प्रकृति की नाराजगी को नहीं समझा तो मानव अस्तित्व खतरे में

प्रकृति अपनी उदारता में जितनी समृद्ध है, अपनी प्रतिशोधी प्रवृत्ति में उतनी ही कठोर है। जब तक मनुष्य उसके साथ तालमेल में रहता है, तब तक वह जीवन को वरदान देती है, जल, जंगल और जमीन के रूप में। लेकिन जैसे ही मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ण महत्वाकांक्षाओं और तथाकथित आधुनिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति की उपेक्षा करने लगता है, यही प्रकृति विनाश का रूप धारण कर लेती है। आज पूरे भारत में जो बाढ़, जल प्रलय और मौसम के अनियंत्रित बदलाव के दृश्य दिखाई दे रहे हैं, वे केवल प्राकृतिक आपदा नहीं हैं, बल्कि हमारी गलतियों का सीधा परिणाम हैं। प्रकृति के इस रौद्र रूप के पीछे महज संयोग या ‘कुदरत की नाराज़गी’ को जिम्मेदार ठहराना पर्याप्त नहीं है।

यह आपदाएं सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन, वनों की अंधाधुंध कटाई और अनियंत्रित विकास मॉडल का परिणाम हैं। पहाड़ों का पारिस्थितिकी तंत्र अत्यंत संवेदनशील होता है, लेकिन नीतिनिर्माताओं ने पहाड़ों के विकास को मैदानी मॉडल पर ढालने की कोशिश की। बड़े-बड़े होटल, अव्यवस्थित सड़कें, बांध, खनन और निर्माण ने पहाड़ों की नाजुक संरचना को हिला दिया। जब जंगल काटे जाते हैं तो वर्षा का पानी भूमि में समाने के बजाय सीधे तेज धाराओं के रूप में बहने लगता है। यही बाढ़ और भूस्खलन का बड़ा कारण बनता है, इसी से भारी तबाही का मंजर देखने को मिल रहा है, देश के बड़े हिस्से में जन-जीवन अस्त-व्यस्त है, लाखों हेक्टेयर फसलें जनमग्न है, जान-माल का नुकसान भी बड़ा हुआ है, भारी आर्थिक नुकसान ने घना अंधेरा बिखेर दिया है। चारों ओर चिन्ताओं एवं परेशानियों के बादल मंडरा रहे हैं।

आज की बाढ़ और जल प्रलय केवल पानी का उफान नहीं, बल्कि हमारी गलतियों का आईना है। यह प्रकृति का प्रतिशोध है, उसकी चेतावनी है कि यदि अब भी नहीं चेते तो भविष्य और भी विकराल होगा। महात्मा गांधी ने कहा था-“प्रकृति हर किसी की आवश्यकता पूरी कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को नहीं।” यही सच्चाई है। यदि हमने संतुलन नहीं सीखा, तो यह विनाशकारी दृश्य आने वाले वर्षों में और भयावह होंगे। लेकिन यदि हमने चेतावनी को अवसर माना, तो प्रकृति फिर से मां की तरह हमें संभाल लेगी। जीवनदायी पानी जब अपने विकराल रूप में सामने आता है तो उसका प्रकोप कितना घातक और विनाशकारी हो सकता है, यह इस वर्ष की मूसलाधार मानसूनी बारिश एवं बादल फटने की घटनाओं ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है। सामान्यतः जल जीवन का आधार है, लेकिन जब वही जल अपनी मर्यादा तोड़कर प्रलयंकारी रूप में आता है तो घर, खेत, सड़क, पुल, मंदिर-मस्जिद और मानवीय जीवन तक बहाकर ले जाता है।

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वाेत्तर के पहाड़ी राज्य इस समय प्रकृति के ऐसे ही कहर का दंश झेल रहे हैं। बादल फटने की अप्रत्याशित घटनाएं, पहाड़ों से टूटते हिमखंड, अचानक बहते मलबे और बेकाबू नदियों का सैलाब-ये सब मिलकर भयावह परिदृश्य खड़ा कर रहे हैं। वनों की कटाई ने न केवल भूमि की जलधारण क्षमता घटाई है, बल्कि स्थानीय जलवायु चक्र को भी प्रभावित किया है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान बढ़ा है, जिससे पहाड़ी इलाकों में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और अप्रत्याशित समय पर अत्यधिक वर्षा हो रही है। यही कारण है कि बादल फटने जैसी घटनाएं पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गई हैं। पहाड़ों की बस्तियां, जो कभी प्राकृतिक संतुलन में जीती थीं, अब मानवजनित गतिविधियों की मार झेल रही हैं। दरअसल, समस्या का मूल यह है कि हमने विकास की परिभाषा को केवल कंक्रीट और मशीनों से जोड़ दिया है। पर्यावरणीय संतुलन और पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता को दरकिनार कर योजनाएं बनाई गईं। इसी का परिणाम है कि जब आपदा आती है तो न तो हमारी चेतावनी प्रणाली पर्याप्त साबित होती है और न ही प्रशासन की तैयारियां। सर्वाेच्च न्यायालय में हिमाचल सरकार ने यह स्वीकार भी किया है कि अब तक अपनाए गए उपाय अपर्याप्त हैं। यह स्वीकारोक्ति बताती है कि समस्या कितनी गंभीर है।

भारत की नदियाँ कभी जीवन का स्रोत मानी जाती थीं। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी जैसी नदियों के किनारे सभ्यताएँ पली-बढ़ीं। लेकिन आज वही नदियाँ मौत का पैगाम बनकर आती हैं। कारण है उनके प्राकृतिक प्रवाह में मानवीय हस्तक्षेप-बेतरतीब बांध, अतिक्रमण, नालों में बदल चुकी धारा और किनारों पर बसी बस्तियाँ। भारत में हर साल औसतन 1,600 लोग बाढ़ से मारे जाते हैं और लगभग 75 लाख लोग प्रभावित होते हैं। फसलें तबाह होती हैं, पशुधन मरता है और अरबों रुपए की आर्थिक क्षति होती है। केवल 2023 में उत्तराखंड, हिमाचल और दिल्ली में आई बाढ़ से 60,000 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ। पिछले कुछ दशकों में मौसम का पैटर्न पूरी तरह बिगड़ चुका है। मानसून जो पहले जून से सितंबर तक नियमित हुआ करता था, अब अनिश्चित और असमान हो गया है। कभी 24 घंटे में महीनों की बारिश हो जाती है, तो कभी लंबे सूखे का दौर देखने को मिलता है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी ने पहाड़ों में अंधाधुंध निर्माण की पोल खोल दी। 2023 में दिल्ली में यमुना का 45 साल का रिकॉर्ड टूटना इस बात का संकेत है कि शहर जलवायु परिवर्तन और अव्यवस्थित शहरीकरण के सामने पूरी तरह असुरक्षित हो चुके हैं।

देश के लगभग हर हिस्से में जल प्रलय की कहानियाँ देखी जा सकती हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में पहाड़ टूट रहे हैं, भूस्खलन से गांव उजड़ रहे हैं। बिहार और असम में बाढ़ हर साल लाखों लोगों को बेघर कर देती है। दिल्ली और मुंबई जैसे आधुनिक महानगर भी जलजमाव से पंगु हो जाते हैं। राजस्थान जैसे रेगिस्तानी राज्य में भी अनियंत्रित बारिश और बाढ़ का नया खतरा मंडरा रहा है। सड़कों पर नावें चल रही हैं, पुल बह गए हैं, खेत-खलिहान जलमग्न हैं। यह नजारा केवल विनाश का नहीं, बल्कि हमारी नासमझी का प्रमाण है। प्रकृति बार-बार संकेत देती है कि संतुलन ही जीवन का आधार है, लेकिन हमने उसकी सीमाओं को लांघ दिया है। पहाड़ों को खोखला कर सुरंगें और सड़कें बनाई गईं। जंगलों को काटकर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए। नदियों को उनके मार्ग से हटाकर कृत्रिम रास्तों में बांध दिया गया। आज जब बादल फटते हैं या नदियाँ बेकाबू होती हैं, तो यह केवल आपदा नहीं बल्कि प्रकृति का प्रतिशोध है।

अब सवाल यह है कि इस संकट से निपटें कैसे। केवल राहत और मुआवजा देना समाधान नहीं है। आवश्यकता है दीर्घकालिक और ठोस कदम उठाने की। हमें जंगल बचाने होंगे, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बहाल करना होगा, शहरी योजनाओं में जलनिकासी और हरियाली को महत्व देना होगा, पर्वतीय विकास में संयम लाना होगा और सबसे बढ़कर जनजागरूकता फैलानी होगी ताकि लोग समझ सकें कि पर्यावरण की रक्षा ही उनके जीवन की रक्षा है। जरूरत है कि आपदाओं को केवल ‘प्राकृतिक’ न मानकर उन्हें ‘मानव निर्मित’ एवं सरकार की गलत नीतियों की आपदाएं’ भी समझा जाए। इसका अर्थ है कि इनका समाधान केवल राहत और बचाव तक सीमित न रहकर दीर्घकालिक रणनीति से जुड़ा होना चाहिए।

विशेषज्ञों की राय, वैज्ञानिक अध्ययन और स्थानीय समुदायों के अनुभवों को मिलाकर ऐसी नीतियां बननी चाहिएं, जो पहाड़ों की प्राकृतिक संरचना और पारिस्थितिकी को ध्यान में रखें। प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति हमें चेतावनी दे रही है कि यदि हमने समय रहते संतुलित विकास का मार्ग नहीं चुना तो भविष्य और अधिक भयावह होगा। पूर्व चेतावनी प्रणाली को सशक्त बनाना, पहाड़ी राज्यों के बीच आपसी समन्वय बढ़ाना, आपदा प्रबंधन तंत्र को त्वरित और प्रभावी बनाना, और सबसे बढ़कर-वनों एवं प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना, यह सब आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली भारी जन-धन हानि को बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस वर्ष की बाढ़ और बादल फटने की घटनाएं केवल त्रासदी नहीं, बल्कि एक स्पष्ट संदेश हैं-कि प्रकृति के साथ असंतुलन की कीमत हमें अपने अस्तित्व से चुकानी पड़ सकती है। इसलिए विकास की नीतियों को पर्यावरण की दृष्टि से पुनर्परिभाषित करना ही इस संकट से उबरने का वास्तविक मार्ग है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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