निराशा से आशा की ओरः आत्महत्या के खिलाफ जंग

विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस – 10 सितम्बर, 2025

दुनिया में आत्महत्या आज एक गहरी एवं विडम्बनापूर्ण वैश्विक चुनौती बन चुकी है। हर साल लाखों लोग अपनी ही जिंदगी से हार मान लेते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल लगभग 7.2 लाख लोग आत्महत्या करते हैं। यह सिर्फ व्यक्तिगत त्रासदी नहीं बल्कि सामाजिक, भावनात्मक और आर्थिक संकट भी है। 15 से 29 वर्ष की आयु वर्ग में मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है। यही वजह है कि हर साल 10 सितंबर को विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है। 2024 से 2026 तक इसकी थीम “चेंजिंग द नैरेटिव ऑन सुसाइड” रखी गई है, जिसका उद्देश्य है आत्महत्या पर खामोशी तोड़कर इसे एक निष्क्रिय विषय से संवाद और सहयोग का सक्रिय विषय बनाना।

आत्महत्या पर दृष्टिकोण का यह बदलाव आत्महत्या के बारे में लोगों की सोच और बातचीत के तरीके को चुनौती देता है, खुले और ईमानदार संवाद को बढ़ावा देता है जो कलंक को तोड़ता है और समझ को बढ़ावा देता है। आत्महत्या के अलावा जीवन में और भी बेहतर विकल्प हैं। इसके अलावा एक ऐसी समाज-व्यवस्था को बढ़ावा देना है जहां लोग मदद लेने में हिचहिचाए नहीं, बल्कि एक-दूसरे के सहयोग के लिये आगे आये। निश्चित रूप से खुदकुशी सबसे तकलीफदेह हालात के सामने हार जाने का नतीजा होती है और ऐसा फैसला करने वालों के भीतर वंचना का अहसास, उससे उपजे तनाव, दबाव और दुख का अंदाजा लगा पाना दूसरों के लिए मुमकिन नहीं है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है।

आत्महत्या जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है, यह मनुष्य होने के अर्थ और गरिमा को धूमिल करती है। जब जीवन जीने का साहस कमज़ोर पड़ता है तो व्यक्ति निराशा और अंधकार में डूबकर स्वयं को समाप्त करने की ओर बढ़ता है। वैश्विक स्तर पर यह एक गंभीर समस्या है, दुनिया भर से आते नए आंकड़े इस चुनौती की गंभीरता को और उजागर करते हैं। 2021 में अनुमानित 7.27 लाख आत्महत्याएं हुईं और विश्व में हर 43 सेकेंड में कोई एक व्यक्ति खुदकुशी कर रहा है। 73 प्रतिशत आत्महत्याएं निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में होती हैं और सबसे अधिक असर युवा और गृहिणियों पर पड़ता है। भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि आत्महत्या करने वाली महिलाओं में 51.5 प्रतिशत गृहिणियां थीं। आत्महत्या की दर दो दशकों में 7.9 से बढ़कर 10.3 प्रति एक लाख हो गई है। उत्तराखंड जैसे राज्यों में पारिवारिक कलह आत्महत्या का बड़ा कारण है। युवा वर्ग की महत्वाकांक्षा क्षमता से अधिक हो चुकी है, पारिवारिक सामंजस्य खत्म हो गया है, असफलता का डर और तनाव सहने की क्षमता कम हो गई है। यही कारण है कि पढ़ाई के दबाव, नौकरी में असफलता, रिश्तों के टूटने और आर्थिक अभाव से युवा और किशोर आत्महत्या की ओर धकेले जा रहे हैं।

भारत में स्थिति और भी चिंताजनक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में 1,70,924 आत्महत्याएं दर्ज की गईं, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है और आत्महत्या दर 12.4 प्रति लाख जनसंख्या रही। यह दर पिछले वर्षों की तुलना में सर्वाधिक है। इनमें 18 से 45 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या दो-तिहाई से अधिक है, जो दर्शाता है कि देश का युवा और कार्यशील वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित है। राज्यवार आंकड़े भी चिंताजनक हैं-सिक्किम में आत्महत्या दर लगभग 43 प्रति लाख रही जबकि बिहार में यह 1 से भी कम है। आत्महत्या के पीछे अनेक सामाजिक, आर्थिक और मानसिक कारण जुड़े हुए हैं। बेरोज़गारी, गरीबी, पारिवारिक कलह, असफल प्रेम, नशे की लत और बीमारियां इसका बड़ा कारण बन रही हैं। मानसिक रोग और अवसाद ने इस समस्या को और गहरा किया है।

एनसीआरबी के अनुसार 2018 से 2022 के बीच मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कारणों से आत्महत्या के मामलों में 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2022 के आँकड़े बताते हैं कि आत्महत्या के प्रमुख कारणों में 33 प्रतिशत मामले पारिवारिक समस्याओं से जुड़े थे, लगभग 19 प्रतिशत मामले बीमारियों के कारण हुए, जबकि 6-7 प्रतिशत मामले विवाह सम्बन्धी समस्याओं और 6 प्रतिशत मामले ऋण और कर्ज़ से संबंधित थे। छात्र आत्महत्या का आंकड़ा भी बड़ा चिंताजनक है-2022 में यह कुल आत्महत्याओं का 7.6 प्रतिशत रहा। वैश्विक स्तर पर भी स्थिति गंभीर है, परंतु भारत में यह और ज्यादा जटिल इसलिए है क्योंकि यहां सामाजिक प्रतिस्पर्धा, उपभोक्तावादी जीवनशैली, परिवार का टूटता हुआ ढांचा और आर्थिक असमानता आत्महत्या की प्रवृत्ति को तेज़ कर रही है। आत्महत्या केवल एक जीवन का अंत नहीं है, बल्कि यह एक पूरे परिवार और समाज की आशाओं का विघटन है।

इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए केवल व्यक्तिगत प्रयास पर्याप्त नहीं हैं बल्कि समाज और सरकार दोनों को संयुक्त रूप से कार्य करना होगा। भारत सरकार ने 2017 में मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम पारित करके आत्महत्या प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर किया और 2020 में ‘किरण’ नामक राष्ट्रीय हेल्पलाइन शुरू की जो 13 भाषाओं में चौबीसों घंटे सहायता उपलब्ध कराती है। 2022 में राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति बनाई गई जिसका लक्ष्य 2030 तक आत्महत्या दर में 10 प्रतिशत की कमी लाना है। इसमें मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, परामर्श केंद्रों की स्थापना, रोजगार सृजन, परिवारिक संवाद को मजबूत करना, मीडिया की संवेदनशीलता और सामाजिक सहयोग जैसे उपायों पर जोर दिया गया है। साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं और हेल्पलाइन सेवाओं-जैसे आसरा, वंद्रेवाला, समैरिटन्स मुंबई-की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। आत्महत्या को रोकने का सबसे बड़ा उपाय यही है कि व्यक्ति को निराशा के अंधकार में छोड़ने के बजाय उसके जीवन में आशा, साहस और सहयोग का संचार किया जाए क्योंकि कठिनाइयों का समाधान आत्महत्या में नहीं बल्कि संघर्ष, विश्वास और सहारा देने वाले समाज में है।

दुनिया का यह दुखद सच यह भी है कि चिकित्सा विज्ञान की प्रगति से बीमारियों से मरने वालों की संख्या घटी है पर आत्महत्या के कारण मरने वालों की संख्या बढ़ी है। भौतिकवादी जीवनशैली, प्रतिस्पर्धा, अवसाद और असंतुलन ने मनुष्य को भीतर से खोखला बना दिया है। प्रसिद्ध कलाकार, जिनका सार्वजनिक जीवन में हंसता खेलता चेहरा दिखाई देता है, कभी अचानक आत्महत्या कर लेते हैं क्योंकि भीतर का अकेलापन और दबाव उन्हें जीने नहीं देता। सवाल यह है कि जिनके पास साधन और सहयोग की कमी नहीं, वे भी क्यों जिंदगी के उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त नहीं कर पाते। किसानों की आत्महत्या, आर्थिक तंगी, व्यापार में नुकसान, रिश्तों का टूटना, तलाक और अभाव की स्थिति आत्महत्या की सबसे बड़ी जड़ें हैं। समाज और परिवार का विघटन भी व्यक्ति को असहाय बना देता है।

आत्महत्या किसी भी सभ्य समाज के माथे पर कलंक है। टॉयनबी ने ठीक ही कहा है कि कोई भी संस्कृति हत्या से नहीं बल्कि आत्महत्या से मरती है। इस स्थिति को बदलना जरूरी है। सरकारों, संगठनों, समुदायों और परिवारों की जिम्मेदारी है कि वे संवाद और सहयोग की संस्कृति को बढ़ावा दें। जब कोई व्यक्ति संकट में हो तो परिवार, दोस्त, पड़ोसी और सहकर्मी उसे अकेला न छोड़ें बल्कि उसका हाथ थामें। हमें एक ऐसी सामाजिक संरचना बनानी होगी जहां मदद मांगना कमजोरी नहीं बल्कि साहस माना जाए। जहां तनाव और अवसाद को गंभीरता से समझा जाए और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिले। जहां बच्चों को बचपन से ही संघर्षों से लड़ने की शिक्षा दी जाए और असफलताओं को जीवन का हिस्सा समझने का दृष्टिकोण विकसित किया जाए। आत्महत्या रोकथाम दिवस हमें यही संदेश देता है कि आत्महत्या से बचा जा सकता है, संवाद और सहयोग से जीवन बदला जा सकता है, और हर व्यक्ति को नई शुरुआत का अवसर दिया जा सकता है। यह दिन हमें यह समझाने आता है कि जिंदगी कठिन जरूर है लेकिन जीने के विकल्प हमेशा मौजूद हैं।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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