माता यशोदा, भगवान श्रीकृष्ण की पालक-माता थीं। उनका विवाह ब्रज के राजा नंद से हुआ था। मान्यता है कि माता यशोदा का जन्म फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हुआ था।यशोदा को भगवान श्रीकृष्ण की पालक-माता, नंद बाबा की पत्नी और रोहिणी की बहन कहा गया है। भागवत पुराण के अनुसार, कृष्ण का जन्म देवकी के गर्भ से मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ, लेकिन कृष्ण के पिता वसुदेव नवजात कृष्ण को अपने चचेरे भाई नंद बाबा के पास गोकुल में लाए, ताकि कृष्ण को मथुरा के राजा व देवकी के भाई कंस से उनकी रक्षा की जा सके।

कृष्ण का पालन पोषण यशोदा ने किया। भगवान श्रीकृष्ण की माता मैया यशोदा वात्साल्य की देवी हैं। उनकी गोद में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण खेले, ऐसा यश और किसी को प्राप्त नहीं हुआ।यशोदा जयंती पर माताएं उपवास रख संतान के सुख के लिए मंगलकामनाएं करती हैं। मान्यता है कि इस दिन संतान सुख से वंचित लोग अगर माता यशोदा का व्रत रखकर विधिपूर्वक पूजा करते हैं, उन्हें भी संतान सुख प्राप्त हो जाता है।
प्रातः काल स्नान आदि कर मां यशोदा का ध्यान करते हुए भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति सामने रखकर दीपक जलाएं। मां यशोदा जी के नाम की लाल चुनरी पूजा स्थल पर कलश पर रखें। मां को मिष्ठान और भगवान कृष्ण को मक्खन का भोग लगाएं। गायत्री मंत्र के जाप के साथ भगवान विष्णु की आरती करें। अंत में मन ही मन अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करे।
भागवत पुराण के मुताबिक, माता यशोदा वसु द्रोण की पत्नी धरा का अवतार थीं। माता यशोदा ने अपने पूर्व जन्म में भगवान विष्णु की तपस्या की थी।भगवान विष्णु ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि अगले जन्म में उन्हें मातृत्व का सुख मिलेगा।माता यशोदा ने ही श्रीकृष्ण को मातृत्व का सुख दिया कृष्ण के पिता वासुदेव ने कृष्ण को कंस से बचाने के लिए गोकुल में लेकर आ गए थे।
मान्यता के अनुसार पूर्व जन्म में माता यशोदा जी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वर दिया था कि अगले जन्में मुझे मातृत्व का सुख आप ही से प्राप्त होगा। गीता के अनुसार समय के साथ ऐसा ही हुआ। हालोकि भगवान श्री कृष्ण देवकी एवं वासुदेव की आठवीं संतान के रूप में प्रकट हुए, लेकिन पिता वासुदेव उन्हें कंस के भय से नंद बाबा एवं यशोदा मैया के घर छोड़ आए थे। मिले वरदान के अनुसार मां यशोदा ने ही कृष्ण को मातृत्व का सुख प्रदान किया।’मुक्तिदाता भगवान् से जो कृपाप्रसाद नन्दरानी यशोदा मैया को मिला, वैसा न ब्रह्माजी को, न शंकर को न अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी को भी कभी प्राप्त हुआ।’वसुश्रेष्ठ द्रोण ने पद्मयोनि ब्रह्मासे यह प्रार्थना की- ‘देव ! जब मैं पृथ्वीपर जन्म धारण करूँ, तब विश्वेश्वर स्वयं भगवान् श्रीहरि श्रीकृष्णचन्द्र में मेरी परमा भक्ति हो।’ इस प्रार्थना के समय द्रोणपत्नी धरा भी वहीं खड़ी थीं।
धरा ने मुखसे कुछ नहीं कहा; पर उनके अणु-अणु में भी यही अभिलाषा थी, मन-ही-मन धरा भी पद्मयोनि से यही माँग रही थीं।’ पद्मयोनि ने कहा- ‘तथास्तु ऐसा ही होगा।’ इसी वर के प्रताप से धरा ने व्रजमण्डल के एक सुमुख नामक गोप एवं उनकी पत्नी पाटला की कन्या के रूप में भारतवर्ष में जन्म धारण किया – उस समय जब कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के अवतरणका समय हो चला था। श्वेतवाराहकल्प की अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के द्वापर का अन्त हो रहा था। पाटला ने अपनी कन्या का नाम यशोदा रखा। यशोदा का विवाह व्रजराज नन्द से हुआ। ये नन्द पूर्वजन्म में वहीं द्रोण नामक वसु थे, जिन्हें ब्रह्मा ने वर दिया था।भगवान् की नित्यलीला में भी एक यशोदा हैं। वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र की नित्य माता हैं। वात्सल्यरस की घनीभूत मूर्ति ये यशोदारानी सदा भगवान् को वात्सल्यरस का आस्वादन कराया करती हैं। जब भगवान् के अवतरणका समय हुआ, तब इन चिदानन्दमयी, वात्सल्यरसमयी यशोदाका भी इन (पूर्वजन्मकी धरा) में ही आवेश हो गया। पाटला पुत्री यशोदा नित्ययशोदा से मिलकर एकमेक हो गयीं।तथा इन्हीं यशोदा के पुत्र के रूप में आनन्दकन्द परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अवतीर्ण हुए। जब भगवान् अवतीर्ण हुए थे, उस समय यशोदा की आयु ढल चुकी थी। इससे पूर्व अपने पति नन्द के साथ यशोदा ने न जाने कितनी चेष्टा की थी कि पुत्र हो; पर पुत्र हुआ नहीं। अतः जब पुत्र हुआ, तब फिर आनन्द का कहना ही क्या है…
सूखत धानन कौं ज्यौं पान्यो, याँ पायौ या पनमें।
यशोदा को पुत्र हुआ है, इस आनन्द में साराव्रजपुर निमग्न हो गया। छठे दिन यशोदाने अपने पुत्रकी छठी पूजी। इसके दूसरे दिनसे ही मानो यशोदा-वात्सल्य सिन्धु का मन्थन आरम्भ हो गया, मानो स्वयं जगदीश्वर अपनी जननी का हृदय मथते हुए राशि राशि भावरन निकाल-निकालकर बिखेरने लगे, बतलाने लगे, घोषणा करने लगे- ‘जगत् की देवियो ! देखो, यदि तुममें से कोई मुझ परब्रह्म पुरुषोत्तम को अपना पुत्र बनाना चाहो तो मैं पुत्र भी बन सकता हूँ; पर पुत्र बनाकर मुझे कैसे प्यार किया जाता है, वात्सल्यभाव से मेरा भजन कैसे होता है-इसकी तुम्हें शिक्षा लेनी पड़ेगी। इसीलिये इन सर्वथा अनमोल रत्नों को निकालकर मैं जगत् में छोड़ दे रहा हूँ, ये ही तुम्हारे आदर्श होंगे: इन्हें पिरोकर अपने हृदय का हार बना लेना । हृदय आलोकित हो जायगा; उस आलोक में आगे बढ़कर पुत्ररूप से मुझे पा लोगी, अनन्तकाल के लिये सुखी हो जाओगी।’
जसुमति फूली फूली डोलति ।।
अति आनंद रहत सगरे दिन हसि हसि सब सौ बोलति ॥
मंगल गाय उठति अति रस सो अपने मनको भायी।
विकसित कहति देख व्रजसुंदरि कैसो लगत सुहायौ ।।
