खुशहाल समाजों की रैंकिंग से भारत भ्रमित न हो

143 देशों के विश्व खुशहाली रैकिंग में भारत 126वें स्थान पर रहा है जिसमें फिनलैंड ने लगातार छठीं बार सर्वोच्च स्थान पाया है। यह बात भी गौर करने की है कि भारत में दस अंकों का सुधार हुआ है, फिर भी  भारत के लिये आश्चर्यकारी एवं विचारणीय है। फिनलैंड को दुनिया का सबसे खुशहाल देश करार दिया गया है, पर गौर कीजिए, वहां आबादी सिर्फ 56 लाख है। मतलब, इस देश की चुनौतियां बहुत कम हैं। धार्मिक वातावरण ऐसा है कि विद्वेष की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। छोटा राष्ट्र होने की वजह से सरकारों के सामने समस्याएं कम है। अतः फिनलैंड की स्थिति अच्छी है, पर उसकी तुलना भारत जैसे 140 करोड़ आबादी वाले देश से कैसे हो सकती है? यह बहस का विषय है।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित इस वार्षिक रिपोर्ट में नॉर्डिक देशों ने 10 सबसे खुशहाल देशों में अपना स्थान बनाए रखा है। फिनलैंड के बाद डेनमार्क, आइसलैंड, स्वीडन ने शीर्ष स्थान हासिल किए हैं। इन सभी देशों में समाज समस्यामुक्त एवं काफी सुलझा हुआ है और विविधता वहां ज्यादा समस्याएं पैदा नहीं करती है। देखने की बात है कि खुशहाली की रिपोर्ट विगत एक दशक से भी ज्यादा समय से जारी हो रही है और पहली बार अमेरिका और जर्मनी जैसे विकसित देशों को शीर्ष 20 देशों में स्थान नहीं मिला है।

पाकिस्तान पिछली बार 108वें स्थान पर था, इस बार 122वें पर आ गया है, पर तब भी भारत से चार पायदान ऊपर है। जिस देश में खूब महंगाई है, जहां की जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, जहां धार्मिक उन्माद व्यापक है, जो आतंकवाद को प्रोत्साहन देता है, वह देश भी अगर हमसे खुशहाल है, तो ऐसी खुशहाली मापने के तरीकों पर विचार होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि खुशहाली को तय करने के पैमानों में अवश्य ही कोई पूर्वाग्रह या आग्रह है। क्योंकि ऋण की गुहार लगाता एवं त्राहिमाम करता पाकिस्तान को 122वें स्थान की रैकिंग देना विडंबनापूर्ण एवं विसंगतिमय हैं, जो इस सूचकांक के महत्व को घटा देती हैं। जो दुनिया के खुश देशों के आकलन में त्रुटि की पूरी संभावनाएं होने को दर्शाता है। अनेक सवाल खड़े करती है यह खुशहाल देशों की रैंकिंग। यह विडंबना ही है कि धार्मिक पाबंदियों वाला कुवैत दुनिया का 13वां सबसे खुशहाल देश है। ऐसी अतार्किक सूची देखकर अफसोस एवं आश्चर्य भी होता है और चिंता भी होती है। क्या खुशहाली को धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता के आधार पर ज्यादा नहीं देखा जाना चाहिए? खुशहाली को केवल आर्थिक समृद्धि और संसाधनों की अधिकता में घटाकर देखना सही नहीं है। खुशहाली की रैंकिंग को देखकर भारत को कतई भ्रमित नहीं होना चाहिए।

एक और विडंबना देखिए, निर्मम युद्ध लड़ रहा इजरायल पांचवां सबसे खुशहाल देश है! पीड़ित फलस्तीन 103वें स्थान पर है, तो रूस 72वें स्थान पर और यूक्रेन 105वें स्थान पर। ये देश युद्ध के बावजूद भारत से ज्यादा खुशहाल हैं। पता नहीं, इस रैंकिंग पर कितना भरोसा किया जाए? जहां तक भारत का सवाल है, खुशहाली के सभी पैमानों पर हमें अपने प्रयास बढ़ाने की जरूरत है। एक बड़ा सवाल यह भी है कि हम प्रसन्न समाजों की सूची में क्यों नहीं अव्वल आ पा रहे हैं? यह सवाल सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर दे रहा है, वहीं नीति-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां समाज निर्माण में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार खुशहाल देशों की सूची में सम्मानजनक स्थान नहीं बना पा रहे हैं। भारत सरकार इस रिपोर्ट को कितनी गंभीरता से लेती है, यह देखने वाली बात है।

भारत में खुशहाली को बढ़ावा देने में यहां की जनसंख्या सबसे बड़ी बाधा है। भारत के अल्पसंख्यक समुदायों की कट्टरता एवं संकीर्णता भी खुशहाल समाज निर्माण की बड़ी बाधा है। भारत जैसे विशाल और असमान विकास वाले देश के लिए 126वां स्थान कितना मायने रखता है? भारत में कई तरह का भारत है, एक अमीर व खुशहाल भारत है, तो उसमें एक गरीब भारत भी है। गरीब भारत भी विकास कर रहा है, लेकिन आबादी इतनी ज्यादा है कि अभी देश को समग्रता में खुशहाल देशों में अव्वल स्थान बनाने में वक्त लगेगा। सबसे खुशहाल देश फिनलैंड की आबादी महज 56 लाख है, उसके लिए विकास आसान है। भारत के मुम्बई, दिल्ली, कोलकता शहर में इसमें कहीं ज्यादा लोग रहते हैं। वैसे भी खुशी महसूस करना व्यक्ति के खुद की सोच पर निर्भर करता है। इसलिये प्रश्न है कि हमारी खुशी का पैमाना क्या हो? अधिकतर लोग छोटी-छोटी जरूरतें पूरी होने को ही खुशी मान लेते हैं। इससे उन्हें उस पल तो संतुष्टि मिल जाती है, उनका मन खिल जाता है। लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिकती, स्थायी नहीं होती। इच्छा पूरी होने के साथ ही उनकी खुशी भी कमजोर होने लगती है।

खुशी एवं प्रसन्नता हम सबकी जरूरत है, लेकिन प्रश्न है कि क्या हमारी यह जरूरत पूरी हो पा रही है, ताजा आकलन से तो यही सिद्ध हो रहा है कि हम खुशी एवं प्रसन्नता के मामले में लगातार पिछड़ रहे हैं। विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि हमारा भारतीय समाज एवं यहां के लोग अपने ज्यादातर पड़ोसी समाजों से कम खुश है। खुशहाली की रिसर्च में खुशहाली को राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध भौतिक सुविधाओं से मापा जाता है। लेकिन खुशियां का दायरा इतना छोटा तो नहीं होता। विकास की सार्थकता इस बात में है कि देश का आम नागरिक खुद को संतुष्ट और आशावान महसूस करे। स्वयं आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ बने, कम-से-कम कानूनी एवं प्रशासनिक औपचारिकताओं का सामना करना पड़े, तभी वह खुशहाल हो सकेगा।

डिजिलीकरण, आर्थिक नवाचार जैसी घटनाओं ने आम आदमी को अधिक परेशानी एवं समस्याएं दी है। समस्याओं के घनघोर अंधेरों के बीच उनका चेहरा बुझा-बुझा है। न कुछ उनमें जोश है न होश। अपने ही विचारों में खोए-खोए, निष्क्रिय और खाली-खाली से, निराश और नकारात्मक तथा ऊर्जा विहीन। हाँ सचमुच ऐसे लोग पूरी नींद लेने के बावजूद सुबह उठने पर खुद को थका महसूस करते हैं, कार्य के प्रति उनमें उत्साह नहीं होता। ऊर्जा का स्तर उनमें गिरावट पर होता है। क्यों होता है ऐसा? कभी महसूस किया आपने? यह स्थितियां एक असंतुलित एवं अराजक समाज व्यवस्था की निष्पत्ति है। ऐसे माहौल में व्यक्ति एवं समाज खुशहाल नहीं हो सकता।

खुशहाली सूचकांक के लिए अर्थशास्त्रियों एवं विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की एक टीम व्यापक स्तर पर शोध करती है, यह टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, भरोसा, सामाजिक सहयोग, परोपकार, दान भावना, स्वतंत्रता और उदारता आदि को आधार बनाती है। रिपोर्ट का मकसद विभिन्न देशों के शासकों को आईना दिखाना है कि उनकी नीतियां लोगों की जिंदगी खुशहाल बनाने में कोई भूमिका निभा रही हैं या नहीं? हमारा शीर्ष नेतृत्व आजादी के बाद से ही निरन्तर आदर्शवाद और अच्छाई का झूठ रचते हुए सच्चे आदर्शवाद के प्रकट होने की असंभव कामना करता रहा है, इसी से जीवन की समस्याएं सघन होती गयी है, नकारात्मकता के इस व्यूह को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुशी एवं प्रसन्न जीवन के लक्ष्य को आकार दिया है, उन्होंने गहन अंधेरों से देश की जनता को बाहर निकालते हुए विगत एक दशक में अपने कामकाज एवं नीतियों से एक आशावाद उकेरा है।

भारत में युवा सबसे अधिक खुश हैं, जबकि निम्न मध्यमवर्गीय लोग सबसे कम खुश हैं। भारत में अधिक उम्र उच्च जीवन संतुष्टि से जुड़ी है और यह उन दावों के विपरीत है कि उम्र और जीवन संतुष्टि के बीच सकारात्मक संबंध केवल उच्च आय वाले देशों में मौजूद है। भारतीयों के बीच संतोष के भाव, प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद, सामाजिक सहयोग, जीवन प्रत्याशा, स्वतंत्रता, उदारता के भाव में विस्तार जारी रहना चाहिए। भारत का वर्तमान खुशहाली वाला समाज बनने को तत्पर है, भले ही दुनिया की कुछ खुशहाली रैकिंग तय करने वाली एजेंसियां इससे असहमत हो।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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