प्रकृति पुकार रही हैः अब संरक्षण नहीं, सहभागिता चाहिए

-विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस- 28 जुलाई, 2025-

हर वर्ष 28 जुलाई को मनाया जाने वाला विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस हमें प्रकृति, पर्यावरण एवं सृष्टि के संतुलन एवं संरक्षण के लिये प्रेरित करता है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व को उजागर करते हुए यह दिन हमें प्रकृति के साथ अपने संबंधों पर विचार करने और एक स्थायी भविष्य की दिशा में कदम उठाने का आग्रह करता है। यह इस बात को मान्यता देता है कि एक स्वस्थ एवं संतुलित समाज की नींव ही एक स्वस्थ पर्यावरण है। हम प्रकृति के केवल उपयोगकर्ता नहीं, बल्कि उसके संरक्षक भी हैं। इस दिवस की वर्ष 2025 की थीम-प्रकृति के साथ सामंजस्य पुनर्स्थापित करें, पुनर्जीवित करें, पुनःकल्पना करें’ है जो न केवल हमारे पर्यावरणीय कर्तव्यों को रेखांकित करती है, बल्कि यह एक गंभीर चेतावनी भी है कि यदि हम अब भी नहीं जागे, तो प्रकृति हमें अपने ढंग से जगाएगी और तब यह जागरण महंगा पड़ सकता है।

थीम के अनुरूप ‘पुनर्स्थापित’ करना यानी प्रकृति को उसकी मूल अवस्था में लाना, ‘पुनर्जीवित’ यानी मृत या निष्क्रिय हो चुकी प्राकृतिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करना और ‘पुनःकल्पना’ यानी एक ऐसे भविष्य की कल्पना करना जो सतत विकास, हरित ऊर्जा और मानव-प्रकृति सह-अस्तित्व पर आधारित हो। इस थीम का सार यह है कि हम केवल ‘मदद’ नहीं कर रहे, बल्कि प्रकृति के प्रति अपने दायित्वों को निभा रहे हैं, क्योंकि हमारी जीवनशैली ही प्राकृतिक संसाधनों की सबसे बड़ी उपभोक्ता रही है।

वर्तमान युग में औद्योगीकरण, अंधाधुंध शहरीकरण, वनों की कटाई, जल और वायु प्रदूषण, प्लास्टिक का अत्यधिक उपयोग और जलवायु परिवर्तन ने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ दिया है। हर साल लाखों एकड़ वन समाप्त हो जाते हैं, सैकड़ों प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं और प्राकृतिक आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं। यह स्थिति न केवल जैव विविधता को नष्ट कर रही है, बल्कि मानव अस्तित्व पर भी सीधा खतरा बन चुकी है। भारत की प्रकृति चुनौतियां गंभीर है, एक चिन्ता है, एक संकट है, लगता है जैसे कुछ अधूरा है। क्योंकि आप न खुली साफ हवा में अपनी मर्जी से सांस ले सकते हैं और न पीने को शुद्ध जल प्राप्त कर सकते हैं। 2000वीं संसदीय रिपोर्ट बताती है कि भारत में करोड़ों लोग अभी भी स्वच्छ जल से वंचित हैं। रसायनयुक्त कृषि, प्लास्टिक प्रदूषण, माइनिंग प्रेरित जल प्रदूषण-इनसे नदियां, तालाब, भूजल, प्रकृति सभी दूषित हो रहे हैं।

सतत जल सुरक्षा का अर्थ है हर परिवार को शुद्ध, पर्याप्त और सुलभ पानी मिलना चाहिए। शुद्ध हवा व शुद्ध जल कैंसर, हृदय-पक्षाघात, संक्रामक और पुरानी बीमारियों को रोकते हैं। स्वस्थ जीवनशैली और निरोगी समाज अर्थव्यवस्था के लिए उपजाऊ है। जीवन के तीन आधार तत्व हैं-हवा, पानी और धरती है। प्रकृति संरक्षा न केवल हमारी अस्तित्व-निर्भरता से जुड़ी है, बल्कि मानवता की नैतिक जिम्मेदारी भी है। आज का युग, जिस तेज़ी से विकसित हो रहा है, उसी भागदौड़ में प्रकृति पर तरह-तरह के आघात हो रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध, हमाम-इजरायल युद्ध, थाईलैंड- कंबोडिया युद्ध, दिल्ली का उच्च प्रदूषण सूचकांक, अमेरिका के जंगलों की धुएं से गंदली हवा, बढ़ता वाहन प्रदूषण-ये सब संकेत देते हैं कि प्रकृति दूषित हो रही है, क्रंदन कर रही है।

भारत एक समृद्ध जैव-विविधता वाला देश है, लेकिन यहां भी वनों की कटाई, नदियों का प्रदूषण, और ग्लेशियरों का पिघलना चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है। हाल ही में उत्तराखंड, हिमाचल और पूर्वाेत्तर राज्यों में आई जलवायु आपदाएं स्पष्ट संकेत हैं कि प्रकृति अब चेतावनी दे रही है। पर्यावरण संरक्षण केवल सरकारों या संगठनों की जिम्मेदारी नहीं, हर नागरिक का कर्तव्य है। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की रक्षा करके हम वास्तव में अपने भविष्य की रक्षा कर रहे हैं। प्रकृति संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए हमें सतत विकास को प्राथमिकता देनी होगी, जिसमें पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था में संतुलन बना रहे। पुनःवनीकरण और वृक्षारोपण को एक राष्ट्रीय अभियान बनाना होगा। सिंगल यूज प्लास्टिक को समाप्त करने के लिए सख्त कदम उठाने होंगे। स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों की सुरक्षा-जैसे जल स्रोत, जैव विविधता, मिट्टी की उर्वरता, हरित ऊर्जा- जैसे सौर और पवन ऊर्जा को प्रोत्साहन देना होगा। बच्चों और युवाओं में पर्यावरणीय चेतना विकसित करनी होगी।

प्रकृति एवं पर्यावरण की उपेक्षा के कारण विकास वरदान नहीं अभिशाप बन रहा है। वायु प्रदूषण जानलेवा साबित हो रहा है, गंगा-यमुना प्रदूषित हो चुकी है, जनता को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है, सड़के गड्डों में तब्दील हो चुकी है। वनों का विनाश हो रहा है, पहाड बिखर रहे हैं, जहरीली हवा एवं वायु प्रदूषण से उत्पन्न दमघोटू माहौल का संकट जीवन का संकट बनने लगा हैं और जहरीली होती हवा सांसों पर भारी पड़ने लगी है। एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी एक्यूआइ बहुत खराब की श्रेणी में पहुंच चुका है। दिल्ली के साथ देश के अन्य महानगारों की आबोहवा भी बच्चों और बुजुर्गों के लिए विशेष रूप से खतरनाक है। महानगरों की हवा में उच्च सांद्रता है, जो बच्चों को सांस की बीमारी और हृदय रोगों की तरफ धकेल रही है। शोध एवं अध्ययन में यह भी पाया गया है कि यहां रहने वाले 75.4 फीसदी बच्चों को घुटन महसूस होती है।

24.2 फीसदी बच्चों की आंखों में खुजली की शिकायत होती है। सर्दियों में बच्चों को खांसी की शिकायत भी होती है। बुजुर्गों का स्वास्थ्य तो बहुत ज्यादा प्रभावित होता ही है। सर्दियों के मौसम में हवा में घातक धातुएं होती हैं, जिससे सांस लेने में दिक्कत आती है। हवा में कैडमियम और आर्सेनिक की मात्रा में वृद्धि से कैंसर, गुर्दे की समस्या और उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोगों का खतरा बढ़ जाता है।

दुनिया भर में 2.2 बिलियन लोगों के पास सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल तक पहुंच नहीं है। आज जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पहले से कहीं अधिक तेजी से पिघल रहे हैं। अरबों लोगों के लिए पिघले पानी का प्रवाह बदल रहा है, जिससे बाढ़, सूखा, भूस्खलन और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। अनगिनत समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र विनाश के खतरे में हैं। कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक कटौती तथा सिकुड़ते ग्लेशियरों के अनुकूलन के लिए स्थानीय रणनीतियां आवश्यक हैं। दुनिया की आबादी आठ अरब से अधिक हो चुकी है। इसमें से लगभग आधे लोगों को साल में कम से कम एक महीने पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण 2000 से बाढ़ की घटनाओं में 134 प्रतिशत वृद्धि हुई है और सूखे की अवधि में 29 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। पैकेट और बोतल बन्द पानी आज विकास के प्रतीकचिह्न बनते जा रहे हैं और अपने संसाधनों के प्रति हमारी लापरवाही अपनी मूलभूत आवश्यकता को बाजारवाद के हवाले कर देने की राह आसान कर रही है।

व्यक्तिगत पहल के रूप में प्रकृति के प्रति प्रेम को दर्शाते हुए जितना हो सके, प्राकृतिक संसाधनों का संयमित उपयोग करें। अपशिष्ट प्रबंधन, पुनः उपयोग, और रीसाइक्लिंग को अपनाएं। प्रत्येक वर्ष कम से कम एक वृक्ष लगाएं और उसका पालन करें। जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण को कम करने की कोशिश करें। प्रकृति के प्रति एक सजग, संवेदनशील और समर्पित दृष्टिकोण अपनाएं। वर्ष 2025 का यह विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस हमें प्रकृति से नया रिश्ता बनाने का अवसर देता है, एक ऐसा रिश्ता जिसमें हम उपभोगकर्ता नहीं, बल्कि संरक्षक और सहयात्री बनें। यदि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं, तो प्रकृति भी हमें जीवन, स्वास्थ्य, और समृद्धि प्रदान करेगी। प्रकृति हमारी माँ है, उसका अपमान नहीं, सम्मान करें; उसके घावों को और न बढ़ाएं, अब उन्हें मरहम दें। अब समय है पुनर्स्थापन, पुनर्जीवन और पुनःकल्पना के मंत्र को अपने जीवन में उतारने का, ताकि एक हरित, सुरक्षित और सुंदर पृथ्वी आने वाली पीढ़ियों को विरासत में दी जा सके। इसके लिये हर राजनीतिक दल एवं सरकारों को संवेदनशील एवं अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न बनना होगा।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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