दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन, उम्मीद, सकारात्मकता और हौसले की ताकत ने मिलकर आखिर प्रकृति के साथ लड़ी 17 दिन की जंग में जिन्दगी को विजयी बना दिया। सिलक्यारा सुरंग में आठ राज्यों के 41 मजदूरों को सकुशल जिन्दा निकाल लेने के 400 घंटों तक चले संघर्ष में जीत इंसान के चट्टानी हौसले के नाम दर्ज हुई। उत्तरकाशी टनल में फंसे इन सभी मजदूरों को जब मंगलवार रात सुरक्षित निकाला गया, तो देश ने राहत की सांस ली और दीपावली मनाई। यह बचाव अभियान प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय बना है। जिसमें विज्ञान में विश्वास एवं आस्था ने मनोबल दिया। दीपावली के दिन से टनल में फंसे मजदूरों का सुरक्षित बाहर आना किसी चमत्कार से कम नहीं माना जा सकता। बचाव अभियान में हर मोड़ पर आती बाधाओं से बार-बार निराशा एवं नाउम्मीदी के बादल छाए जरूर लेकिन बचाव दल के अथक प्रयास आखिर में रंग ले ही आए। बजाव कार्य में जुटे जाम्बाज राहत कर्मियों का भरोसा, केन्द्र एवं राज्य सरकार की पूरी ताकत एवं पूरे देश की प्रार्थनाओं का ही असर था जो डर, निराशा और दुश्चिंताओं को दूर करने का हौसला बराबर देता रहा।
17 दिन तक संकटकालीन स्थितियों में मजदूरों को जीवित रखने की चुनौती वाकई बहुत बड़ी थी, जिस पर पूरी दुनिया की नजरें लगी थीं। मजदूरों तक ऑक्सीजन और भोजन पानी पहुंचाना भी आसान नहीं था। तरह-तरह की बाधाओं एवं तकलीफों के बीच जिन्दगी बचाने की मुहिम निश्चित ही एक रोशनी बनी। इसमें सुरंग में फंसे मजबूरों ने जहां हर तरह से जिजीविषा एवं बहादूरी का परिचय दिया, वहीं बचाव कार्य में जुटे वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों, तकनीकी जानकारों एवं कर्मियों ने दिनरात एक करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया। यह बचाव अभियान एवं इसकी सफलता ऐतिहासिक एवं अविस्मरणीय उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुआ है। दुविधा एवं मौत की सुरंग में कैद हुए मजदूरों को संकट से आजादी मिली, लेकिन सिलक्यारा की इस घटना ने अनेक सवाल भी खड़े किए हैं। सवाल यह है कि एक प्लान के विफल होने पर दूसरा और आगे के विफल होने पर ही तीसरा, चौथा, पांचवां प्लान क्यों बना?
क्या पांच प्लान पहले ही तैयार नहीं हो सकते थे? बीते दो दशकों में राष्ट्रीय राजमार्गों पर सड़क-क्रांति ने विकास की नई इबारत लिखी है, चारधाम सड़क परियोजना, पहाड़ी क्षेत्रों एवं दुर्गम्य स्थलों में भी यातायात सुगम करने के लिए पहाड़ खोदकर टनल बनाए जा रहे हैं, जिनमें दुर्घटनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। प्रश्न है कि संभावित दुर्घटनाओं से बचने के आवश्यक उपकरण क्यों नहीं जुटाये गये? मलबा हटाने के लिए अमरीका से क्यों मशीन मंगवानी पड़ी, भारत में ऐसी मशीनों की उपलब्धता क्यों नहीं है? ऐसी विपत्तियों एवं संकटों से उबरने की हमारी तैयारी आत्म-निर्भर एवं स्वावलम्बी क्यों नहीं बनायी जाती? क्यों नहीं अपने देश में जगह-जगह बढ़ती सुरंग परियोजना को देखते हुए एक ऐसे राष्ट्रीय संस्थान खड़ा किया जाता जो बिना भ्रष्टाचार एवं कौताही में लिप्त हुए निर्माणाधीन परियोजनाओं का हर वर्ष तकनीकी ऑडिट करे, जैसा कि सरकारी संस्थानों में वित्तीय ऑडिट होता है। तब हम ऐसे हादसों को रोक पाएंगे।
हिमालय जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसी बड़ी सड़क परियोजनाओं एवं अन्य निर्माण कार्यों की इजाजत देने से पहले उस पर व्यापक मंथन-अनुसंधान-जांच एवं शोध की अपेक्षा है। किस तरह के निर्माण कार्यों की इजाजत दी जाए और किस तरह के काम को नहीं, यह भी समझना एवं एक रोडमैप बनाना होगा। पर्यावरणविद और भूविज्ञानी ऐसे निर्माण कार्यों को पर्यावरण के लिये गंभीर खतरा मानते रहे हैं, ऐसे लोग लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि हिमालय एक कच्चा पहाड़ है, वहां बड़ी परियोजनाओं को अनुमति देने से पहले सब तरह की जांच कर लेनी चाहिए। संभावित खतरों पर संवेदनशीलता से चिन्तन करना चाहिए। उत्तरकाशी के सिलक्यारा में बन रही सुरंग में भी यह बात सामने आई है कि इस जगह के आसपास दो स्थानीय फॉल्टों की उत्तर से दक्षिण तक कटान है। क्या इस सुरंग को बनाने से पहले इसका अध्ययन नहीं किया गया था? बचाव कार्य के लिए यहां आए विदेशी सुरंग विशेषज्ञों ने शेयर जोन की बात कही। शेयर जोन उसे कहते हैं, जिसके आसपास से दो नदियां एक-दूसरे को क्रॉस करती हैं। भूकंप जोन होने से भी ऐसे इलाकों में भू-धंसान की समस्या आती है।
खुदाई करने वाले कई मजदूरों ने भी इस बात को रेखांकित किया एवं चेताया कि सुरंग से बार-बार धसकते मलबे की समस्या है, मगर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। प्रश्न है कि कौन लोग इस उपेक्षा के लिये जिम्मेदार है। इसलिए यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर संवेदनशीलता की जरूरत है। खान या सुरंग में मजदूरों के फंसने की घटनाएं देश ही नहीं दुनियाभर में होती रहती हैं। कभी पहाड़ के धंसने से और कभी खदानों में पानी भरने से भीषण हादसे होते रहते हैं। जहां विकास की गंगा बहती है, वहां विनाश की संभावना से नकारा नहीं जा सकता। लेकिन हमें संभावित खतरों पर अधिक गंभीर होने की अपेक्षा है। मैदानी इलाकों में ही नहीं, उच्च हिमालयी क्षेत्र में भी सड़क, रेल और जलविद्युत परियोजनाओं तक के लिए सुरंगों का जाल बिछाया जा रहा है, क्योंकि सुरंगों को बहुत अच्छा विकल्प माना जाता है।
क्या सुरंगें वाकई बेहतर विकल्प हैं? कैसे हो रहा है उनका निर्माण? इन प्रश्नों पर व्यापक मंथन की अपेक्षा है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसी परियोजनाएं हर जगह ऐसी दुर्घटनाओं की शिकार हुई है। कोंकण रेलवे और दिल्ली मेट्रो की कई जटिल सुरंगों पर सफलतापूर्वक काम हुआ है। उत्तराखंड मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के डायरेक्टर एंड प्लानिंग बृजेश मिश्रा के अनुसार, सुरंग परियोजना में सबसे अहम जियो टेक्निकल इंवेस्टिगिशेन होता है, इसी से तय होता है कि सुरंग खुदाई के बाद कितनी देर तक टिक पाएगी। निर्माण के दौरान कोई बड़ा अवरोध या खतरा तो नहीं होगा। साथ ही, इसे किस तरह के ट्रीटमेंट की जरूरत है, पर दुर्गम पहाड़ में कई बार जांच उपकरण अधिक ऊंचाई तक ले जाना मुश्किल हो जाता है और जियो टेक्निकल इंवेस्टिगिशेन पर समग्रता से कार्य नहीं होता। कई बार राजनीतिक कारणों से जल्द काम निपटाने के दबाव में सुरंग के मुहाने पर किए गए अध्ययन के आधार पर ही काम शुरू कर दिया जाता है, जो बाद में बहुत भारी पड़ता है। ऐसे मामलों में बहुत कारगर कथन है कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। उत्तराखंड सुरंग हादसे में शायद ऐसा ही हुआ।