराने मतभेदों और अविश्वास को पीछे छोड़कर साझेदारी की नई इबारत लिखना चाहते हैं। यह मुलाकात केवल कूटनीतिक शिष्टाचार नहीं थी, बल्कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में सहयोग और संवाद की अपरिहार्यता को स्वीकार करने का प्रयास थी।

भारत-चीन दोनों ही विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और विशाल जनसंख्या वाले देश हैं। ऐसे में यदि दोनों साथ आते हैं तो न केवल आपसी विकास संभव है, बल्कि वैश्विक संतुलन और शांति की दिशा में भी बड़ा योगदान होगा। हालांकि सीमाई विवाद और विश्वास की कमी जैसे मुद्दे अब भी बने हुए हैं, परंतु यदि इन्हें परे रखकर साझा आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक सहयोग को प्राथमिकता दी जाए तो यह संबंध नई ऊँचाइयों को छू सकते हैं। भारत और चीन के बीच यह संवाद केवल दो देशों तक सीमित नहीं है, बल्कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबदबे के बीच एशियाई शक्ति संतुलन को नई दिशा दे सकता है। यदि दोनों राष्ट्र व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर आपसी हितों पर ध्यान केंद्रित करें तो न केवल तनाव कम होंगे, बल्कि विश्व राजनीति में एशिया की भूमिका भी मजबूत होगी। निश्चित ही लंबे समय से चली आ रही आपसी अविश्वास की दीवारों और तनाव की बर्फ को पिघलाने का प्रयास हुआ है।
सबसे पहले, इन वार्ताओं ने यह संकेत दिया है कि भारत और चीन अब केवल मतभेदों में उलझे रहने के बजाय साझेदारी की संभावनाओं पर ध्यान दे रहे हैं। व्यापार, निवेश और तकनीकी सहयोग की दिशा में नए आयाम खुल सकते हैं। चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और यदि यह संबंध संतुलन और पारस्परिक विश्वास पर आधारित हो जाए, तो दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को अपार गति मिल सकती है। इस मुलाकात ने अमेरिका की “दादागिरी” पर भी चोट की है। डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक आर्थिक नीतियां और संरक्षणवादी रुख एशिया के उभरते राष्ट्रों को नई गठबंधन राजनीति की ओर धकेल रहा है। भारत-चीन के बीच बढ़ती समझदारी और रूस की भूमिका के साथ एक “त्रिकोणीय शक्ति” का उभार संभव है, जो पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देगा। यह न केवल शक्ति-संतुलन की नई धुरी बनेगा, बल्कि विश्व शांति और सौहार्द की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। पाकिस्तान पर भी इसका असर दिखना स्वाभाविक है। भारत-चीन की नजदीकी पाकिस्तान के लिए असुविधा का कारण बनेगी, क्योंकि उसकी विदेश नीति लंबे समय से चीन पर आश्रित रही है।

