जरूरत शब्द स्वच्छता अभियान की; लोगों में अपशब्दों का बढ़ता प्रचलन खतरनाक

यह काफी चौंकाने वाला रिपोर्ट है जिसे जानकर आप भी सोचने पर विवश हो जाएंगे, दरअसल एक सर्वे रिपोर्ट आई है कि देश में लोगों की आम बोलचाल की भाषा हंसी मजाक की भाषा के साथ-साथ मीडिया इंटरनेट ओटीटी जैसे प्लेटफार्म में भी हास परिहास बोलचाल की भाषा में इतनी गिरावट आ गई है कि आप अब वह सब सुनकर असहज हो जाएंगे। आमतौर पर लोगों के बोलचाल में शब्दों की इतनी गिरावट आ चुकी है कि लोगों की भाषा अब गाली गलौज और अश्लीलता के साथ दूसरे लोगों के बीच संप्रेषित किया जाने लगा है। 

यह कमोबेश सभी वर्ग में दिखने लगा है और तो और खास करके शिक्षित युवा युवतियों के बीच भी यह ट्रेंड आम हो चला है। यह स्थिति हमारे देश के संस्कृति और संस्कार के लिए बहुत ही खराब और चिंतनीय है। आपको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि आम बोलचाल में अपशब्दों का, गाली गलौज का प्रयोग करने में सबसे 76 प्रतिशत के साथ टॉप में दिल्ली के लोग हैं। जी हां दिल्ली जो देश की सबसे बड़ी संस्कारधानी और राजधानी भी है। इसके बाद पंजाब 75 प्रति., यूपी,और बिहार, 74 प्रति.राजस्थान 68 प्रति., मध्य प्रदेश 66 प्रति.और महाराष्ट्र 61 प्रति.का नाम आता है। सुखद स्थिति यह है कि पूर्वांचल के राज्य और साउथ के राज्यों में कमोबेश स्थिति अभी उतनी खराब नहीं हुई है। 

हमारे बीच होने वाली बोलचाल न केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है, बल्कि हमारी सोच, संस्कृति और सामाजिक मर्यादाओं का भी प्रतिबिंब होती है। समय के साथ भाषा में बदलाव स्वाभाविक है, लेकिन जब उसमें अशालीनता, अपशब्द और  गाली-गलौज का सामान्यीकरण होने लगे, तो यह केवल भाषाई समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक गिरावट का संकेत बन जाती है। आजकल देखा जा रहा है कि न केवल विवाद या गुस्से के क्षणों में, बल्कि हंसी-मजाक और सामान्य बातचीत में भी अपशब्दों का प्रयोग आम होता जा रहा है। यह प्रवृत्ति न केवल भाषा को दूषित कर रही है, बल्कि हमारे सामाजिक व्यवहार और रिश्तों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है।   

इसके कई कारण हैं, जैसे:

  • सामूहिक संस्कृति और प्रभाव: आजकल मित्र मंडलियों में अपशब्दों का प्रयोग “मस्ती” और “बोल्डनेस” का प्रतीक बन गया है। जब कोई व्यक्ति देखता है कि उसके दोस्त गालियों का प्रयोग कर रहे हैं, तो वह भी उसी व्यवहार को अपनाने लगता है, चाहे वह शुरू में असहज ही क्यो न हो।
  • मनोरंजन माध्यमों का प्रभाव: फिल्में, वेब सीरीज़, कॉमेडी शोज़ और सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो में गालियों और अशिष्ट भाषा का खुलेआम उपयोग होता है। इन माध्यमों ने इस भाषा को “हास्य” या “रियलिज्म” के नाम पर मान्यता दे दी है, जिससे युवा पीढ़ी इसे सही मानने लगी है।
  • “कूल” और बिंदास दिखने की होड़: कई युवाओं को लगता है कि गाली-गलौज करने से वे ज्यादा ‘फ्रैंक’, ‘बिंदास’ और ‘आधुनिक’ दिखते हैं। यह सोच पूरी तरह से भ्रमित है, लेकिन सोशल मीडिया की लाइक्स और व्यूज़ की संस्कृति ने इसे बढ़ावा दिया है।
  • संवेदनशीलता में कमी: आज के दौर में दूसरों की भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता घट रही है। “ये तो मज़ाक था”, “सीरियस मत हो” जैसे जुमले कहकर लोग गाली और अपमान को भी सामान्य ठहराने लगे हैं।
  • शब्द संपदा की कमी: जब लोगों के पास भाव प्रकट के लिए उचित शब्द नहीं होते,कौशल की गिरावट को दर्शाता है।

इसका यह दुष्प्रभाव दिखता है की गरिमा घटती है। बच्चों और किशोरों के सामने यह गलत आदर्श बनता है। रिश्तों में सम्मान और मर्यादा खत्म होती है। समाज में आक्रोश, असंवेदनशीलता और असभ्यता बढ़ती है।

इस सब से बचने के लिए स्वयं जागरूक बनें:

  • हमें अपने बोलचाल में संयम और मर्यादा लानी होगी।
  • मित्रों के बीच सकारात्मक भाषा को बढ़ावा दें: यह एक-दूसरे को सम्मान देने की संस्कति बनाएगा।
  • मनोरंजन माध्यमों में सुधारः अपशब्दों के विरुद्ध सामूहिकविरोध और जागरूकता ज़रूरी है।
  • शब्द ज्ञान बढ़ाएं: भाषा में विविधता और समृद्धि लाकर हम संवाद को बेहतर बना सकते हैं।
  • शिक्षा प्रणाली में नैतिक शिक्षा को सशक्त करें: विद्यालयों में भाषा की मर्यादा और संवेदनशीलता की शिक्षा दी जाए।

हालांकि हंसी-मजाक, मित्रता और खुलापन हमारी सामाजिकता के महत्वपूर्ण आयाम हैं, लेकिन इनका मतलब यह नहीं कि भाषा की मर्यादा को भुला दिया जाए। शब्दों का चयन हमारी परिपक्वता और संस्कृति का परिचायक होता है। हमें यह समझना होगा कि गालियों के बिना भी हम हास्य कर सकते हैं, दोस्ती निभा सकते हैं और आत्म-अभिव्यक्ति कर सकते हैं। भाषा को गाली मुक्त बनाना केवल भाषा की शुद्धता का कार्य नहीं, बल्कि समाज को अधिक सभ्य और संवेदनशील बनाने की दिशा में एक कदम है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में भाषा, बोली और सांस्कृतिक व्यवहार हर क्षेत्र में अलग-अलग होते हैं। गाली-गलौज या अपशब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति भी इसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सामाजिक परिवेश और स्थानीय भाषायी शैली से जुड़ी होती है।

इस संदर्भ में किसी भी राज्य या प्रांत को सीधे “गाली ज्यादा देने वाला” कह देना पूर्वाग्रहपूर्ण और सामाजिक रूप से अनुचित होगा, लेकिन कुछ क्षेत्रों में स्थानीय बोलचाल में गालियों का इस्तेमाल अधिक सामान्यीकृत और सांस्कृतिक रूप से ‘स्वीकृत’ होता है खासकर दोस्तों, रिश्तेदारों या आम बातचीत में। इसका यह अर्थ नहीं कि वे लोग असभ्य हैं, बल्कि यह वहां की भाषा का एक अनौपचारिक, हँसमुख या भावुक पहलू हो सकता है।

प्रांतवार गाली-प्रयोग की सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ:

  • उत्तर प्रदेश और बिहार: इन राज्यों की बोलियों (जैसे भोजपुरी, अवधी, मैथिली) में गालियाँ कभी-कभी भावन्नपक प्रतिक्रिया, मजाक या गुस्से के स्वाभाविक रूप तौर पर इस्तेमाल होती हैं। गाँवों और कस्बों में ‘गाली’ एक भावनात्मक वाचिक शैली मानी जाती है, और कई बार यह अपमानजनक नहीं, बल्कि आत्मीयता दिखाने का तरीका होती है।
  • हरियाणा और पंजाब: हरियाणवी और पंजाबी भाषा में कुछ शब्द गाली जैसे लगते हैं, लेकिन वहां वे हास्य, दोस्ती, या कसक भरी बात के रूप में बोले जाते हैं। विशेषकर हरियाणवी फिल्मों और सोशल मीडिया वीडियो में यह शैली प्रचलित हो गई है।
  • राजस्थान: यहाँ गालियाँ कभी-कभी लोकरंजक शैली (लोकगीत, ढोलक पर गीत आदि) में आती हैं, लेकिन आम बोलचाल में इतनी कठोर नहीं होतीं।
  • दिल्ली और शहरी उत्तर भारत: ‌दिल्ली जैसे महानगरों में, जहाँ भाषायी विविधता अधिक है, वहाँ अंग्रेज़ी और हिंदी के मिश्रण में गालियाँ आम बातचीत का हिस्सा बनती जा रही हैं, विशेषकर युवा वर्ग में।
  • महाराष्ट्र, गुजरात, दक्षिण भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश) इन राज्यों में भी गालियाँ दी जाती हैं, परंतु वहां की सामाजिक संस्कृति अधिक अनुशासित और औपचारिक है। इन क्षेत्रों में सार्वजनिक या पारिवारिक स्थानों पर गाली देना आम नहीं है और इसे असभ्यता माना जाता है।

गाली की परिभाषा और तीव्रता क्षेत्र विशेष के अनुसार बदलती है। कई बार जो एक क्षेत्र में अपशब्द माना जाता है, वह दूसरे में सामान्य होता है। लोककला, फिल्मों और सोशल मीडिया ने कुछ क्षेत्रों में गाली के प्रयोग को ग्लैमराइज किया है। गाली के प्रयोग को ग्लैमराइज किया है। गाली-गलौज का प्रयोग पूरे देश में किसी न किसी रूप में होता है, लेकिन उसका स्वरूप, उद्देश्य और सामाजिक स्वीकार्यता हर राज्य में अलग होती है। उत्तर भारत के कुछ राज्यों (जैसे यूपी, बिहार, हरियाणा) में यह ज्यादा “सामान्यीकृत” लग सकती है, जबकि दक्षिण और पश्चिम भारत में अपेक्षाकृत कम सार्वजनिक प्रयोग होता है। किसी भी राज्य या समुदाय को केवल गाली के आधार पर आंकना अनुचित और भ्रामक है। भाषा की गरिमा और सांस्कृतिक समझ दोनों साथ चलनी चाहिए। गाली और अपशब्दों का प्रयोग अक्सर गुस्से, फ्रस्ट्रेशन और असहिष्णुता की भावना से जुड़ा होता है। जब हम गाली और अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो यह हमारे आसपास के लोगों को भी प्रभावित कर सकता है और उन्हें भी नकारात्मक भावनाओं की ओर ले जा सकता है।

इस समस्या का समाधान करने के लिए, हमें अपने शब्दों का चयन करने और उन्हें सकारात्मक तरीके से उपयोग करने की आवश्यकता है। हमें अपने गुस्से और फ्रस्ट्रेशन को स्वस्थ तरीके से प्रबंधित करने की आवश्यकता है, जैसे कि व्यायाम, ध्यान या संगीत के माध्यम से। इसके अलावा, हमें अपने समाज में सकारात्मक भाषा और संचार को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। हमें अपने बच्चों को सकारात्मक भाषा का उपयोग करने के लिए प्रेरित करना चाहिए और उन्हें सिखाना चाहिए कि कैसे अपने शब्दों का चयन करना है और उन्हें सकारात्मक तरीके से उपयोग करना है।

इस समस्या के समाधान के लिए शब्द स्वच्छता अभियान एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है जिससे हम अपने शब्दों को स्वच्छ और सकारात्मक बना सकते हैं। यह अभियान न केवल हमारे समाज में सकारात्मकता को बढ़ावा दे सकता है, बल्कि यह हमारे शब्दों के प्रभाव को भी समझने में मदद कर सकता है। शब्द स्वच्छता अभियान के माध्यम से, हम अपने शब्दों को चुनने और उनका उपयोग करने के तरीके को बदल सकते हैं। हम नकारात्मक और अपमानजनक शब्दों का उपयोग कम कर सकते हैं और सकारात्मक और प्रेरक शब्दों का उपयोग बढ़ा सकते हैं। यह अभियान हमें अपने शब्दों के प्रभाव को समझने और उन्हें सकारात्मक तरीके से उपयोग करने के लिए प्रेरित कर सकता है। इससे हमारे समाज में सकारात्मकता और सौहार्द को बढ़ावा मिल सकता है।

शब्दों की सफाई भी उतनी ही
 जरूरी है जितनी घर और गली की।
एक साफ़ जुबान, समाज में सौ 
गुना ज़्यादा बदलाव ला सकती है।।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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