रोमांचक घटना
बस पूरी रफ्तार से दौड़ी चली रही थी, बस के अंदर बैठे मेरे विचारों की रफ्तार भी ठीक उसी रफ्तार से तेज दौड़ रही थी। मेरे विचारों में उमड़ घुमड़कर विचारों का रेला चल रहा था। मुझे परिवार की ओर से एक अति महत्वपूर्ण कार्य के लिए अंबिकापुर भेजा जा रहा था। जो बड़ी बहन के वैवाहिक रिश्ते से संबंधित था। उस कार्य का पूरा दारोमदार मेरे वहां जाने के बाद और वहां की पूरी परिस्थितियों को देखने समझने के बाद, मेरी जो भी जानकारी होती फिर उस पर मेरी जो भी राय होती उस पर आगे का निर्णय परिवार द्वारा लिया जाना था। और यही वह कारण था जिसके लिए मैं कहीं ना कहीं चिंतित और विचारों के रेलों में पड़ गया था।
मन में सोच विचार चल रहा था कि मेरे ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और इस जिम्मेदारी पर सही और खरा उतर पाऊंगा या नहीं..? फिर दूसरी चिंता की वजह यह भी थी कि मैं इतनी दूर अंबिकापुर पहली बार जा रहा था तो स्वाभाविक है मुझे अंबिकापुर शहर के कोई जानकारी नहीं होने से वहाँ घर खोजने की चिंता और वे सब लोग मुझसे कैसे पेश आएंगे उनका घर भी मुझे आसानी से मिल पाएगा कि नहीं? बस इन्ही ख्यालों में दिमाग उलझा हुआ था।
यह सन 1988 के 5 जुलाई का दिन था। मैं आज ही सुबह भोर की छह बजे वाली गायत्री बस सर्विस में बैठकर अंबिकापुर के लिए निकला हुआ था। अभी रतनपुर ही पहुंचा था। यह बस उन दिनों रतनपुर कटघोरा मोरगा उदयपुर लखनपुर होते हुए अंबिकापुर पहुंचती थी। वैसे भी उन दिनों जर्जर, उबड़ खाबड़ सड़क होने से बसें बिलासपुर से अंबिकापुर पहुंचने में काफी समय लेतीं थी। इसलिए सफर में देर हो जाया करती थी। उन दिनों दो सौ चालीस किमी का सफर पूरा तय करने में आमतौर पर बसों को करीब आठ घंटे लगते थे। हालांकि उन दिनों इस सड़क की दूरी अधिक भी थी। अब यही सड़क हाईवे रोड बन जाने से केवल इसकी दूरी केवल दो सौ बाईस किमी ही रह गई है।
करीब साढ़े तीन घंटे में बस कटघोरा बस स्टैंड पर पहुंच गई,फिर वहां से दस मिनट बाद बस छूट कर आगे गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। कटघोरा से करीब साठ कि मी आगे पहुंचने पर छत्तीसगढ़ प्रदेश की एक प्रमुख नदी हसदेव नदी के पार जाने के लिए हमारी बस पुल के पास जब पहुंची,तब हम सभी यात्रियों ने देखा कि कुछेक बसों के आलावा अन्य वाहन भी साइड में कतारोँ में लगे हुए हैं। हमारी बस के ड्राइवर ने भी वाहनों की कतारें और किसी अन्य वाहन को आगे न जाते देखकर बस को सड़क के किनारे लगा दिया।

