घोषणा-पत्रः लोकतंत्र का सशक्त हथियार या चुनावी छलावा?

बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों ही गठबंधनों ने बढ़-चढ़कर लोकलुभावनी और जनता को आकर्षित या गुमराह करने वाली घोषणाओं से जुड़े चुनावी घोषणा पत्र जारी किए हैं। इन घोषणा पत्रों में जिस तरह की घोषणाएं की गई हैं, वे निश्चित रूप से अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। यह प्रश्न अब गंभीर हो गया है कि क्या घोषणा पत्र लोकतंत्र के महाकुंभ यानी चुनाव का सबसे सशक्त हथियार बन चुके हैं या चुनावी छलावा? निश्चित ही यह जनता को रिझाने और प्रभावित करने का प्रमुख माध्यम बन गया है, परंतु सत्ता में आने के बाद कितने राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्रों का अक्षरशः पालन किया है, यह बड़ा सवाल है। वास्तव में घोषणा पत्र किसी दल का दृष्टिपत्र होता है, जो उसके विचारों, उद्देश्यों और संकल्पों का सार्वजनिक दस्तावेज है।

घोषणा-पत्रः लोकतंत्र का सशक्त हथियार या चुनावी छलावा?

यह बताता है कि दल सत्ता में आने के बाद राज्य या देश की दिशा कैसी तय करना चाहता है, किन मूलभूत समस्याओं का समाधान करना चाहता है और विकास की कौन सी राह पर चलना चाहता है। घोषणा पत्रों में किए गए वादों को लेकर परस्पर विरोधी दलों में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो छिड़ता है, लेकिन उन्हें लेकर वैसी सार्थक बहस नहीं हो पाती, जैसी विकसित देशों में होती है और जिसके आधार पर वहां स्वस्थ जनमत तैयार करने में मदद मिलती है। हैरानी नहीं कि अपने यहां चुनावी घोषणा पत्र अपनी महत्ता खोते जा रहे हैं।

लोकतंत्र में घोषणा पत्र की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह मतदाताओं के लिए जानकारी और निर्णय का आधार बनता है। मतदाता यह जान सकते हैं कि कौन-सा दल किस विषय पर क्या सोचता है, उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं और वह किन वर्गों के कल्याण के लिए क्या योजनाएं रखता है। यह राजनीतिक दलों की जनता के प्रति सार्वजनिक प्रतिज्ञा होती है, एक तरह की जवाबदेही का प्रतीक। लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र में यह जवाबदेही सिर्फ कागजों पर ही रह गई है। अधिकांश दल चुनाव जीतने के बाद घोषणा पत्रों को भूल जाते हैं। मतदाता भी अपने वोट के बदले वादों की पूर्ति का हिसाब नहीं मांगते। परिणामस्वरूप घोषणा पत्र एक औपचारिकता और दिखावे का माध्यम बनकर रह गए हैं।

इतिहास पर नजर डालें तो अधिकांश घोषणाओं का पालन आधा-अधूरा ही हुआ है। राजस्थान में पिछली सरकार ने अपने घोषणा पत्र के लगभग 64 प्रतिशत वादे पूरे किए, जबकि कर्नाटक में सिर्फ तीन प्रतिशत वादे ही पूरे हुए। यह आंकड़े बताते हैं कि घोषणा पत्र को गंभीरता से न तो दल लेते हैं, न जनता। यह स्थिति लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि जनता अपने प्रतिनिधियों से सवाल करे और जवाब मांगे। घोषणा पत्रों की एक बड़ी समस्या यह है कि उनमें की गई घोषणाएं वित्तीय दृष्टि से असंभव होती हैं। जनता को खुश करने के लिए ऐसे वादे किए जाते हैं जिनके लिए न तो संसाधन हैं, न कोई ठोस योजना। कोई कानूनी प्रावधान भी नहीं है कि दल अपने वादे पूरे न करने पर जवाबदेह बने। यही कारण है कि चुनाव के बाद घोषणाएं भुला दी जाती हैं। बिहार चुनाव के संदर्भ में देखें तो एनडीए और महागठबंधन दोनों ने अत्यधिक आकर्षक और लोकलुभावन वादों से भरे घोषणा पत्र जारी किए हैं।

एनडीए ने अपने ‘संकल्प पत्र’ में एक करोड़ नौकरियों का वादा किया है, महिलाओं को दो लाख रुपये तक की सहायता, हर जिले में कौशल केंद्र, किसानों के लिए नौ हजार रुपये वार्षिक सम्मान निधि और सात नए एक्सप्रेस-मार्गों के निर्माण की बात कही है। वहीं महागठबंधन ने अपने ‘तेजस्वी प्रण’ में प्रत्येक परिवार को सरकारी नौकरी देने, महिलाओं को ढाई हजार रुपये मासिक सहायता, पच्चीस लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा, दो सौ यूनिट मुफ्त बिजली, किसानों को समर्थन मूल्य की गारंटी और मंडियों की बहाली जैसे बड़े वादे किए हैं। दोनों घोषणाओं में एक बात समान है- वे अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी और जन-लोभक हैं। नौकरियों, मुफ्त बिजली, नकद सहायता और भारी निवेश की घोषणाएं सुनने में तो आकर्षक लगती हैं, पर इनकी व्यावहारिकता संदिग्ध है। बिहार जैसे राज्य में, जहां संसाधन सीमित हैं और रोजगार की स्थिति जटिल है, इन वादों को लागू करना आसान नहीं है। घोषणाओं में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इतने बड़े खर्चों का वहन कैसे होगा, कौन-से विभाग या योजनाएं इनका संचालन करेंगे और कब तक परिणाम दिखेंगे।

इन घोषणा पत्रों में जनकल्याण की भावना अवश्य है, परंतु वह यथार्थ से अधिक कल्पना पर आधारित लगती है। बिहार की वास्तविक समस्याएं- शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रवासी मजदूर, कृषि संकट, रोजगार और उद्योगों का अभाव, इनका समाधान केवल लोकलुभावन वादों से नहीं होगा। आवश्यक है कि दल घोषणाएं करने से पहले उनकी वित्तीय और प्रशासनिक व्यवहार्यता का गंभीर अध्ययन करें। राजनीति में घोषणा पत्रों का उपयोग अब एक चुनावी हथियार के रूप में हो रहा है, न कि जनसेवा की प्रतिबद्धता के रूप में। मतदाता को भी जागरूक होना होगा कि वे केवल वादों से प्रभावित न हों, बल्कि यह जानने की कोशिश करें कि पिछले चुनावों में किए गए वादों में से कौन-से पूरे हुए। मीडिया और सामाजिक संस्थाओं को भी यह दायित्व निभाना चाहिए कि वे चुनावों के बाद घोषणाओं की निगरानी करें, ताकि दल जवाबदेह बने। घोषणा पत्र तभी सार्थक होंगे जब उनमें किए गए वादे मापनीय, समयबद्ध और संसाधन-सिद्ध हों। दलों को चाहिए कि वे घोषणाओं को नारेबाजी के बजाय ठोस योजनाओं में बदलें। यह भी आवश्यक है कि चुनाव आयोग इस दिशा में कोई नीति बनाए ताकि असंभव और अव्यावहारिक वादों से जनता को भ्रमित न किया जा सके।

ऐसे में विमर्श का विषय यह है कि क्या हमें यह सुनिश्चित नहीं करना चाहिए कि चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए वादे को वास्तविक रूप में पूरी तरह से लागू किया जाए? दरअसल चुनावी घोषणा-पत्र अनिवार्य रूप से उन नीतियों की एक सूची है जो एक राजनीतिक दल के द्वारा चुनाव के समय जनता के समक्ष अपने इरादों, उद्देश्यों या विचारों को चुनावी घोषणा-पत्र के रूप में प्रकाशित करती है। मतदान के बाद यदि वह पार्टी सत्ता में आती है तो उन नीतियों पर काम करेगी, ऐसा इसमें कहा जाता है। प्रत्यक्ष रूप से यह चुनाव घोषणा-पत्र एक विजन डाक्यूमेंट है। इसलिए यह घोषणा-पत्र वैधानिक और कानूनी रूप से लागू करने वाला एक योग्य दस्तावेज बनना चाहिए। निश्चित रूप से चुनावी घोषणा-पत्र मतदाताओं के लिए निर्णय लेते समय राजनीतिक दलों के शासन के एजेंडे को उनके विचारों को मापने का एक सशक्त माध्यम है। यह भी कहा जा सकता है कि मतदान लेन-देन के जैसा है।

एक बार जब चुनावी वादों पर वोट दिए जाते हैं तो यकीनन इसे एक कानूनी अनुबंध माना जाना चाहिए। जब कोई पार्टी चुनाव जीत कर सत्ता में आती है तो सवाल उठता है कि क्या वह घोषणा-पत्र जो एक अनुबंध का रूप ले चुका है, उसे लागू होना चाहिए या नहीं? जिस सामाजिक अनुबंध सिद्धांत के तहत सरकारें चुनी जाती हैं, क्या किए गए वादों को पूरा करने के संदर्भ में उनकी जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए? चुनाव आयोग को भी इस बारे में नए सिरे से विचार करना चाहिए, ताकि इसका कुछ ठोस समाधान किया जा सके। निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि घोषणा पत्र लोकतंत्र के महाकुंभ में जनता को प्रभावित करने का सबसे सशक्त माध्यम हैं, परंतु जब तक वे केवल वादों की झड़ी बने रहेंगे और उनके पालन की कोई बाध्यता नहीं होगी, तब तक यह लोकतंत्र की सार्थकता को अधूरा रखेंगे। बिहार के दोनों गठबंधनों के घोषणा पत्र लोकतांत्रिक उत्सव की चमक तो बढ़ाते हैं, पर उनका सच समय के साथ ही सामने आएगा कि वे जनता की उम्मीदों को पूरा करते हैं या सिर्फ चुनावी छलावे साबित होते है।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
आपका सहयोग ही हमारी शक्ति है! AVK News Services, एक स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार प्लेटफॉर्म है, जो आपको सरकार, समाज, स्वास्थ्य, तकनीक और जनहित से जुड़ी अहम खबरें सही समय पर, सटीक और भरोसेमंद रूप में पहुँचाता है। हमारा लक्ष्य है – जनता तक सच्ची जानकारी पहुँचाना, बिना किसी दबाव या प्रभाव के। लेकिन इस मिशन को जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की आवश्यकता है। यदि आपको हमारे द्वारा दी जाने वाली खबरें उपयोगी और जनहितकारी लगती हैं, तो कृपया हमें आर्थिक सहयोग देकर हमारे कार्य को मजबूती दें। आपका छोटा सा योगदान भी बड़ी बदलाव की नींव बन सकता है।
Book Showcase

Best Selling Books

The Psychology of Money

By Morgan Housel

₹262

Book 2 Cover

Operation SINDOOR: The Untold Story of India's Deep Strikes Inside Pakistan

By Lt Gen KJS 'Tiny' Dhillon

₹389

Atomic Habits: The life-changing million copy bestseller

By James Clear

₹497

Never Logged Out: How the Internet Created India’s Gen Z

By Ria Chopra

₹418

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »