शिक्षा के पथ पर: जटिल उलझनों का सहज समाधान प्रस्तुत करती पुस्तक

शिक्षण एक ऐसा सफर है जिसमें हर स्तर पर नई-नई तरह की समस्याएं आती हैं। बहुत सारी समस्याओं को हम समझते हैं, सुलझाते भी हैं लेकिन अन्य बहुत सारी समस्याएं अपने मूल रूप में ही दफन हो जाती हैं। कारण बस यही होता है कि ​हम उसका कोई तात्कालिक समाधान सोच नहीं पाते। वरिष्ठ साहित्यकार और बाल मनोभावों के कुशल पारखी शिक्षक प्रमोद दीक्षित मलय की पुस्तक ‘शिक्षा के पथ पर’ पढ़कर आप ऐसी तमाम समस्याओं से रूबरू होंगे जिससे आप गुजर चुके हैं। इस पुस्तक में इन समस्याओं के अनुभव आधारित ऐसे सहज समाधान प्रस्तुत किए गए है जिसे पढ़कर आपको लगेगा कि “अरे! इसका समाधान तो मैं भी कर सकता था।” 

शिक्षण प्रक्रिया में अनुभव पर आधारित ज्ञान सैद्धांतिक ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी होता है। यह पुस्तक शिक्षा के विविध पहलुओं पर लेखक के अनुभवों का समेकित रूप है जो पाठक को न केवल शिक्षण विधि से जोड़ती है बल्कि उन तमाम चुनौतियों और संभावनाओं से भी परिचित कराती है जो शिक्षक, छात्र और समाज के त्रिकोणीय संबंध के महत्व को रेखांकित करता है। पुस्तक में 21 लेखों के माध्यम से एक तरफ विद्यालयों में किये जा रहे प्रयासों के क्रियान्वयन का अनुभव साझा किया गया है। शिक्षण में गीतों के प्रयोग के सैकड़ो पहलुओं की चर्चा करते हुए कक्षाओं के नीरस, बोझिल वातावरण की समस्या के समाधान के रूप में गीतों द्वारा सरस एवं भयमुक्त वातावरण तैयार करने की पहल की गई है। एक लेख में दीवार पत्रिका के माध्यम से लोकगीतों और पारंपरिक लोक संस्कृतियों के प्रति समाज के दृष्टिकोण से नकारात्मकता दूर करने एवं चुप्पी की संस्कृति को तोड़ने के अनुभव साझा को साझा किया गया है।

एक अन्य लेख में दीवार पत्रिका क्या है, इसे कैसे बनाएं, संपादक मंडल और पत्रिका सामग्री का चयन कैसे करें, दीवार पत्रिका निर्माण में आने वाले चुनौतियां एवं सावधानियां, दीवार पत्रिका के प्रगति के संकेतक और शैक्षिक संवाद मंच के शिक्षकों के साथ विद्यालयों में नियमित दीवार पत्रिका प्रकाशित किए जाने के अनुभव को साझा किया गया है। यह लेख दीवार पत्रिका पर प्रशिक्षण मार्गदर्शिका के रूप में पुस्तक की गरिमा बढ़ा रहा है। रोचक गतिविधियों द्वारा शिक्षण की वकालत करते हुए लेखक ने एक विद्यालय में विलोम और पर्यायवाची शब्द की एक सुंदर गतिविधि साझा की है जिसके माध्यम से कक्षाओं में बच्चों की झिझक को बड़ी आसानी से समाप्त किया गया। कक्षाओं में अनुशासन के नाम पर बच्चों के अंदर भय पैदा कर उनकी मौलिकता की धार कुंद करने का लेखक ने पुरजोर विरोध किया है।

भाषा शिक्षण में बच्चों को कक्षा में लिखने और बोलने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराना आवश्यक है। होमवर्क के वर्तमान स्वरूप को सिरे से नकारते हुए इसे एनसीएफ-2005 की ‘बच्चों की कल्पना करने और मौलिक चिंतन-मनन के अवसर दिए जाने’ की अवधारणा के विपरीत बताया गया है। शैक्षिक भ्रमण को  बच्चों में परिवेश को समझने और ज्ञान निर्माण करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण टूल मानते हुए लेखक ने अपने विद्यार्थी जीवन में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले शैक्षिक भ्रमण और उससे बच्चों के व्यक्तित्व पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को विस्तारपूर्वक समझाया है। ‘बच्चे’, ‘होमवर्क’ और ‘उसे कुछ नहीं आता’ और ‘सुनो शिक्षकों’ कविता के माध्यम से शिक्षकों को अपने अंदर झांकने की सलाह दी है। ‘सुबह की घंटी’ की पीड़ा को ‘शाम की घंटी’ की खुशी में बदलने के लिए विद्यालयों को आनंदघर बनाने की परिकल्पना की गई है। 

वर्तमान में बेहतरीन अकादमिक उपलब्धियों वाले शिक्षक-शिक्षिकाओं के होने के बावजूद सरकारी विद्यालयों के समाज की श्रद्धा एवं विश्वास के केंद्र नहीं बन पाने के कारणों में संसाधनों के अभाव को भी महत्वपूर्ण माना गया है तो साथ ही उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग न हो पाने पर भी गहरी चिंता व्यक्त की गई है। शिक्षकों और बच्चों में पठन-पाठन की संस्कृति के विकास को महत्वपूर्ण एवं आवश्यक मानते हुए शिक्षकों से नियमित अध्ययन की अपेक्षा की गई है और बच्चों को भी पुस्तकालय के माध्यम से इस और अग्रसर करने का सुझाव दिया गया है। बच्चों के पढ़ने का आशय सिर्फ वाचन नहीं होता बल्कि पढ़ने के साथ समझना और कुछ नया सोचना भी जरूरी है।

इससे बच्चों को पाठ्य पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकाल कर अन्य पुस्तकों को पढ़ने के अवसर प्रदान करने पर जोर दिया गया है। इसके लिए शिक्षकों से विद्यालयों में पुस्तकालय तक बच्चों की पहुंच सुनिश्चित करने और अभिभावकों से जन्मदिन आदि अवसरों पर पुस्तक गिफ्ट के रूप में देने की अपील की गई है। प्राथमिक कक्षाओं में विज्ञान जैसे रोचक विषय को सैद्धांतिक नीरस तरीके से पढ़ाए जाने का खंडन करते हुए इसे बच्चों के तात्कालिक परिस्थितियों से जोड़ते हुए पढ़ाए जाने का समर्थन लेखक द्वारा किया गया है और साथ ही इस संदर्भ में अपने अनुभव भी साझा किये गये हैं जो अनुकरणीय हैं।

विद्यालय बच्चों के लिए है और बच्चे समाज से आते हैं। ऐसे में समाज के सहयोग के बिना एक अच्छे विद्यालय की कल्पना करना बेमानी है। विद्यालय और समाज के संबंधों को बेहतर करने के लिए ‘और ताला खुल गया’ लेख विचारणीय, रोचक और उपयोगी है। बालिका शिक्षा पर ध्यान आकृष्ट करते हुए महिला शिक्षा के अतीत से वर्तमान तक के इतिहास को पुस्तक में शामिल किया गया है। गिजुभाई बधेका के 15 वर्षों के शिक्षकीय अनुभव पर आधारित पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ के आलोक में वर्तमान शैक्षिक समस्याओं पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। 1916 से 1932 के दौरान किए गए गिजुभाई के शैक्षिक प्रयोगों को आज नई शिक्षा नीति में शामिल किया जाना इस पुस्तक की प्रासंगिकता को दर्शाता है। शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर कार्य करने वाले शिक्षकों को सम्मानित करते हुए प्रेरणा के रूप में स्थापित किये जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए उम्मीद जगाते शिक्षकों की एक लंबी सूची और उनके कार्यों की चर्चा की गई है जिन्होंने न केवल बच्चों को पाठ्यक्रम पढ़ाया है बल्कि उनके मन को पढ़कर उनके हृदय में उतरते हुए उन्हें सुयोग्य नागरिक के रूप में तराशकर समाज को सौंपा हैं।         

कुल मिलाकर यह पुस्तक बच्चों की बेहतरी के लिए निरंतर चिंतनशील रहने वाले एक शिक्षक के अनुभवों का अनमोल खजाना है। 2013 से 2022 तक अलग-अलग वर्षों में लिखे जाने के बावजूद ये सभी लेख एक ही माला के मोती प्रतीत होते हैं। इसे पढ़ कर न केवल शिक्षक बल्कि अभिभावक और बच्चे भी समान रूप से लाभान्वित होंगे ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। डॉ. प्रेमपाल शर्मा लिखित भूमिका पठनीय है। नीतिश कुमार के चित्ताकर्षक कवर डिजाइन और रुद्रादित्य प्रकाशन द्वारा नेचुरल येलो पेपर पर स्वच्छ मुद्रण सम्मोहित करने वाला है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आपकी भी यही धारणा बनेगी कि यह पुस्तक प्रत्येक व्यक्ति के पास होनी चाहिए।

दुर्गेश्वर राय
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