वास्तविक और विशुद्ध धर्म को जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ने स्थापित कर उपदेश दिया कि यदि धर्म इस जन्म में शांति और सुख नहीं देता है तो उससे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है। उन्होंने हमारी आस्था को नये आयाम दिये और कहा कि हमारे भीतर अनंत शक्ति है, असीम क्षमता है। इसलिए उन्होंने उपासनापरक और क्रियाकाण्डयुक्त धर्म को महत्व न देकर जीवंत धर्म की प्रतिस्थापना की। भगवान पार्श्वनाथ अज्ञान-अंधकार-आडम्बर एवं क्रियाकाण्ड के मध्य में क्रांति का बीज बन कर पृथ्वी पर जन्मे। तब तापस परम्परा में वे क्रांति-ज्वाला की तरह ऐसे प्रकट हुए, जैसे वर्षों तप में लीन रहने के बाद सहसा ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है। उनका जीवन जहां तापस युग का अंत था तो दूसरे बौद्धिक साधना का प्रारम्भ। जैन धर्म के लिये यह वर्ष इसलिये ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण है कि 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान का यह 2900वें जन्म कल्याणक एवं 2800वें निर्वाण कल्याणक वर्ष है, इस अवसर पर भारत सरकार 25 दिसंबर 2024 को क्रमशः 900 और 800 रुपये के दो शुद्ध चांदी स्मारक सिक्के व 2 स्मारक डाक टिकट जारी करने जा रहा है।
सिक्के व डाक टिकट विमोचन का समारोह श्री ओस्तरा तीर्थ (भोपालगढ़, जोधपुर) में जैनाचार्य श्री जिन पीयूषसागर सूरीश्वर जी म.सा. की निश्रा में कर्नाटक के राज्यपाल श्री थावरचंद गहलोत के करकमलों से होगा। इस समारोह को गच्छाधिपति आचार्य श्री विजय धर्मधुरंधरसूरिजी म.सा. का आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है। श्री पार्श्व पद्मावती जिनालय महाबलीपुरम् तीर्थ न्यास, नई दिल्ली के संस्थापक अध्यक्ष श्री ललित कुमार नाहटा एवं श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, दिल्ली के अध्यक्ष श्री सुखराज सेठिया के प्रयासों से भारत सरकार ने डाक टिकट एवं सिक्कों के प्रसारण का निर्णय लेकर अपनी विनम्र भावांजलि व्यक्त की है।
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग पौष कृष्ण एकादशी के दिन वाराणसी में हुआ था, उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलतः ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने। पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वे मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती सम्राट, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में आनंद नामक राजा, नौवें जन्म में स्वर्ग के राजा इन्द्र और दसवें जन्म में तीर्थंकर बने। बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाटबाठ में व्यतीत हुआ।
समय का हर पल विकास का एक स्वर्णिम अवसर है। यदि कोई इसे पहचान सके, पकड़ सके और उसे सर्वात्मना जी सके। इसलिए भाग्योदय में प्रयत्न और पुरुषार्थ से भी ज्यादा जरूरी होता है समय की सच्चाई के साथ जी सकने और स्वयं के अंदर छुपी अनंत संभावनाओं को उद्घाटित कर सकने का विश्वास। जिसे अपनी क्षमताओं पर विश्वास होता है वही धर्म का वास्तविक पात्र होता है। इसी वास्तविक और विशुद्ध धर्म को जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ने स्थापित कर उपदेश दिया कि यदि धर्म इस जन्म में शांति और सुख नहीं देता है तो उससे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है। उन्होंने हमारी आस्था को नये आयाम दिये और कहा कि हमारे भीतर अनंत शक्ति है, असीम क्षमता है। उन्होंने जिस धर्म का उपदेश दिया, वह न ब्राह्मण धर्म था, न क्षत्रिय धर्म, न वैश्य धर्म और न ही शूद्र धर्म। वह विशुद्ध धर्म था, जो किसी कुल, जाति या वर्ण की परिधि में सिमटा नहीं था।
बचपन से ही पार्श्वनाथ चिंतनशील और दयालु थे। पार्श्व युवा हुए। इनका क्षत्रियत्व शौर्यशाली था। सभी विद्याओं में ये प्रवीण थे। एक बार अपने मामा की सहायता के लिए युद्ध किया। आक्रामक को इन्होंने परास्त कर, उसे बंदी बना अपने शौर्य का परिचय दिया। उन्होंने अपने समय की हिंसक स्थितियों को नियंत्रित कर अहिंसा का प्रकाश फैलाया। यूं लगता है पार्श्वनाथ जीवन दर्शन के पुरोधा बनकर आये थे। उनका अतः से इति तक का पूरा सफर पुरुषार्थ एवं धर्म की प्रेरणा है। वे सम्राट से संन्यासी बने, वर्षों तक दीर्घ तप तपा, कर्म निर्जरा की, तीर्थंकर बने। जैन दर्शन के रूप में शाश्वत सत्यों का उद्घाटन किया। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व जैन इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है।
पार्श्वनाथ ने संसार और संन्यास दोनों को जीया। वे पदार्थ छोड़ परमार्थ की यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने जीवन शुद्धि के लिए कठोर तप किया। उनके तप में सादगी थी और जीवन शुद्धि का मर्म था। वास्तव में तप वही है जिसके साथ न प्रदर्शन जुड़ा है और न प्रलोभन। इसमें न केवल उपदेश काम करता है और न अनुकरण। जीवन स्वयं एक तपस्या है। सुविधाओं के बीच सीमाकरण में रहना और अभावों के बीच तृप्ति को पा लेना भी तप है। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना भी तप है और ऐसे ही तप के माध्यम से पार्श्वनाथ न केवल स्वयं तीर्थंकर बने बल्कि जन-जन में ऐसी ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। बिना पवित्रता धर्म आचरण नहीं बन सकता। जैसे- मुखौटों में सच नहीं छिपता, वैसे ही वासनाएं, कामनाएं, असत् संस्कार और असत् व्यवहार धर्म को आवरण नहीं बना सकता। इसलिए उपासना के इस बिन्दु से जोड़े कि धर्म मंदिर या पूजा पाठ में नहीं, धर्म मन के मंदिर में हैं।
पार्श्वनाथ ने अहिंसा का दर्शन दिया। अहिंसा सबके जीने का अधिकार है, उन्होंने इसे स्वीकृत किया। प्राचीन उद्घोष एक बार फिर से करते हुए उन्होंने जनता को संदेश दिया- ‘सव्वे पाणा पियाउवा, सव्वे दुक्ख पडिकुला’- यानी सबको जीवन प्रिय है, दुख को कोई नहीं चाहता। पर हमने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रकृति पदार्थ, प्राणी और पर्यावरण को नकार दिया। तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी उन धर्मनायकों एवं तीर्थंकरों में से ऐसे महापुरुष थे, जो धर्म नीतियों का प्रकाश संसार में लेकर आए और ऐसे जीवन मूल्यों की स्थापना की जिनके माध्यम से धर्म एक नये रूप में प्रस्तुत हुआ। इस धर्म दर्शन में जीवन के इर्द-गिर्द छिपी बाहरी ही नहीं, भीतरी परछाइयां भी रोशनी बनकर प्रस्तुत होती है। अच्छाइयों की सही पहचान होती है, अहिंसक मन कभी किसी के सुख में व्यवधान नहीं बनता।