शून्य भेदभाव अभियान मिसाल नहीं, मशाल बनें

-शून्य भेदभाव दिवस- 1 मार्च, 2025-

दुनिया में भेदभाव की ऊंची-ऊंची दीवारों पर अमानवीयता, छूआछूत, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न के काले अध्याय लिखे हैं, इनके खिलाफ़ लड़ाई के लिए बहुआयामी, उदार एवं मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मूल कारणों एवं जड़ों पर प्रहार करते हुए सामाजिक-राजनैतिक मानदंडों को चुनौती दे और पहचान के विभिन्न आयामों में समावेशिता और समानता को बढ़ावा दे। भेदभाव के विभिन्न रूपों के बारे में जागरूकता और समझ को बढ़ावा देकर, हम सभी के लिए एक अधिक न्यायपूर्ण और समतापूर्ण दुनिया बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं।

इसी उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र (यूएन) और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रत्येक वर्ष 1 मार्च शून्य भेदभाव दिवस मनाया जाता है, जो कोई प्रतीकात्मक उत्सव नहीं है, बल्कि सीमाओं, संस्कृतियों और समुदायों के बीच समानता की एक शक्तिशाली घोषणा है, इसे मिसाल नहीं, मशाल बनाना होगा। यह निष्पक्षता, समानता और सभी के लिए सम्मान के लिए लड़ने की अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता है। शून्य भेदभाव दिवस-2025 की थीम है ‘हम एक साथ खड़े हैं।’ इसके द्वारा जातिवाद, रंगवाद, नस्लवाद, भाषावाद आदि विषमता एवं विसंगतिमूलक व्यवस्थाओं एवं सोच की जड़े हिलाई गयी है। दुनियाभर में इस क्रांतिकारी अभियान का मुक्तभाव से स्वागत हो रहा है।

इक्कींसवी सदी का आदमी हवा में उड़ने लगा है, चांद पर चहलकदमी करने लगा है, ग्रह-नक्षत्रों की दुनिया में झांकने लगा है, यंत्र मानव का निर्माण करने लगा है, अपनी अधिकांश समस्याओं का समाधान कम्प्यूटर-कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) से पाने लगा है, लेकिन इंसान इंसान के बीच के भेदभाव को मिटाने की दिशा में अभी भी यथोचित सफलता नहीं मिली है। यही कारण है कि नस्लीय, लैंगिक, जातीय, भाषायी भेदभाव खड़े हैं। नस्लीय भेदभाव एक गहरा मुद्दा बना हुआ है जो अल्पसंख्यक समूहों को प्रभावित करता है। रूढ़िवादिता, पूर्वाग्रह और प्रणालीगत नस्लवाद असमान अवसरों, संसाधनों तक सीमित पहुंच और शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवा में व्यापक असमानताओं का बड़ा कारण हैं।

इसी तरह लैंगिक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता भेदभाव को बढ़ावा देती है, जिससे महिलाओं को अक्सर वेतन में अंतर, सीमित करियर उन्नति और सामाजिक अपेक्षाओं का सामना करना पड़ता है जो उन्हें पारंपरिक भूमिकाओं तक सीमित कर देती हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता और क्षमता सीमित हो जाती है। उम्र के आधार पर भेदभाव युवा और बुजुर्ग दोनों को प्रभावित करता है। विभिन्न अध्ययनों और रिपोर्टों से वैश्विक स्तर पर संस्कृतियों एवं समाजों में भेदभाव के बारे में चिंताजनक आंकड़े मिलते है। भेदभाव के दुष्परिणाम व्यक्तिगत अनुभवों से कहीं आगे तक फैले हुए हैं, जो पूरे समुदाय को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। भेदभाव सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ावा देता है, जिससे पीढ़ियों तक नुकसान का चक्र चलता रहता है। जैसे-जैसे शून्य भेदभाव दिवस आंदोलन ने गति पकड़ी, भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में मील के पत्थर हासिल होते गए, जिससे अधिक समावेशी भविष्य की उम्मीद जगी है।


महात्मा गांधी ने भारत में भेदभाव, ऊंच-नीच, छूआछूत की अमानवीता को न केवल धोया, बल्कि एक अधिक समानता एवं समतापूर्ण आदर्श-समाज व्यवस्था की नींव रखी। अगर गांधी ने अछूतोद्धार आन्दोलन नहीं चलाया होता, उनके कल्याण के लिए संघर्ष नहीं किया होता, उनकी बस्ती मे उनके साथ जाकर नहीं रहे होते तो ये हरिजन आज हीन एवं दीन ही बने रहते। जब गांधी के गुजरात का प्रमुख शहर, हीरों का विश्वभर में निर्यात करने वाला सूरत गन्दगी से सड़कर ”प्लेग“ से जूझ रहा था, तब देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तर प्रदेश में आन्दोलनकारियों पर गोली चलाई गई। जिसने राजघाट में सोयी उस आत्मा को पीड़ा से भर दिया। गांधी ने एक मुट्ठी भर नमक उठाया और करोड़ों लोगों ने मुट्ठियां तान दी थीं।

चर्खे पर खादी का धागा काता और विदेशी कपड़ों की होली हर चौराहे पर जला दी। ”करो या मरो“ का नारा दिया और कितने ही वकील, डॉक्टर, अध्यापक, व्यापारी अपना पेशा छोड़कर मैदान में कूद पड़े। ऐसा चरित्र आज कहां? उनका व्यक्तित्व सुन्दर चमड़ी का नहीं था, उनकी छवि विदेशी कपड़ों से नहीं थी, उनके विचार आयात किए हुए नहीं थे। एक दुबला, पतला, लंगोटीधारी, जो भारत की धरती के लोगों के हृदय की भाषा बोलता था और इंसान इंसान को बांटने वाली हर दीवार को और हर भेदभाव को मिटाता चला गया। आज तो नेता समस्याओं को सड़ा रहे हैं– समाधान नहीं दे रहे हैं। लोगों का विश्वास टूट रहा है।

भेदभाव के खिलाफ लड़ाई गांधी जैसे अनेक विश्व व्यक्तित्वों के अथक प्रयासों से प्रेरित हैं, जिनकी न्याय और समानता के प्रति प्रतिबद्धता ने वैश्विक मंच पर एक अमिट छाप छोड़ी है। उन्होंने सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने, हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए आवाज़ उठाने और बदलाव को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसी ही एक प्रतिष्ठित हस्ती हैं नेल्सन मंडेला, जिनकी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को खत्म करने के लिए आजीवन प्रतिबद्धता उत्पीड़न के खिलाफ़ लचीलेपन का प्रतीक है। लड़कियों की शिक्षा के लिए निडर योद्धा मलाला यूसुफजई तालिबान द्वारा हत्या के प्रयास से बचने के बाद एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उभरीं। सभी के लिए शिक्षा के प्रति मलाला के अटूट समर्पण और लैंगिक समानता के लिए उनके अथक प्रयास ने उन्हें 17 साल की उम्र में नोबेल शांति पुरस्कार दिलाया, जिससे वह इतिहास में सबसे कम उम्र की पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं में से एक बन गईं। हार्वे मिल्क ने पहले खुले तौर पर समलैंगिक सार्वजनिक अधिकारी के रूप में कैलिफोर्निया में समलैंगिकों के अधिकारों की व्यापक दृश्यता और स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त किया।

मिल्क की साहसी सक्रियता ने समलैंगिक अधिकार आंदोलन के शुरुआती चरणों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। रूथ बेडर गिन्सबर्ग, एक अग्रणी कानूनी विद्वान और सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश, ने अपना करियर लैंगिक भेदभाव से लड़ने के लिए समर्पित कर दिया। उनके अभूतपूर्व काम और ऐतिहासिक कानूनी फैसलों ने महिलाओं के अधिकारों को गहराई से प्रभावित किया है और कानूनी परिदृश्य को आकार देना जारी रखा है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नागरिक अधिकारों की खोज से लेकर मैल्कम एक्स की नस्लीय न्याय की वकालत और एम्मा गोंजालेज की बंदूक हिंसा के खिलाफ सक्रियता से लेकर ग्रेटा थनबर्ग की जलवायु न्याय की लड़ाई तक, प्रत्येक व्यक्ति ने एक स्थायी विरासत छोड़ी है।

शिक्षा और जागरूकता भेदभाव से निपटने की नींव बनाती है, जो समझ को बढ़ावा देने और गहराई से जड़ जमाए हुए पूर्वाग्रहों को खत्म करने में महत्वपूर्ण है। समाज विभिन्न शैक्षिक स्तरों पर समावेशी पाठ्यक्रम को एकीकृत करके रूढ़िवादिता को चुनौती दे सकता है और सहानुभूति को बढ़ावा दे सकता है। भेदभाव से निपटने के लिए कानूनी और नीतिगत विकास महत्वपूर्ण प्रगति के साथ अधिक समावेशी समाज बनाने के लिए वैश्विक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। दुनिया भर की सरकारें और संगठन व्यक्तियों को भेदभाव से बचाने के लिए मजबूत कानून की आवश्यकता को महसूस करते हैं। हाल के वर्षों में हाशिए पर पड़े समूहों की सुरक्षा और समान अवसरों को बढ़ावा देने वाले प्रभावशाली कानून की ओर बदलाव देखा गया है।

ये कानून विविधता, निष्पक्ष व्यवहार और भेदभाव को बनाए रखने वाली प्रणालीगत बाधाओं को तोड़ने के महत्व पर जोर देते हैं। भेदभाव के खिलाफ़ प्रगति के बावजूद, एक संतुलित, समानता एवं समतापूर्ण समाज-निर्माण में महत्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी हुई हैं। सामाजिक संरचनाओं में पूर्वाग्रह एक बड़ी बाधा हैं, क्योंकि भेदभावपूर्ण प्रथाएँ संस्थाओं में जड़ जमा लेती हैं, जिससे असमानता बनी रहती है। गहरे विश्वासों और सांस्कृतिक मानदंडों में निहित परिवर्तन का प्रतिरोध भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण को खत्म करने के प्रयासों को जटिल बनाता है। इंसान ने भेदभाव की नीति अपनाते हुए संसार बाँट दिया। उसने स्वयं को सर्वाेपरि समझते हुए सारी धरती पर अपना अधिकार करना चाहा। उसने समुद्र से ज़मीन छीनी, जंगलों का सफाया किया और पशु-पक्षियों को बेघर किया। मानव और मानव के बीच में जो भेद की दीवारें खड़ी हैं, उनको ढहाना होगा, और इसके लिए शून्य भेदभाव दिवस जैसे विश्व अभियान को अधिक सशक्त, कार्यकारी एवं सक्रिय करने की आवश्यकता है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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