22 अप्रैल अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी दिवस पर विशेष
आज पृथ्वी पर पर्यावरण प्रदूषण इतनी तीव्र गति से हो रहा है, कि वर्तमान में इसका कोई भी कोना चाहे वह ध्रुव प्रदेश हो या समुद्री तल हो या अंतरिक्ष क्षेत्र सहित सभी जगहों पर मानव ने अपरिमित गंदगी फैला कर पृथ्वी की युगों से अनवरत चली आ रही व्यवस्था में खलल उत्पन्न कर दिया है। अब तो यह स्थिति है कि हमारी पूरी पृथ्वी का ही भविष्य दांव पर लग गया है। पृथ्वी पर इतना ज्यादा मनुष्य ने लालच और शक्ति की चाहत में हर प्रकार से लूट मचाई हुई है। जिसका परिणाम है कि आज पृथ्वी बंजर हो रही है। समुद्र गंदे हो गए हैं। जल थल नभ सभी प्रदूषित हो गए हैं। विश्व का पर्यावरण पूरी तरह से खराब हो चुका है।
मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेता है। उसके मिट्टी में खेल कूद कर बड़ा होता है। पृथ्वी उसके आहार की व्यवस्था अपने वनस्पतियों से करती है। एवं अमृततुल्य शीतल जल अपना हृदय निचोड़ कर देती है। प्रतिपल जीवन के लिए अति आवश्यक प्राणवायु का संजीवनी भी प्रदान करती चली आ रही है। अपने पूरे जीवन भर मनुष्य पृथ्वी से केवल और केवल लेता ही रहता है ।वापस उसे कुछ भी नहीं देता ।आखिर में अंततः जीवन के अंत में उसी की गोद में ही मृत्यु हो जाने पर चिरनिंद्रा का आश्रय भी पाता है। ऐसी जगत माता पृथ्वी के प्रति कर्तव्यों और दायित्वों को भूलकर मनुष्य छुद्र स्वार्थों के वशीभूत होकर वह अपनी मां के जीवन को ही खत्म करने पर तुल गया है। यह जानते हुए भी कि मां ही नहीं रहेगी तो उस पर हर कार्यों के लिए आश्रित पुत्र यानी मानव का तो नामोनिशान ही नहीं रह जाएगा। उसके दोषों का दुष्परिणाम अन्य जीव जंतु व जानवरों को भी निर्दोष होते हुए भी भुगतना पड़ेगा। यह सब जानते हुए भी मनुष्य पृथ्वी को विनाश के कगार पर धकेले चला जा रहा है।
पृथ्वी पर आज की तारीख में कोई खतरा सबसे ज्यादा है तो वह है स्वयं मनुष्य, इसके बाद पर्यावरण प्रदूषण तथा कमजोर होती जा रही जीवनदायिनी ओजोन की परतों से है। जो कि कई जगहों पर अब “ओजोन होल” का रूप ले चुका है। ओजोन की परत के घटने के कुप्रभाव का अंदाज सिर्फ इससे ही लगाया जा सकता है कि पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सीधे पहुंचकर जीव जंतुओं के लिए अत्यधिक हानिकारक साबित होगी। जीव जंतुओं में कई प्रकार की बीमारियां फैल जाएंगी वहीं वनस्पति जगत में भी विकृतियां पैदा हो जाएंगी। कई शैवाल और प्लैक्टन आदि नष्ट हो जाएंगे। वही अंधाधुंध वनस्पतियों का नाश करना भी मनुष्य नहीं छोड़ रहा है। आज जंगल के जंगल खत्म होते चले जा रहे हैं। पेड़ पौधे एवं वनस्पतियों का संसार दिन ब दिन छोटा होता चला जा रहा है । यह भी पृथ्वी और पर्यावरण के लिए अत्यधिक नुकसानदायक हो रहा है। पृथ्वी पर ऑक्सीजन की प्रतिशत मात्रा बीस प्रतिशत से भी कम होने लगी है ।और अनुपयोगी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी पर बढ़ोतरी होती जा रही है। फलत: पृथ्वी का तापमान आसामान्य रूप से काफी गर्म हो रहा है। पृथ्वी के असामान्य रूप से गर्म होने की स्थिति को हम ग्रीनहाउस इफेक्ट अथवा ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी के ध्रुवों का बर्फ पिघल कर समुद्र स्तर को बढ़ा रहा है । और कई तटीय इलाकों के प्रदेशों को लीलता चला जा रहा है। भू वैज्ञानिकों ने तो यहां तक कह दिया है कि आगामी पचास वर्षों के अंदर ही भारत के कई तटीय इलाके समुद्र में डूब जाएंगे। साथ ही दुनिया के कई देश उदाहरणार्थ मालदीव्स, श्री लंका , कैरेबियन देश सहित कई छोटे छोटे द्वीप भी समुद्र के अंदर समा जाएंगे। अनेक छोटे छोटे द्वीपों और समुद्र किनारे के देशों को ग्लोबल वार्मिंग जलमग्न कर देगा।
इन्हें अगर बचाना है तो हमें मुख्य रूप से वाहनों और कार्बन डाइऑक्साइड, मोनो ऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले इलेक्ट्रॉनिक साधनों जैसे रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर, फोटोकॉपी मशीन, एक्सरे मशीनों के प्रयोग पर प्रभावी अंकुश लगाना होगा। क्योंकि पृथ्वी इन वजहों से भी प्रदूषित हो रही है। इनके द्वारा हानिकारक गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी की ओजोन परतें कमजोर होती चली जा रही हैं। पृथ्वी की सुरक्षा के लिए इन ओजोन परतों को बचाए रखना अत्यंत आवश्यक है।
सड़कों पर धुआं तथा धूल उड़ाती शोर करती गाड़ियां, प्रतिदिन स्थापित होती फैक्ट्रियां और तेजी से बढ़ती जनसंख्या, उनके रहने के लिए पृथ्वी के सीने पर सैकड़ों गुना रफ्तार से फैलती कंक्रीट के जंगल ने पृथ्वी को बुरी तरह से घायल कर दिया है !आज पृथ्वी इन के बोझ से कराह रही है। सिसक रही है ।और ऐसी विषम परिस्थितियों के लिए सबसे ज्यादा दोषी स्वयं मनुष्य है।
मनुष्य ने विकास के नाम पर पृथ्वी के पुराने स्वरूप को ही बदल डाला है। जीवन उपयोगी वनों को नष्ट कर डाला है। एवं समुद्र में करोड़ों टन कचरा पहुंचाकर परमाणु विस्फोट और नदियों के अमृत रूपी पेयजल के निरंतर प्रदूषित करने की क्रिया ने पृथ्वी को एक बारूदी गोले में तब्दील कर दिया है। तभी तो वैज्ञानिकों का यह अनुमान है कि सन् 2040 से प्रारंभ होकर सन् 2080 तक पृथ्वी पर महाविनाश होना अवश्यंभावी नजर आता है।
पृथ्वी पर विकास के लिए अंधाधुन निर्माण करने के कारण जो हवा ,पानी, ठंड, गर्मी ,खनिज तत्वों के निर्माण हेतु पृथ्वी के गर्भ में जानी चाहिए, वह अब स्थाई निर्माण कार्यो के कारण पृथ्वी से बाहर ही रह जा रही है ।जिससे हो यह रहा है कि पृथ्वी का उपजाऊ तत्व नष्ट होते चला जा रहा है |वही पानी, हवा ,ठंडी ,गर्मी निर्धारित चक्र में पृथ्वी के अंदर न जाने से भी असामान्यता पैदा हो रही है।
जीवन के लिए आवश्यक वन जिनसे सांस लेने के लिए हवा, खाने के लिए फल फूल ,अन्न, सब्जी ,पहनने के लिए परिधान, मकान बनाने के लिए लकड़ी, खाना पकाने के लिए इंधन, औषधियां आदि अनेक उपहार प्राप्त होते हैं। उनका भी धीरे-धीरे विनाश कर दिया गया है। पहाड़ों के पीठ नंगे कर दिए गए हैं। पृथ्वी का गर्भ काटकर कोयला ,खनिज आदि निकाल लिए गए हैं। फल स्वरुप बड़े पैमाने पर बनजर भूमि, कटाव ,बाढ़ ,सूखा ,भूकंप, प्राकृतिक आपदा का सामना आए दिन करना पड़ रहा है।
हमें अब तो सचेत होना होगा अब नहीं जागे तो कब जागेंगे। अब तो अनिवार्य रूप से मनुष्य को जागना होगा ।सचेत होना होगा। सतर्क होना होगा। और अपने अनैतिक लोभ और ताकत के प्रदर्शन में हर हाल में अंकुश लगाना होगा। मां पृथ्वी को भी सहनशीलता और स्नेह बहुत प्रिय है। जब तक परस्पर स्नेह सौजन्य ता का वातावरण बना रहता है। तब तक प्राणी ही नहीं प्रकृति भी स्नेह स्वभाव दिखाती है, और सहयोग करती है! लेकिन स्थिति बदलते ही प्रतिशोध के लिए कमर कस लेती है।
हमारी पृथ्वी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है! वह भी कुपित हो उठी है! वह रणचंडी का रूप धारण कर ले! इसके पहले ही मनुष्य को उसे शांत करने की प्रक्रिया अपनानी ही होगी। यह इस बात पर निर्भर है, कि हम उसके साथ किस प्रकार का बर्ताव करते हैं। हमारी संवेदना उसे दुष्ट करेगी तभी तो वह हमें समृद्ध और सुविधा संपन्न बनाएगी। इस आदान-प्रदान को निरंतर चलाए रखने की पहली और अंतिम जिम्मेदारी केवल और केवल मनुष्य पर ही है।
विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी ।
विश्वंभर विभ्रति भूमि रग्निमिन्द्र
ऋषभा द्रविणेनो दधातु ।।
(अर्थात संसार का पालन करने वाली पृथ्वी धनधान्य से परिपूर्ण है। आश्रित जगत की क्षुधा मिटाने वाली पृथ्वी से यह कामना है कि वह हमें समृद्धि से ओतप्रोत करें।)