टैरिफ दादागिरी के बीच ‘स्वदेशी’ एक जनक्रांति बने

वाराणसी में अपने लोकसभा क्षेत्र से एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों का आह्वान किया है कि वे संकल्प लें कि अपने घर स्वदेशी सामान ही लाएंगे। उनका यह आह्वान न केवल राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘दबाव की राजनीति’ और ‘टैरिफ की दादागिरी’ का माकूल जबाव है बल्कि भारत को सशक्त अर्थ-व्यवस्था बनाने की बुनियाद भी है। मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का आह्वान इसी सोच के साथ किया है। उन्होंने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि भारत को ‘लोकल के लिए वोकल’ बनना होगा। यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक गहन आर्थिक और सांस्कृतिक रणनीति है जो हमें बाहरी निर्भरता से मुक्त कर सकती है। यह वही आत्मनिर्भरता है, जिसका बीजारोपण महात्मा गांधी ने चरखे और खादी के माध्यम से किया था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वदेशी जागरण के माध्यम से कर रहा है।

डोनाल्ड ट्रंप की बौखलाहट का ही परिणाम है कि उन्होंने दुनिया की तीसरी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर भारत की अर्थव्यवस्था को ‘मृत अर्थव्यवस्था” तक कह दिया, उनका यह कहना न केवल तथ्यहीन और निराधार है, बल्कि भारत की आर्थिक संप्रभुता पर एक असभ्य एवं अक्षम्य आक्षेप भी है। इससे भी अधिक विडंबनापूर्ण और चिंताजनक बात यह है कि भारत के कुछ विपक्षी दलों ने इस अपमानजनक बयान को घरेलू राजनीति की ‘ऑक्सीजन’ मानकर इसे आंतरिक राजनीति का हथियार बनाकर न केवल प्रचारित किया, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उसका समर्थन भी किया। अक्सर विपक्षी दल देशविरोधी नैरेटिव को बढ़ावा देने में जुट जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि राजनीतिक असहमति लोकतंत्र का अंग हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता पर आघात के समय एकजुटता ही राष्ट्रवाद की पहचान होती है।

यह वही देशविरोधी मानसिकता है जो विदेशी मंचों पर देश की छवि को चोट पहुंचाती है और राजनीतिक स्वार्थों एवं मतभेदों को राष्ट्रीय स्वाभिमान से ऊपर रखती है। भारत की अर्थव्यवस्था को जिस तरह ट्रंप ने ‘मृतप्राय’ कहा, वह न केवल मौजूदा आर्थिक तथ्यों की अवहेलना है, बल्कि भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव को दबाने का एक रणनीतिक षडयंत्र भी है। आईएमएफ, विश्व बैंक और  ओईसीडी जैसी प्रतिष्ठित संस्थाएं भी लगातार यह संकेत देती रही हैं कि भारत विश्व की सबसे तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इंडिया जैसी पहलों के चलते भारत की अर्थव्यवस्था ने कोरोना महामारी के बाद जिस गति से पुनरुत्थान किया है, वह अनेक विकसित देशों के लिए भी उदाहरण है। सच्चाई यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था न तो मृत है, न ही दिशाहीन।

हां, चुनौतियां हैं, बेरोजगारी, महंगाई, आय असमानता, लेकिन इनसे जूझते हुए भारत आत्मनिर्भरता और नवाचार की दिशा में उल्लेखनीय कदम उठा रहा है। वैश्विक मंचों पर भारत की वाणी अब कमजोर नहीं, बल्कि दृढ़ता और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसे समय में जब अमेरिका जैसे देश एकतरफा फैसलों से वैश्विक व्यापार संतुलन को तोड़ने पर आमादा हैं, तब भारत को अपनी आत्मनिर्भरता और स्वदेशी के मंत्र को एक संकल्प बनाकर व्यवहार में लाना होगा। अमेरिका हो या चीन, आर्थिक नीतियों में नैतिकता नहीं, स्वार्थ ही केंद्र में रहता है। इसीलिए भारत को अब यह समझना होगा कि केवल आयात पर निर्भर रहकर हम अपनी आर्थिक सुरक्षा नहीं कर सकते। जब तक हम उत्पादन, निर्माण और उपभोग के क्षेत्र में स्वदेशी विकल्प नहीं अपनाते, तब तक हम इस टैरिफ आतंकवाद और वैश्विक अस्थिरता के शिकार बने रहेंगे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वदेशी जागरण मंच वर्षों से यह बात दोहराते रहे हैं कि भारत की आर्थिक समृद्धि का मूल मंत्र ‘स्वदेशी’ है। यह विचार केवल देसी वस्तुओं के प्रयोग तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका तात्पर्य है, स्वदेशी संसाधनों, तकनीकों, कौशल और संस्कृति के आधार पर विकास का रास्ता तय करना। भारत का आर्थिक इतिहास इसका साक्षी है कि जब-जब देश ने अपनी आंतरिक क्षमताओं पर विश्वास किया, तब-तब उसने वैश्विक मंच पर अपना प्रभुत्व सिद्ध किया। चाहे दूध उत्पादन में श्वेत क्रांति हो, अंतरिक्ष में इसरो की सफलताएं हों या कोविड काल में स्वदेशी वैक्सीन बनाना, भारत ने दिखाया है कि वह किसी से कम नहीं। स्वदेशी का मंत्र सिर्फ ‘यहां बनाएं’ तक सीमित नहीं है, यह ‘यहां के लोगों द्वारा, यहां की सोच के साथ’ बनाया गया भारत है। प्रधानमंत्री मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ अभियान अब ‘मेड बाय इंडिया’ की दिशा में अग्रसर हो रहा है। भारत को ऐसी आर्थिक संरचना बनानी होगी जिसमें विदेशी पूंजी या तकनीक की बजाय स्वदेशी नवाचार, स्वदेशी उद्योग, और स्वदेशी उद्यमिता को बल मिले। इस संदर्भ में सरकार को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि जो नीतियां बनें, वे स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने वाली हों, न कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लॉबी के दबाव में चलने वाली।

आज का समय वैसा ही है जैसा 1905 में बंग-भंग आंदोलन के समय था, जब बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष जैसे क्रांतिकारियों ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। आज फिर एक नई क्रांति की जरूरत है, लेकिन यह क्रांति फैक्ट्रियों में, बाजारों में, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर लड़ी जाएगी। हमारे युवाओं को चाहिए कि वे स्टार्टअप, इनोवेशन और तकनीकी प्रयोगों में विदेशी नकल न करें, बल्कि भारतीय ज़रूरतों और मूल्यों के अनुरूप नए समाधान विकसित करें। यही आत्मनिर्भर भारत की आत्मा है। हर भारतीय को यह समझना होगा कि जब वह विदेशी मोबाइल, ब्रांडेड कपड़े, या चीनी उत्पाद खरीदता है, तो वह सिर्फ एक उत्पाद नहीं ले रहा, बल्कि वह अपने देश के एक कारीगर, किसान या उद्यमी से रोज़ी-रोटी छीन रहा है। अब समय है कि उपभोक्ता भी जिम्मेदार बने। स्वदेशी उपभोग सिर्फ एक विकल्प नहीं, बल्कि देशभक्ति का आधुनिक रूप है।

आज जब वैश्विक पूंजीवाद लड़खड़ा रहा है और पश्चिमी देशों की नीतियों में आत्मकेंद्रितता हावी हो रही है, भारत को अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक और बौद्धिक जड़ों की ओर लौटना ही होगा। यही समय है जब ‘स्वदेशी’ एक आंदोलन बने, एक जनक्रांति बने और एक ऐसी नई अर्थव्यवस्था की नींव डाले जो टिकाऊ, समावेशी और पूर्णतः आत्मनिर्भर हो। प्रधानमंत्री मोदी ने जो स्वदेशी का दीप जलाया है, वह केवल सरकार का काम नहीं, यह हम सभी का नैतिक, राष्ट्रीय और आत्मिक दायित्व है। तभी हम न केवल ट्रंप जैसी टैरिफ दादागिरी का जवाब दे पाएंगे, बल्कि एक सशक्त, सम्मानित और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण कर सकेंगे, अपने स्वेद, अपने स्वप्न और अपने स्वदेश के बल पर।

वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में यह आवश्यक हो गया है कि देश की आलोचना के नाम पर विदेशी अपमान का समर्थन करने की प्रवृत्ति का जनतांत्रिक रूप से विरोध हो। लोकतंत्र की सच्ची परिपक्वता यही है कि सरकार की आलोचना करते हुए भी हम राष्ट्र की प्रतिष्ठा और आत्मगौरव की रक्षा करें। जब तक भारत के भीतर से ही भारत की आवाज़ कमजोर की जाएगी, तब तक ट्रंप जैसे बाहरी ‘टैरिफ तानाशाहों’ को हमारे आत्मबल पर वार करने का साहस मिलता रहेगा। यदि हमारी अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर होगी तो फिर कोई वैश्विक नेता दबाव बनाकर हमारी विदेश व आर्थिक नीतियों को प्रभावित न कर सकेगा। विडंबना यह है कि चीन के लगातार शत्रुतापूर्ण व्यवहार व सीमा पर तनाव के बावजूद चीनी उत्पादों का आयात बढ़ता ही जा रहा है। यहां तक कि हमारे त्योहारों का सामान भी चीन से बनकर आ रहा है।

जरूरत इस बात की भी है कि हम अपने विशाल असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र में शामिल करने के लिये प्रयास करें। हम याद रखें कि चीन ने अपने देश में लघु उद्योगों को संगठित करके ही दुनिया में उत्पादन के क्षेत्र में बादशाहत हासिल की है। विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत को अपनी युवा आबादी की क्षमता का उपयोग करने के लिये इस दिशा में बड़ी पहल करनी होगी। हमारा शिक्षा का ढांचा इस तरह तैयार हो कि हम कौशल विकास को अपनी प्राथमिकता बनाएं। जिससे हम कालांतर कृत्रिम बुद्धिमत्ता और आधुनिक तकनीक का उपयोग उत्पादन बढ़ाने के लिये कर सकें। तब स्वदेशी के संकल्प से भारत न केवल आत्मनिर्भर होगा, बल्कि हम गुणवत्तापूर्ण निर्यात के जरिये अपने दुर्लभ विदेशी मुद्रा भंडार को भी समृद्ध कर सकेंगे।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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