संसद की गरिमा का दांव पर लगना चिन्ताजनक

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संविधान-निर्माता भीमराव आंबेडकर को लेकर भारतीय संसद में जो दृश्य पिछले कुछ दिनों में देखने को मिले हैं, वे न केवल शर्मसार करने वाले है बल्कि संसदीय गरिमा को धुंधलाने वाले हैं। अंबेडकर को लेकर भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं। दोनों पक्षों ने गुरुवार को संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन किया। इस दौरान हाथापाई भी हुई जिसमें भाजपा सांसद प्रताप सारंगी और मुकेश राजपूत घायल हो गए। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला ने सांसदों को चेतावनी देते हुए कहा कि सभी को नियमों का पालन करना पड़ेगा।

संसद की मर्यादा और गरिमा सुनिश्चित करना सबकी जिम्मेदारी है। भारतीय संसद के प्रांगण में जिस तरह की अशोभनीय एवं त्रासद स्थिति का उत्पन्न हुई है, वे हर लिहाज से दुखद, विडम्बनापूर्ण और निंदनीय है। आरोप-प्रत्यारोप की वजह से परिवेश ऐसा बन गया है, मानो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच शुद्ध शत्रुता, द्वेष, नफरत की स्थितियां उग्रतर हो गई हो। और तो और, धक्का-मुक्की, दुर्व्यवहार जैसे आरोपों को लेकर पुलिस में मामला दर्ज होना वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। इन दुखद एवं अशालीन स्थितियों का उपचार न किया गया, तो संसद में काफी कुछ अप्रिय एवं अशोभनीय होने की आशंकाएं बलशाली होगी।  

कहना न होगा कि देश की संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को रेखांकित करने वाला शिखर संस्थान है। इसलिए इसकी गरिमा बनाए रखना सभी सांसदों का मूल कर्तव्य बन जाता है। इसके लिए जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा होती है कि वे संसद की गरिमा को भंग न करे, अपना आचरण शुद्ध, शालीन एवं व्यवस्थित रखेंगे और व्यर्थ की बयानबाजी, धक्का-मुक्की, दुर्व्यवहार की जगह सार्थक बहस की संभावनाओं को उजागर करें। भारत की परंपरा कहती है कि वह सभा, सभा नहीं, जिसमें शालीनता एवं मर्यादा न हो। वह संसद संसद नहीं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा न करें। वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं जो कपटपूर्ण हो।

आज संसद में सांसदों का व्यवहार शर्म की पराकाष्ठा तक पहुंच गया है। पूरे देश की जनता ने बड़ा भरोसा जताते हुए अपने प्रतिनिधियों को चुनकर लोकसभा में भेजा है, ताकि वे सांसद के रूप में देश की भलाई के लिए नीति एवं नियम बनाएं, उसे लागू कराएं और जनजीवन को सुरक्षित तथा खुशहाल बनाते हुए देश का विकास करें। संसद की सदस्यता की शपथ लेते समय सांसदगण इन सब बातों को ध्यान में रखने की कसम भी खाते हैं, लेकिन उनकी कसम बेबुनियाद ही होते हुए संसद की मर्यादाओं को आहत कर रही है। बीते कुछ समय से धरना-प्रदर्शन के साथ सड़क पर राजनीतिक दमखम दिखाने वाले नजारे संसद के दोनों सदनों में भी दिखने लगे हैं। भौतिक रूप से छीना-झपटी और हाथापाई की नौबत भी दिखती रही है और विचाराधीन विषय से दूर एक-दूसरे को हीन साबित करना ही उद्देश्य बन गया है।

संसद का मूल्यवान समय बर्बाद हो रहा है, यह इससे स्पष्ट होता है कि पहली लोकसभा में हर साल 135 दिन बैठकें आयोजित हुई थीं। आज स्थिति कितनी नाजुक हो गई है, इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि पिछली लोकसभा में हर साल औसतन 55 दिन ही बैठकें आयोजित हुईं। नयी लोकसभा की स्थिति तो और भी दुखद एवं दयनीय है। संसद में काम न होना, बार-बार संसदीय अवरोध होना तो त्रासद है ही, लेकिन धक्का-मुक्की तक नौबत पहुंचना ज्यादा चिन्ताजनक है। कोई भी दल हो, किसी भी दल के सांसद हो, उन्हें यह संदेश देने की जरूरत है कि संसद ऐसे किसी संघर्ष का अखाड़ा नहीं है। संसद और संविधान, दोनों ही सांसदों से उच्च गरिमा एवं मर्यादाओं की अपेक्षा करते हैं।

संसद देश की आवाजों और दलीलों का मंच है, यह किसी भी प्रकार की शारीरिक जोर-आजमाइश का मंच न बने, इसी में देश की भलाई है, लोकतंत्र की अक्षुण्णता है। सार्थक और उत्पादक संवाद के लिए हर सांसद को संविधान का ज्ञान, संसदीय परंपराओं की जानकारी एवं उनके प्रति प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए। दुर्भाग्य से बहुत कम सांसद ही इस ओर ध्यान देते हैं। मुखर प्रवक्ता के रूप में विपक्ष के कई सांसद अक्सर बेलगाम, फूहड एवं स्तरहीन आरोप-प्रत्यारोप दर्ज कराने में जुट जाते हैं। आधी-अधूरी सूचनाओं या गलत जानकारी के साथ विपक्ष के नेता सरकारी पक्ष को आरोपित करने में जुट जाते हैं, बयानों तो तोड़मरोड़ का प्रस्तुत करते हैं। निश्चित ही विपक्ष लगातार अपनी जिम्मेदारी से विमुख होता दिख रहा है। वह सरकार को घेरने और आरोपित करने के उद्देश्य से संसद के कार्य में अक्सर व्यवधान डालता है। लगता है विपक्ष का मकसद यही हो गया है कि संसद की कार्यवाही सुचारु रूप से न चल सके और सरकार की विफलता दर्ज हो। इस तरह की विपक्ष की बौखलाहट का बड़ा कारण भाजपा की लगातार चमत्कारी जीत है।

सांसदों को समग्रता में सोचना चाहिए कि अगर संसद जोर आजमाइश एवं हिंसा का अखाड़ा होकर  बात एफआईआर की राजनीति तक बढ़ेगी, तो संसद का संचालन जटिल से जटिलतर होता जायेगा। संसद में तनाव कोई नई बात नहीं है। तनाव और तल्खी का इतिहास रहा है, पर बहुत कम अवसर ऐसे आए हैं, जब शारीरिक बल का दुरुपयोग देखा गया है। संसद भवन के प्रांगण में ही नहीं, बल्कि देश में कहीं भी सांसदों को ऐसे आमने-सामने नहीं आना चाहिए, जैसे गुरुवार को देश ने देखा है। संसद भवन के प्रांगण में जगह-जगह कैमरे लगे हैं। उन कैमरों की मदद से कम से कम यह तो सुनिश्चित करना चाहिए कि दोषी कौन है? दुध का दुध एवं पानी का पानी हो और सच सामने आये।

सच की जीत हो और झूठ नैस्तनाबूद हो। अगर किसी सांसद के सिर में चोट लगी है, तो यह वैसे भी गंभीर मसला है। भाजपा सांसद सारंगी ने यही बताया है कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की वजह से एक व्यक्ति उनसे टकराया और वह गिर गए। ऐसा ही आरोप कांग्रेस ने भी लगाया है। पक्ष-विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप लगंेगे, पर ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सच सामने आए। यदि सच सामने न आए, तो कम से कम सभी सांसद ऐसी स्थिति फिर न बनने दें, इसके लिये संकल्पित हो।

शीतकालीन सत्र में आंबेडकर के नाम पर संसद के भीतर-बाहर जो कुछ हो रहा है, उससे यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल संसद की गरिमा से जानबूझकर खिलवाड़ करने पर तूले  है। यह मानना अविश्वसनीय है कि यह धक्का-मुक्की अनजाने में हुई। राहुल गांधी आक्रामक ढंग से एक महिला सांसद के निकट जाकर उन्हें असहज करना तो बहुत ही शर्मनाक एवं कहीं अधिक फूहड़ है। पता नहीं किसके आरोपों में कितनी सच्चाई है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उक्त घटना संसद ही नहीं, देश को भी शर्मिंदा करने वाली है। राजनीति का स्तर इतना नहीं गिरना चाहिए कि वह मर्यादा से विहीन दिखने लगे। ऐसी राजनीति केवल धिक्कार की पात्र होती है।

संसद की मर्यादा को तार-तार करने वाली ऐसी घटनाएं सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बढ़ती कटुता का ही नतीजा है, जो देश के हित में नहीं है। पक्ष-विपक्ष के बीच बढ़ती शत्रुता न केवल भारतीय राजनीति बल्कि लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक हैं। दोनों पक्षों के बीच शत्रु भाव कम होने के कोई आसार इसलिए नहीं दिख रहे हैं, क्योंकि ऐसे मुद्दे सतह पर लाए जा रहे हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं बनता और जिनका मकसद लोगों को बरगलाना एवं गुमराह करना है। बीते कुछ समय से यह जो भय का भूत खड़ा किया जा रहा है कि संविधान खतरे में है, वह राजनीति के छिछले स्तर का ही परिचायक है। कोई बताये तो संविधान कब और कैसे खतरे में आ गया। संसद में ऐसे विषयों को लेकर सार्थक एवं सौहार्दपूर्ण संवाद हो, वाद-विवाद की जगह कटुता न ले, विमर्श और विचार की गंभीरता से ही लोकतंत्र की शक्ति बढ़ेगी। दलगत पसंद और नापसंद स्वाभाविक है, किंतु उससे ऊपर उठकर रचनात्मक भूमिका निभाने का साहस भी जरूरी है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग

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