दिवाली पश्चात आती है देवों वाली देव दिवाली दिवाली

-5 नवंबर देव दिवाली के अवसर पर-

देव दिवाली कार्तिक महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला एक प्रमुख हिंदू त्यौहार है, जो दिवाली के लगभग पंद्रह दिन बाद आता है। इसे देव दीपावली भी कहा जाता है और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। देव दिवाली देवताओं के पृथ्वी पर आने और पवित्र नदियों में स्नान करने के पर्व के रूप में मान्यता प्राप्त है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन सभी देवता गंगा स्नान के लिए पृथ्वी पर उतरते हैं और दीयों से नदियों और घाटों को आलोकित करते हैं।

दिवाली पश्चात आती है देवों वाली देव दिवाली दिवाली

साथ ही, यह दिन भगवान शिव द्वारा त्रिपुरासुर नामक दानव के वध का भी स्मरण है, इसीलिए इसे देवताओं की विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गंगा घाटों और मंदिरों पर हजारों दीयों से सजावट की जाती है, जो एक मनोहर और दिव्य दृश्य प्रस्तुत करता है। इस दिन कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा घाटों पर विधि-विधान से पूजन किया जाता है।महादेव, भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा आराधना की जाती है। इस अवसर पर दीपदान की विशेष व्यवस्था की जाती है, दशाश्वमेध प्रमुख घाटों पर समारोह आयोजित होते हैं, जहां लाख। जलाए जाते हैं।इस दिन धार्मिक मंत्रों का जाप और आरती का आयोजन होता है जो दिन का मुख्य आकर्षण होता है। वाराणसी में यह पर्व सांस्कृतिक समृद्धि और धार्मिक श्रद्धा का अद्भुत मेल होता है।

यह दीपोत्सव न केवल देवताओं को समर्पित है बल्कि मानव जीवन में प्रकाश, समृद्धि और पवित्रता के संदेश का भी प्रतीक है। देव दिवाली को अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में देखा जाता है।इस प्रकार, देव दिवाली हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र और उल्लासपूर्ण त्योहार है, जो दिवाली के बाद आकर उसके प्रकाश और उल्लास को और भी बढ़ा देता है।

दिवाली का मुख्य संदर्भ भगवान राम की विजय और उनके अयोध्या आगमन का उत्सव है, जो प्रकाश और समृद्धि का प्रतीक है।देव दिवाली भगवान शिव की त्रिपुरासुर पर विजय और देवताओं के पृथ्वी पर आने का त्योहार है, जो विशेषतः गंगा घाटों और वाराणसी में मनाया जाता है। दोनों त्योहार अपने-अपने धार्मिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ, हिंदू धर्म में प्रकाश और धर्म की विजय का महत्त्व रखते हैं।काशी में इस पर्व को दीपदान करके मनाया जाता है।देव दिवाली का इतिहास और पौराणिक कथा हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण धार्मिक प्रसंगों से जुड़ी है।

इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है। देव दिवाली की मुख्य पौराणिक कथा भगवान शिव के त्रिपुरासुर राक्षस के वध से जुड़ी है। ‌‌पौराणिक कथा के अनुसार, त्रिपुरासुर नामक राक्षस का तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) पर अत्याचार फैल था। त्रिपुरासुर तारकासुर के तीन पुत्र थेः तारकाक्ष, कमलाक्ष, और विद्युन्माली, जिन्हे वरदान मिला था कि वे तीनों पुरियों को एक साथ तब ही नष्ट किया जा सकता है जब वे तीनों एक रेखा में आ जाएं। इन राक्षसों ने देवताओं और मनुष्यों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, जिससे देवता भगवान शिव से सहायता मांगने लगे। भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। जब त्रिपुरासुर की तीन पुरियां अभिजित नक्षत्र के दौरान एक साथ आईं, तब भगवान शिव ने एक ही बाण से तीनों पुरियों का वध करके त्रिपुरासुर का अंत किया। इस विजय के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा गया।

भगवान शिव द्वारा त्रिपुरासुर के वध की खुशी में सभी देवता कार्तिक पूर्णिमा को काशी (वाराणसी) में एकत्रित हुए और गंगा घाटों पर दीप जलाकर देव दिवाली मनाई। इसे देवताओं की दिवाली कहा गया और तभी से यह त्योहार वाराणसी सहित पूरे भारत में बड़े भव्य रूप से मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसके दौरान देवता पृथ्वी पर अपनी उपस्थिति देते हैं और गंगा स्नान करते हैं।ऐसे, देव दिवाली भगवान शिव की त्रिपुरासुर पर विजय, देवताओं की पृथ्वी आगमन और दीपदान से जुड़ा एक पवित्र पर्व है, जो अंधकार पर प्रकाश और बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।इस प्रकार देव दिवाली का इतिहास और पौराणिक कथा भगवान शिव की वीरता और देवताओं के सम्मान का एक महान उत्सव है, जिसमें धार्मिक श्रद्धा और भक्ति की गहराई झलकती है।

दीपों की रौशनी से जग दमके,
देवताओं का आशीर्वाद रहे अपार,
मन में प्रेम और श्रद्धा का दीप जलाएं,
शुभमय हो ये देव दिवाली का त्योहार।।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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