जानलेवा प्रदूषण, सरकारों की शर्मनाक नाकामी

भारत की वायु में जहर घुल चुका है। हाल ही में चिकित्सा जनरल में प्रकाशित एक अध्ययन ने यह निष्कर्ष दिया है कि 2010 की तुलना में 2022 में हवा में जानलेवा साबित होने वाले पीएम 2.5 कणों की मात्रा 38 प्रतिशत बढ़ चुकी है। इस वृद्धि का परिणाम यह हुआ कि भारत में सत्रह लाख से अधिक लोगों की अकाल मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हुई। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि मानवता की उस सांस का हिसाब है जो हमारे शहरों, गांवों और जीवन से हर दिन छीनी जा रही है। प्रदूषण अब केवल स्वास्थ्य का प्रश्न नहीं रह गया है, यह हमारे विकास, अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय के ढांचे पर गहरी चोट कर रहा है। यह भी सहज ही समझा जा सकता है कि 2022 की तुलना में अब वायु प्रदूषण ने और गंभीर रूप लेते हुए जानेलेवा हो गया है, क्योंकि बीते तीन वर्षों में इस समस्या के समाधान के लिए ठोस उपाय किए ही नहीं गए। इसका प्रमाण यह है कि इन दिनों दिल्ली समेत देश के अनेक शहर बुरी तरह प्रदूषण की चपेट में हैं। यह न केवल सरकार की शर्मनाक नाकामी है बल्कि भयावह और बेहद दर्दनाक भी है।

जानलेवा प्रदूषण, सरकारों की शर्मनाक नाकामी
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‘द लेंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ ऐंड क्लाइमेट चेंज 2025‘ रिपोर्ट केवल तथ्य नहीं, एक गंभीर चेतावनी है। लैंसेट की रिपोर्ट ही नहीं, अलग-अलग वर्षों में विभिन्न संस्थाओं के अध्ययनों ने भी कुछ इसी तरह के चिन्ताजनक आंकड़े पेश किए हैं। भारत की विशाल आबादी के कारण भी यह संख्या बड़ी हो सकती है, मगर यह समस्या गंभीर चिंतन और तत्काल निवारक कदम उठाए जाने की मांग करती है। भारत में प्रदूषण केवल औद्योगिक उत्पादन या वाहनों की बढ़ती संख्या से नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली, असंतुलित शहरीकरण और अनियोजित निर्माण से भी बढ़ रहा है। हर शहर में धूल, धुआं और अव्यवस्था की परतें जमी हैं। निर्माण स्थलों से उठने वाली धूल, खेतों में पराली जलाने की आदत, घरेलू ईंधनों का अंधाधुंध उपयोग और बढ़ते वाहनों की भीड़-ये सब मिलकर वातावरण को घुटनभरा एवं जानलेवा बना रहे हैं। हमारे शहर अब सांसों के शत्रु बन गए हैं। बढ़ते प्रदूषण की पीड़ा नीति-निर्धारकों से नहीं, उन लोगों से पूछिए, जो खांसते-खांसते बेदम हो जाते हैं और आखिरकार कई के फेफड़े-हृदय उनका साथ देना बंद कर देते हैं। विडंबना यह है कि इनमें से ज्यादातर उस गलती की सजा भुगतने को अभिशप्त हैं, जो उन्होंने नहीं की।

वायु में मौजूद सूक्ष्म कण अब हर सांस में जहर बनकर प्रवेश कर रहे हैं। इस प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता है। कोयला, पेट्रोल और डीजल जैसे ईंधनों ने न केवल हवा को जहरीला बनाया है बल्कि हमारे अस्तित्व की नींव को भी कमजोर कर दिया है। इन स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन के कारण लाखों लोग असमय काल के ग्रास बन रहे हैं, लेकिन ऊर्जा नीति में सुधार की गति अत्यंत धीमी है। सरकारें बार-बार स्वच्छ ऊर्जा की बात करती हैं, योजनाएं बनाती हैं, लक्ष्य घोषित करती हैं, पर उनका क्रियान्वयन न के बराबर होता है। सबसे गंभीर तथ्य यह है कि इस प्रदूषण के शिकार सबसे अधिक वे लोग हैं जो इसके निर्माता नहीं हैं। गरीब मजदूर, झुग्गियों में रहने वाले, बच्चे और बुजुर्ग-ये सभी उस वायु के दंश झेल रहे हैं जिसका लाभ अमीरों ने उठाया है।

एक ताजा अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार, अमीर तबके का प्रदूषण में योगदान अत्यधिक है। पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की ‘जलवायु असमानता रिपोर्ट 2025’ बताती है कि विश्व के सबसे धनी लोग अपनी संपत्ति और निवेशों के माध्यम से जलवायु संकट को बढ़ा रहे हैं। वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के 41 प्रतिशत के लिए निजी पूंजी जिम्मेदार है। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रदूषण का असली निर्माता संपन्न वर्ग है, जबकि उसकी कीमत गरीब वर्ग अपनी सांसों और जीवन से चुका रहा है। यह असमानता केवल आय की नहीं, बल्कि पर्यावरणीय न्याय की भी है। अमीरों के पास बड़े वाहन हैं, विशाल भवन हैं, आलीशान जीवनशैली है, और वे जीवाश्म ईंधनों पर आधारित उद्योगों में निवेश करते हैं। दूसरी ओर, गरीबों के पास न तो स्वच्छ ऊर्जा है, न शुद्ध हवा। जो अमीर लोग निजी विमानों और विलासितापूर्ण संसाधनों का उपयोग करते हैं, वे एक सामान्य नागरिक की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक प्रदूषण फैलाते हैं। यह असंतुलन हमारे समाज को विषमता और अन्याय की ओर धकेल रहा है।

सरकारों की नीतिगत विफलता इस त्रासदी का दूसरा बड़ा कारण है। प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए योजनाएं तो बनती हैं, पर उनमें न तो स्थायित्व होता है, न गंभीरता। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, निगरानी तंत्र कमजोर है, और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर कार्रवाई नगण्य है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच जिम्मेदारी का बंटवारा अस्पष्ट है। हर साल सर्दियों में दिल्ली और उत्तर भारत के अन्य शहरों की हवा जहरीली हो जाती है, तब कुछ दिन के लिए ‘आपात कदम’ उठाए जाते हैं, पर जैसे ही धुंध छंटती है, सब कुछ फिर पहले जैसा हो जाता है। नीतियों में पारदर्शिता का अभाव और उद्योगपतियों का दबाव भी एक गहरी समस्या है। कोयला आधारित उद्योगों, पेट्रोलियम कंपनियों और निर्माण व्यवसाय से जुड़ी लॉबी सरकारों पर ऐसा प्रभाव बनाए रखती हैं कि कठोर कदम उठाना राजनीतिक दृष्टि से असुविधाजनक बन जाता है। स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण को हमेशा ‘महंगा विकल्प’ बताकर टाला जाता है, जबकि वास्तव में यह निवेश मानव जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा में है।

वायु प्रदूषण का संकट केवल वातावरण में धूल और धुएं का मामला नहीं है, यह आर्थिक अन्याय, राजनीतिक असंवेदनशीलता और सामाजिक उदासीनता का प्रतीक बन चुका है। जो सरकारें जनजीवन सुधारने का वादा करती हैं, वे हवा की गुणवत्ता सुधारने में विफल रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि वायु प्रदूषण से भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दस प्रतिशत तक का नुकसान हो रहा है। यह नुकसान केवल पैसों में नहीं, बल्कि मानव संसाधन की हानि, स्वास्थ्य पर बोझ और जीवन की गुणवत्ता में गिरावट के रूप में भी दिखाई देता है। अब समय है कि इस संकट को केवल पर्यावरणीय मुद्दा न मानकर एक सामाजिक और नैतिक चुनौती के रूप में देखा जाए। हवा का अधिकार हर नागरिक का मौलिक अधिकार है, लेकिन यह अधिकार धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। अमीरों को अपनी जीवनशैली पर संयम लाना होगा, अपने निवेशों को स्वच्छ ऊर्जा की ओर मोड़ना होगा, और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से दूरी बनानी होगी। सरकारों को सख्त नीति बनानी चाहिए, जो न केवल प्रदूषण फैलाने वालों को दंडित करे बल्कि स्वच्छ प्रौद्योगिकी अपनाने वालों को प्रोत्साहन दे।

नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। जब तक जनता स्वयं इस समस्या को अपने जीवन का हिस्सा मानकर आवाज नहीं उठाएगी, तब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति जागृत नहीं होगी। हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि प्रदूषण से बचाव केवल मास्क लगाने से नहीं होगा, बल्कि सोच और जीवनशैली बदलने से होगा। वायु प्रदूषण एक सामूहिक अपराध बन गया है जिसमें अपराधी कम और पीड़ित अधिक हैं। अब यह वक्त है जब विकास की परिभाषा में स्वच्छ हवा और सुरक्षित वातावरण को सबसे ऊपर रखा जाए। सरकारें यदि सचमुच राष्ट्र की समृद्धि चाहती हैं, नया भारत-विकसित भारत बनाना चाहती है तो उन्हें सांसों की सुरक्षा को प्राथमिकता देनी होगी। अमीर तबके को भी यह समझना होगा कि जिस हवा को वे अपने निवेशों से दूषित कर रहे हैं, वह अंततः उन्हीं की अगली पीढ़ियों की सांसों को रोक देगी। आज आवश्यकता है एक ऐसी राष्ट्रीय चेतना की, जो कहे कि हवा किसी वर्ग की नहीं, समस्त जीवन की संपत्ति है। जब तक यह चेतना जागृत नहीं होती, तब तक हर आंकड़ा, हर रिपोर्ट और हर योजना केवल दस्तावेज बनकर रह जाएगी, और भारत की हवाएं यूं ही जहर बनती रहेंगी। वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण को लेकर किसी किस्म की उदासीनता देश और मानवता के साथ अन्याय होगा।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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