गूंजता रहे प्रवासी पक्षियों का मधुर कलरव

   मेरा बचपन गांव में बीता है और शहर में बसने के बावजूद आज भी अपने गांव से किसी न किसी रूप में रिश्ते की डोर जुड़ी हुई है। हमारा घर गांव की मुख्य बस्ती में तो था ही, किंतु खेती-बाड़ी की सुविधा की दृष्टि से अपने आम के बगीचा समीप खेतों के बीच पुरवा (मेरा) बना लिया था। दूर-दूर तक धान-गेहूं की फसलों से लहराते खेत, मेंड़ों पर पीले फूलों वाली टोपी पहने अरहर की कतार और खेतों की माटी को अपनी जड़ों से जकड़े साधनारत कैथा, महुआ, पीपल, बेर, बरगद, शीशम के हरे-भरे तपस्वी वृक्ष तथा गगन को चूमते लम्बे मजबूत बांस। मकान से जुड़ी हुई एक बड़ी तलैया जिसके निर्मल जल में अठखेलियां करती मछलियां मन मोह लेतीं। गहरे छिछले खेतों में प्राकृतिक रूप से बन गयी बड़ी पोखर। तलैया में कोई भीटा या मेंड़ नहीं होने से बारिश के बाद भी खेतों का पानी रिस-रिस कर भरता रहता और उसमें वर्ष भर पानी भरा रहता। पोखर एक प्रकार का गहराई वाला खेत था जिसमें होली के कुछ बाद तक पानी बना रहता। इससे खेतों और वातावरण में नमी बनी रहती और मौसम सुहावना। तलैया के पानी में हम लोग बर्तन धुलते, स्नान करते और भात रांधने के लिए दौरी (बांस की एक निश्चित आकार की विशेष टोकरी) भर चावल उसी जल में धोएं जाते। तलैया में किसी जानवर या अन्य आदमियों का आना-जाना नहीं था। बरसात में तलैया के जल में करेमू की बेल फैल जाती जिसकी पत्तियों से निर्बल वर्ग की महिलाएं साग बनातीं और हम बच्चे उसकी पतली शाख से टुकड़ा तोड़  पिपहरी वाली सीटी बना पिर्र-पिर्र बजाते दौड़ते। पाठक सोच रहे होंगे कि मैं यह क्यों लिख रहा हूं, लेख का विषय तो प्रवासी पक्षी है। पाठकों का सोचना सही है, पर मेरे लेख का एक सिरा इसी तलैया से मजबूती से जुड़ा है, क्योंकि इसी तलैया पर जाड़ों के मौसम में मैंने दर्जनों प्रवासी पक्षियों को डेरा जमाते, जल पर तैरते और मोहक संगीत बिखरते देखा-सुना है। हालांकि तब मुझे बिलकुल भी मालूम नहीं था कि जाड़ों में आने वाले ये पक्षी दूर देशों से आने वाले प्रवासी पक्षी हैं, यह जानकारी बहुत बाद में हुई जब शिक्षक बन बच्चों के बीच काम करने का अवसर मिला। तब आषाढ़ में धान की बेड़ लग जाती और नवरात्र आते-आते पौधों पर दूधिया दाना बनने लगता। जल्दी पकने वाली धान की किस्में दीपावली तक पकने लगतीं और एक मीठी-भीनी महक वातावरण में घुलने लगती। धान के खेतों के भरे पानी में छोटी-छोटी मछलियां चांदी सा चमकती बहती रहतीं, लिसलिसे घोंघे अलसाये से रेंगते और केकड़े मेड़ की निचली गीली दरारों में मिट्टी के घरौंदे बनाते रहते। तलैया और पोखर में तो कुछ बड़ी मछलियों और केकड़ों का राज रहता। पोखर और तलैया में अपने आप उग आने वाला धान, जिसे हमारे यहां पसही का धान कहा जाता था, इन दिनों पक जाता था। तो बस, यही तो चाहिए था प्रवासी पक्षियों को। पर्याप्त भोजन, सुरक्षित आवास, प्रजनन हेतु अनुकूल जलवायु। दीपावली तक तलैया पर रंग-बिरंगे, धूसर, काले-सफेद छोटे-बड़े पक्षियों का कब्जा हो जाता और होली तक बना रहता। गर्मी शुरू होते गेहूं की फसल भी पक चुकी होती, खेत खाली होने लगते, आसमान कुछ-दहकने लगता, पेड़ों की छाया सिकुड़ने लगती, तलैया के चतुर्दिक उगे घास-खरपतवार सूख रहे होते, तलैया में मछलियों की धमाचौकड़ी भी शांत हो जाती तब इन प्रवासी पक्षियों की वापसी उड़ान शुरू हो जाती और एक सप्ताह के अंदर तलैया बेजान, नीरस और उदास हो जाती जैसे किसी मां के बेटे-बेटियां कमाने-खाने परदेश निकल जाते हैं। तब तलैया शुष्क आंखों से अगले वर्ष उनके आने की बाट जोहती, राह तकती। हमें भी कुछ अच्छा नहीं लगता। केवल बच्चों ही नहीं बल्कि बड़े-बुजुर्गों का रिश्ता भी प्रवासी पक्षियों से अपनेपन का रहता। कोई भी व्यक्ति किसी भी पक्षी को हानि नहीं पहुंचाते थे बल्कि कुत्ते-बिल्ली एवं सियार-लोमड़ी से बचाव करते थे। अगर कोई कुत्ता-सियार किसी पक्षी का शिकार कर लेता था तो कई दिन तक घर-परिवार में हम बच्चों को लापरवाही के लिए डांटा जाता और घर में मातम सा पसरा रहता। यह सह-अस्तित्व का भाव था, जो बिना पाठ पढ़ाये केवल आचरण-व्यवहार द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पनपता रहता था। ये पक्षी तलैया में हम लोगों के नहाते समय भी बिना डरे बिलकुल आसपास तैरते और भोजन चुगते रहते। इन पक्षियों में सबसे बड़ा पक्षी सारस होता था, सफेद या कुछ-कुछ बादलों के रंग सा, लम्बी लाल चोंच और बड़ी-ऊंची टांगें। पूरी ऊंचाई हम बच्चों के बराबर या कुछ अधिक ही। सारस हमेशा जोड़े में होते और जब पंख फैलाकर उड़ान भरते तो लगता कि कोई छोटा वायुयान टेकऑफ कर रहा हो। उसके पंखों की फड़फड़ाहट का ध्वनि कंपन हम महसूस कर सकते थे। उसकी आवाज दूर से ही उसके आने का संकेत कर देती। अन्य पक्षियों में छोटी चोंच वाले झक सफेद बगुले होते लगता कि छोटे-छोटे बच्चे बर्फ की चादर ओढ़े बैठे हों, कुछ लगभग दो-तीन फीट ऊंचाई वाले एक टांग पर खड़े मंझोली चोंच, सफेद पेट एवं पूरे काले पंखों वाले बड़े बगुले मानों कोई बूढ़ा सफेद कुर्ता पहने ऊपर से काले ऊन का कम्बल लपेटे भजन कर रहा हो। हमारे लिए सभी पक्षी बगुले ही थे जिसे हम अपनी बोली में ‘बक्का’ कहते थे, उनके वैज्ञानिक नाम भी होते हैं, यह पता न था। कुछ बगुले बहुत प्यारे सुंदर बादामी, बैंगनी, हल्के लाल, आसमानी रंग के होते, लगता जैसे किसी त्योहार के लिए नये रंग-बिरंगे कपड़े सिलवाकर पहन लिए हों। ये पक्षी साल दर साल आते रहते और खुशियां बांटते। तब पता नहीं था कि ये पक्षी दूसरे देशों से आते हैं जहां कड़ाके की ठंड पड़ती है, धरती पर बर्फ की चादर बिछ जाती है। दाना-पानी के स्रोत बंद हो जाते हैं तब वे गर्म देशों की ओर उड़ पड़ते। भारत उनकी पसंद का देश होता जहां की जलवायु, भोजन एवं सुरक्षा उनके अनुकूल होती। सबसे बड़ी बात पक्षियों के प्रति आम जन में प्यार एवं अपनेपन का भाव पक्षियों को भारत आने को खींचता और वे लगातार एक ही स्थान में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हजारों किमी की दूरी तय कर निश्चित समय पर पहुंच जाते। विशाल जलाशय, झीलें, तालाब, नदियां और गांव-गांव के छोटे-बड़े ताल-तलैया एवं पोखर इनके आश्रम स्थल होते। प्रवासी पक्षी किसानों के मीत बन फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले कीट-पतंगों एवं मकड़ियों को चट कर जाते। फसलों के परागण और बीजों के बिखराव में सहायक बनते।

       कालचक्र कहां थमता है।समय बदला और मन एवं परिस्थितियां भी। मानव एवं प्रवासी पक्षियों के बीच पनपा सह-अस्तित्व का सेतु अब जर्जर हो रहा है। मांस के शौकीन लोग इनका शिकार करते हैं। अवैध रेत खनन से पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ा है।‌ पक्षियों के प्राकृतिक पर्यावास क्षतिग्रस्त हुए हैं। भोजन का संकट भी उपस्थित हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते क्षेत्रीय जलवायु में बदलाव हुआ है। शिकारी जानवरों एवं पक्षियों द्वारा भी प्रवासी पक्षियों के अंडों एवं चूजों को नष्ट किया जा रहा है। प्रवासी पक्षी अपने गंतव्य तक पहुंचने हेतु हमेशा एक ही रास्ते का चयन करते हैं, किंतु अब बड़ी इमारतें और टावर बन जाने से वे दिग्भ्रमित भी हो रहे हैं। हालांकि सरकारों, पक्षी कल्याण हेतु समर्पित संस्थाओं और पक्षी प्रेमियों द्वारा जलाशयों पर सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु आवश्यक उपाय किये जा रहे हैं कि 29 देशों के प्रवासी पक्षियों हेतु अनुकूल शहर-गांव एवं समाज बना पायें।पर जब तक हम आमजन का मन प्रवासी पक्षियों ही नहीं बल्कि सभी पक्षियों के प्रति आत्मीय एवं संवेदनशील नहीं बना पाते तब तक कोई भी उपाय और प्रयत्न पूर्णतः फलीभूत नहीं हो पाएंगे। मई एवं अक्टूबर के द्वितीय शनिवार को मनाया जाने वाला विश्व प्रवासी पक्षी दिवस तभी सार्थक और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होगा जब बाल्यकाल से ही हम परिवार एवं विद्यालयों में बच्चों को पक्षियों के प्रति करुणा का व्यवहार करना सिखाएं और यह तभी सम्भव होगा जब हम बड़े पक्षी प्रेम का आचरण अपने जीवन में करते दिखाई देंगे, तभी प्रवासी पक्षियों का मधुर कलरव गूंजता रहेगा।

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
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