अंबेडकर केवल जातिगत समानता ही नहीं, बल्कि लैंगिक समानता के भी प्रबल समर्थक थे

भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर : जीवन-मर्म”

डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय समाज और इतिहास के ऐसे महापुरुष रहे हैं, जिनके बिना आधुनिक भारत की कल्पना अधूरी है। उन्होंने जिस साहस, संघर्ष और दृष्टि के साथ जीवन जिया, वह उन्हें केवल संविधान निर्माता ही नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति के सच्चे पुरोधा के रूप में स्थापित करता है। डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर:जीवन-मर्म जिसके लेखक डॉ.राजेन्द्र मोहन भटनागर है। डॉ.राजेन्द्र मोहन भटनागर द्वारा लिखित “भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर : जीवन-मर्म” इसी महानायक के जीवन, विचारों और योगदान पर गहन प्रकाश डालती है। यह कृति केवल एक जीवनी नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकार की व्यापक अवधारणाओं की प्रस्तुति है।

लेखक स्वयं हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं और उनकी लेखनी का विस्तार उपन्यास, नाटक और कहानियों तक फैला है। इस पुस्तक में उन्होंने सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है, जिससे यह सभी वर्गों के पाठकों के लिए सुलभ हो जाती है। भटनागर यह मानते हैं कि हिंदी में अंबेडकर पर गंभीर और गहन अध्ययन की कमी रही है, इसलिए यह पुस्तक उस कमी को दूर करने का प्रयास है। वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि अंबेडकर का जीवन केवल दलित समाज के लिए प्रेरणा नहीं है, बल्कि समूचे भारतीय समाज के उत्थान का मार्गदर्शन है।

भारत रत्न डॉ. भीम राव अम्बेडकर जीवन-मर्म

पुस्तक 30 अध्यायों में विभाजित है और प्रत्येक अध्याय अंबेडकर के जीवन की एक नई परत खोलता है। उनके बचपन से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने की कठिन यात्रा, सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष, गोलमेज़ सम्मेलन में भागीदारी, गांधीजी के साथ मतभेद, भारतीय संविधान का निर्माण, बौद्ध धर्म की ओर झुकाव और अंततः धर्मांतरण—इन सभी पहलुओं को क्रमवार प्रस्तुत किया गया है। शुरुआती अध्यायों में अंबेडकर की बाल्यावस्था और जातिगत भेदभाव के अनुभवों का चित्रण है। यह स्पष्ट होता है कि कैसे अपमान और विषमताओं ने उनके भीतर विद्रोह की चिंगारी पैदा की। उच्च शिक्षा प्राप्त करने का उनका संघर्ष प्रेरणादायक है, जिसमें उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से ज्ञान अर्जित किया और भारत लौटकर समाज सुधार की ठोस पहल की।

लेखक ने अंबेडकर के सामाजिक संघर्षों पर विशेष बल दिया है। अंबेडकर का मानना था कि जब तक समाज से जाति और अस्पृश्यता की दीवारें नहीं टूटेंगी, तब तक सच्ची स्वतंत्रता संभव नहीं है। उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए जीवनभर संघर्ष किया और उन्हें आत्मसम्मान का मार्ग दिखाया। पुस्तक का अध्याय अब न होगा कोई अछूत विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें बताया गया है कि किस तरह अंबेडकर ने समाज को यह संदेश दिया कि छुआछूत का युग समाप्त होना चाहिए और हर व्यक्ति को समान सम्मान मिलना चाहिए। संविधान निर्माण में अंबेडकर की भूमिका पर भी पुस्तक में विस्तार से चर्चा की गई है। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की नींव समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर रखी। भटनागर स्पष्ट करते हैं कि यदि अंबेडकर की दूरदृष्टि न होती तो शायद आज भारत एक न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में स्थापित न हो पाता। अंबेडकर ने स्त्रियों को अधिकार दिलाने के लिए हिंदू कोड बिल का भी मसौदा तैयार किया, यद्यपि उस समय राजनीतिक विरोध के कारण उसे तत्काल लागू नहीं किया जा सका। यह तथ्य इस पुस्तक में विस्तार से दर्ज है कि अंबेडकर केवल जातिगत समानता ही नहीं, बल्कि लैंगिक समानता के भी प्रबल समर्थक थे।

गांधीजी और अंबेडकर के संबंधों पर लेखक ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है। दोनों का लक्ष्य समान था समाज से अन्याय और भेदभाव को समाप्त करना। किंतु उनके मार्ग भिन्न थे। गांधीजी नैतिक और धार्मिक आधार पर छुआछूत के विरुद्ध थे, जबकि अंबेडकर ने राजनीतिक और कानूनी अधिकारों को प्राथमिकता दी। यह मतभेद स्वतंत्रता आंदोलन की राजनीति में एक अहम मोड़ बन गया। पुस्तक में इस संघर्ष को गहराई से प्रस्तुत किया गया है और यह भी दिखाया गया है कि कैसे अंततः दोनों की दृष्टियाँ एक-दूसरे को पूरक सिद्ध हुईं। अंबेडकर का बौद्ध धर्म की ओर रुझान और अंततः धर्मांतरण उनकी जीवन यात्रा का निर्णायक मोड़ था। भटनागर बताते हैं कि अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को इसलिए अपनाया क्योंकि वह समानता, करुणा और मानवतावाद की आधारशिला पर टिका हुआ था। यह केवल उनका व्यक्तिगत निर्णय नहीं था, बल्कि सामाजिक क्रांति का आह्वान था। लाखों अनुयायियों ने उनके साथ धर्म परिवर्तन किया और यह भारत में एक नए युग की शुरुआत थी। पुस्तक में इस प्रसंग का वर्णन अत्यंत संवेदनशीलता और विस्तार से किया गया है।

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इस पुस्तक की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह अंबेडकर को केवल एक राजनीतिक या सामाजिक नेता के रूप में प्रस्तुत नहीं करती, बल्कि उन्हें एक महान मानव के रूप में दर्शाती है। भटनागर लिखते हैं कि अंबेडकर न शासक, बल्कि एक सच्चे इंसान थे—संवेदनशील, संघर्षशील, विद्वान और निडर। उनकी यही मानवीयता उन्हें महान बनाती है। पुस्तक के अंत में लेखक अंबेडकर की प्रासंगिकता पर बल देते हैं। वे मानते हैं कि अंबेडकर केवल अतीत की धरोहर नहीं हैं, बल्कि आज भी उतने ही आवश्यक हैं। जातिगत भेदभाव, सामाजिक असमानता और अन्याय आज भी भारतीय समाज की चुनौतियाँ हैं। ऐसे में अंबेडकर की सोच और उनके आदर्श हमारे लिए दिशा-दर्शक हैं। यह पुस्तक पाठकों को न केवल अंबेडकर के जीवन से परिचित कराती है, बल्कि उन्हें यह भी प्रेरित करती है कि वे समानता और न्याय आधारित समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाएँ।

हालाँकि, पुस्तक में कुछ सीमाएँ भी हैं। अंबेडकर के आर्थिक चिंतन और वैश्विक दृष्टिकोण का उल्लेख अपेक्षाकृत कम है। जो पाठक गहन अकादमिक विश्लेषण की तलाश में हैं, उन्हें अन्य शोधग्रंथों का सहारा लेना पड़ सकता है। फिर भी, यह पुस्तक सामान्य पाठकों और छात्रों के लिए अत्यंत उपयोगी है क्योंकि इसमें तथ्य और भावनाएँ संतुलित रूप से प्रस्तुत की गई हैं। कुल मिलाकर, “भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर : जीवन-मर्म” एक प्रेरणादायक और विचारोत्तेजक कृति है। यह पाठक को अंबेडकर के जीवन संघर्ष, उनकी सोच और उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग से जोड़ती है। भटनागर की लेखनी अंबेडकर के जीवन को केवल इतिहास तक सीमित नहीं रखती, बल्कि वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं से भी जोड़ती है। यह पुस्तक अंबेडकर को जानने-समझने और उनके विचारों को आत्मसात करने के लिए अनिवार्य पाठ्य के रूप में देखी जा सकती है।

पुस्तक : भारत रत्न डॉ. भीम राव अम्बेडकर जीवन-मर्म

लेखक : डॉ.राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स 

उमेश कुमार सिंह
उमेश कुमार सिंह
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