शिक्षक अपने काल का साक्षी होता है। वह वह विद्या का उपासक और साधक है तथा अप्रतिम कलाकार भी। वह अपनी मेधा, कल्पना, साधना, आत्मीयता, संवाद, सहानुभूति एवं समानुभूति से प्रेरित हो मानव जीवन को गढ़ता-रचता है। वह बच्चों का मीत है, सखा है। वह बच्चों की प्रतिभा की उड़ान के लिए अनंत आकाश देता है तो नवल सर्जना हेतु वसुधा का विस्तृत फलक भी। वह बच्चों को मौलिक चिंतन-मनन करने, तर्क करने, सीखने, कल्पना एवं अनुमान करने एवं उनके स्वयं के ज्ञान निर्माण हेतु अनन्त अविराम अवसर और जगह उपलब्ध कराता है, फिर चाहे वह कक्षा-कक्ष हो या कक्षा के बाहर का जीवन। सीखने-सिखाने की रचनात्मक यात्रा में शिक्षक सदैव साथ होता है, पर केवल सहायक की भूमिका में। वह बच्चों के चेहरों पर खुशियों का गुलाल मल देता है। आंखों में रचनात्मकता की उजास और मस्तिष्क में कल्पना के इंद्रधनुषी रंग भरता है। कोमल करों में विश्वास के साथ लेखनी और तूलिका दे सर्जना-पथ पर कुछ नया रचने-बुनने को प्रेरित कर अग्रसर करता है। उसके पास आने वाले बच्चे कोरे कागज या कोरी सिलेट नहीं होते जिस पर वह अपने विचार, अपनी इबारत अंकित करता हो। बच्चे खाली घड़ा भी नहीं होते जिन्हें वह अपने ज्ञान से लबालब भर दे, और बच्चे नहीं होते हैं कच्ची मिट्टी के लोंदे जिन्हें वह मनचाहा आकार देता हो या उनके मन की नम उर्वर जमीन पर अपने सिद्धांतों की पौध रोप देता हो। वह जानता है कि दुनिया के सभी बच्चे अनंत संभावनाओं से भरे हुए बीज हैं जिनके हृदय में शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, संगीत, कृषि, वानिकी, वाणिज्य, ललित एवं वास्तुकला, सामाजिक संस्कार एवं मानवीय मूल्य समाहित होते हैं। शिक्षक उनके अन्तर्मन में समाहित गुणों को उद्घाटित और प्रकाशित करने में सहायता करता है। बीज से विशाल वृक्ष बनने हेतु आवश्यक अनुकूल परिवेश, परिस्थितियां एवं पोषण प्रदान करता है। बच्चों की जन्मजात प्रतिभाओं को शिक्षण-प्रशिक्षण के द्वारा परिमार्जित कर लोक हितैषी और मानवीय मूल्यों में विश्वास से परिपूर्ण एक व्यक्तित्व के रूप में समाज के हाथों में सौंपता है जिसके हृदय में करुणा, समता, न्याय, विश्वास, सहानुभूति, कुटुम्ब भाव, समानता, सहकारिता, लोकतांत्रिकता एवं सामूहिकता और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना हिलोरें लेती है। यह सत्कर्म केवल एक शिक्षक ही करता है, कर सकता है। वह पीढ़ियों का निर्माता है। वह समाज का सिरजनहार है। विश्व शिक्षक दिवस उन उम्मीद जगाते एवं शिक्षा-सुगंध बिखेरते शिक्षकों के मान-सम्मान का दिन है जो लोकैषणा से परे ध्येय-पथ पर निरन्तर गतिशील हैं, जो प्रसिद्धिपरांगमुख हो शैक्षिक फलक पर सर्जना के मोहक रंग बिखेर रहे हैं, आकर्षक सितारे टांक रहे हैं। शिक्षकों की तपश्चर्या ही भारत के उपवन में, मानव मन में सुवास बनकर फैली है।

श्रेष्ठ शिक्षक केवल पाठ्यक्रम को ही नहीं पढ़ते-पढ़ाते बल्कि वे बच्चों के मन को पढ़ उनके हृदय में गहरे उतरते हैं। उनकी प्रकृति एवं स्वभाव को समझते हैं। कोमल सुवासित सुमनों को प्रेम, सद्भाव और आत्मीयता के शीतल जल से सिंचन करते हैं। ध्यातव्य है, बच्चे को मिली डांट-फटकार उसे विद्रोही, बागी और कुंठित बना देती है या हीन भावना से ग्रस्त एक मनोरोगी। श्रेष्ठ शिक्षक बच्चों के स्वभाव एवं प्रकृति से न केवल परिचित होते हैं बल्कि विपरीत आचरण करने पर कारणों की तह तक जाकर उपयुक्त उपचार तलाशते हैं। यहां पर मैं एक प्रसंग साझा करता हू। एक बार एक सज्जन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट करने शान्ति निकेतन गये। उन्होंने एक वृ़क्ष के नीचे गुरुदेव को चिन्तामग्न बैठे और लगभग 15-20 बच्चों को खेलते-दौड़ते, पेड़ पर चढ़ते-उतरते, रोते-हंसते-खिलखिलाते और उछल-कूद करते देखा। पर एक बच्चा पेड़ के नीचे चुपचाप गुमसुम बैठा था। उस सज्जन ने जाते ही गुरुदेव से कहा कि निश्चितरूप से आप पेड़ पर चढ़े बच्चों से परेशान एवं चिन्तित हैं। गुरुदेव रवीन्द्र ने उत्तर दिया कि मैं पेड़ पर चढ़े बच्चों से नहीं बल्कि पेड़ के नीचे बैठे निष्क्रिय उदास बच्चे को लेकर चिन्तित हूं, क्योंकि पेड़ पर चढ़ना, उछल-कूद करना बच्चों की स्वाभाविक प्रकृति है। बच्चों के व्यवहार में गतिशीलता, प्रवाह, ऊर्जा आवश्यक है। मैं यहां लिखते हुए हर्षित हूं कि आज ऐसे रचनाधर्मी, संवेदनशील एवं बालहितैषी शिक्षकों की एक लम्बी श्रंखला विद्यमान हैं जो बच्चों की प्रकृति और मनोभावों को समझते और उनके बचपन को बचाये रखते हुए उनमें साहस, शील, शौर्य, निर्भयता, संवेदना, सह-अस्तित्व, प्रेम, करुणा आदि मानवीय सद् प्रवृत्तियों को जाग्रत किये हुए हैं। जिनमें अपने परिवेश की कठिनाइयों से जूझने एवं उलझनों को सुलझाने, निर्णय लेने, कल्पना एवं तर्क शक्ति की क्षमता का विकास होता है और उनके परिवार और परिवेश में घट रही घटनाओं, प्राकृतिक बदलावों, सामाजिक ताना-बाना, तीज-त्योहारों को समझने-सहेजने, अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। जिनकी सांसों में अपनी माटी की महक बसी है और आंखों में श्रम से उपजा सौन्दर्यबोध। उनमें लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और लोकसाहित्य के लयात्मक राग के प्रति संवेदना और अनुराग भी।

