बेलगाम बांग्लादेश की अशांति भारत के लिये खतरा

बांग्लादेश में बीते कुछ समय से जो घटनाक्रम सामने आ रहे हैं, वे किसी एक देश की आंतरिक समस्या भर नहीं रह गए हैं, बल्कि दक्षिण एशिया की समूची भू-राजनीतिक स्थिरता के लिए एक गंभीर चेतावनी बनते जा रहे हैं। युवा छात्र नेता शरीफ उस्मान हादी की हत्या के बाद जिस तरह ढाका सहित कई शहरों में हिंसा भड़की, उसने यह उजागर कर दिया कि मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार न तो कानून का शासन स्थापित कर पा रही है और न ही समाज को उन्माद व कट्टरता से बचाने में सक्षम दिखाई देती है। सड़कों पर उग्र भीड़, अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हमले, हिन्दू धर्म-स्थलों को ध्वस्त करना, मीडिया संस्थानों के दफ्तरों में आगजनी, पत्रकारों पर हमले और असहमति की आवाजों को दबाने की कोशिशें यह संकेत देती हैं कि बांग्लादेश तेजी से अराजकता के दलदल में धंसता जा रहा है। यह स्थिति लोकतंत्र के भविष्य के लिए जितनी भयावह है, उतनी ही खतरनाक क्षेत्रीय शांति के लिए भी है।

बेलगाम बांग्लादेश की अशांति भारत के लिये खतरा

इस पूरे परिदृश्य का सबसे चिंताजनक एवं त्रासद पहलू ‘भारत विरोधी नैरेटिव’ का सुनियोजित एवं षड़यंत्रपूर्ण निर्माण है। शरीफ उस्मान हादी की हत्या के लिए बिना किसी ठोस जांच के भारत पर आरोप मढ़ना और उसके बाद भारतीय मिशनों को निशाना बनाने की कोशिशें यह बताती हैं कि हिंसा केवल स्वतःस्फूर्त जनाक्रोश नहीं, बल्कि एक सुविचारित राजनीतिक और वैचारिक साजिश का हिस्सा है। इतिहास गवाह है कि जब भी बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है, कुछ कट्टरपंथी ताकतें भारत विरोध को एक आसान औजार की तरह इस्तेमाल करती हैं। इससे न केवल भीड़ को भड़काया जाता है, बल्कि आंतरिक विफलताओं से ध्यान हटाने का रास्ता भी मिल जाता है। अंतरिम सरकार की निष्क्रियता या मौन सहमति इस आशंका को और मजबूत करती है कि वह या तो इन ताकतों पर नियंत्रण खो चुकी है या फिर उनसे समझौता कर चुकी है। इसमें सबसे घातक है पाकिस्तान का साजिशपूर्ण तरीके से भारत विरोध को हवा देना।

भारत द्वारा अपने वीजा केंद्रों को अस्थायी रूप से बंद करना और बांग्लादेशी उच्चायुक्त को तलब करना इस पृष्ठभूमि में एक आवश्यक और संतुलित कूटनीतिक कदम कहा जा सकता है। किसी भी संप्रभु राष्ट्र की यह जिम्मेदारी होती है कि वह विदेशी राजनयिकों और मिशनों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। ढाका में भारतीय प्रतिष्ठानों को निशाना बनाने की कोशिशें और वहां प्रशासन की ढुलमुल प्रतिक्रिया यह दर्शाती हैं कि अंतरिम सरकार इस बुनियादी दायित्व को निभाने में विफल रही है। कूटनीति केवल सौहार्द की भाषा नहीं होती, बल्कि यह स्पष्ट संदेश देने का माध्यम भी होती है कि भारत अपने हितों और नागरिकों की सुरक्षा के प्रश्न पर किसी तरह की उदासीनता स्वीकार नहीं कर सकता।

इस अशांति का सबसे दर्दनाक और संवेदनशील पक्ष बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदुओं की बिगड़ती स्थिति है। कथित ईशनिंदा के आरोपों में एक हिंदू युवक की पीट-पीटकर हत्या इस बात का प्रमाण है कि कट्टरपंथी तत्वों को अब प्रशासन का कोई भय नहीं रह गया है। जब न्याय भीड़ के हाथों में चला जाए और सरकार अल्पसंख्यक अधिकारों पर केवल औपचारिक बयान जारी करती रहे, तो यह लोकतांत्रिक राज्य की आत्मा पर सीधा प्रहार होता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चुप्पी भी इस संदर्भ में कई सवाल खड़े करती है। मानवाधिकारों और अल्पसंख्यक संरक्षण की दुहाई देने वाले वैश्विक मंच तब मौन क्यों हो जाते हैं, जब यह उल्लंघन रणनीतिक या राजनीतिक समीकरणों के भीतर घटित होते हैं। अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के पुत्र और सलाहकार साजीब वाजेद जॉय का यह कथन कि बांग्लादेश की आग से भारत अछूता नहीं रह सकता, केवल एक राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि एक कड़वी सच्चाई है। भारत और बांग्लादेश के बीच हजारों किलोमीटर की साझा सीमा, सांस्कृतिक-सामाजिक रिश्ते और आर्थिक निर्भरता ऐसी है कि ढाका की अस्थिरता का असर स्वाभाविक रूप से भारत के सीमावर्ती राज्यों पर पड़ेगा। अवैध घुसपैठ, कट्टरपंथी नेटवर्कों की सक्रियता और सीमा पार अपराधों का खतरा इस अस्थिरता के साथ बढ़ता ही जाएगा।

आगामी फरवरी में प्रस्तावित आम चुनाव बांग्लादेश के लिए एक अवसर हो सकते थे, जिससे वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए स्थिरता की ओर लौट सके। लेकिन मौजूदा हालात में चुनाव की पारदर्शिता और शांति पर गंभीर प्रश्नचिह्न लग चुके हैं। कट्टरपंथी ताकतें जनभावनाओं को भड़काकर हिंसा का माहौल बनाए रखने में जुटी हैं, ताकि सत्ता का संतुलन अपने पक्ष में मोड़ा जा सके। अंतरिम सरकार का यह दायित्व है कि वह निष्पक्ष और भयमुक्त चुनाव सुनिश्चित करे, लेकिन अब तक के संकेत बताते हैं कि वह इस चुनौती के सामने कमजोर साबित हो रही है।

इस पूरे परिदृश्य में पाकिस्तान की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दक्षिण एशिया में अस्थिरता फैलाना और भारत के पड़ोस में अशांति, हिंसा एवं आतंक के बीज बोना पाकिस्तान की पुरानी रणनीति रही है। बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठनों और भारत विरोधी तत्वों को वैचारिक, नैतिक और कभी-कभी परोक्ष समर्थन मिलना कोई नई बात नहीं है। पाकिस्तान के लिए यह एक अवसर की तरह है, जहां वह बांग्लादेश की आंतरिक कमजोरियों का फायदा उठाकर भारत के खिलाफ एक और मोर्चा खोल सकता है। सोशल मीडिया अभियानों से लेकर दुष्प्रचार तक, कई संकेत इस ओर इशारा करते हैं कि बांग्लादेश में फैलाई जा रही भारत विरोधी भावना के पीछे पाक की सोच भी सक्रिय है। यह वही रणनीति है, जिसे पाकिस्तान ने अफगानिस्तान और अपने ही देश में अपनाकर पूरे क्षेत्र को अस्थिरता के गर्त में धकेल दिया।

भारत का रुख हमेशा से एक स्थिर, समृद्ध और लोकतांत्रिक बांग्लादेश के पक्ष में रहा है। आर्थिक सहयोग, बुनियादी ढांचे के विकास और मानवीय सहायता के माध्यम से भारत ने यह साबित किया है कि वह अपने पड़ोसी के साथ सहयोगात्मक संबंध चाहता है, न कि वर्चस्ववादी। लेकिन यदि ढाका की अंतरिम सरकार अपनी जमीन का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों और सांप्रदायिक हिंसा के लिए होने देती है, तो द्विपक्षीय संबंधों में आई दरार को भरना बेहद कठिन हो जाएगा। यह केवल कूटनीति का प्रश्न नहीं, बल्कि विश्वास और साझी सुरक्षा का भी मुद्दा है। अंतरिम सरकार के सामने अब दो ही रास्ते हैं। पहला, वह कठोर कार्रवाई कर यह साबित करे कि वह किसी कट्टरपंथी विचारधारा की बंधक नहीं है और कानून का शासन बहाल करने के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरा, वह निष्क्रियता और तुष्टीकरण के रास्ते पर चलते हुए देश को और गहरे संकट में धकेल दे। इतिहास बताता है कि दूसरा रास्ता अंततः लोकतंत्र, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने तीनों को नष्ट कर देता है।

बांग्लादेश एक ऐसे समय अराजकता में डूबा है, जब वहां चुनाव सन्निकट है। अब इन चुनावों का सही एवं लोकतांत्रिक तरीके से होना संदिग्ध है। इन चुनावों में शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग को भाग लेने से रोकना एवं पाकिस्तानपरस्त जमाते इस्लामी समेत अन्य कट्टरपंथी ताकतों को भी चुनाव लड़ने की छूट देना, अंतरिम युनूस सरकार की कुचेष्टा है। सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि चुनाव केे बाद वहां इस्लामिक कट्टरपंथियों के वर्चस्व वाली ऐसी सरकार अस्तित्व में आ सकती है, जो भारत के खिलाफ खुलकर काम करते हुए अल्पसंख्यकों के संहार को अंजाम देगी। भारत के लिए इसीलिये भी यह समय केवल चिंता व्यक्त करने का नहीं, बल्कि सतर्क और सक्रिय कूटनीति अपनाने का है। सीमा सुरक्षा को मजबूत करते हुए वैश्विक मंचों पर बांग्लादेश की ताजा घटनाओं को स्पष्टता और तथ्यों के साथ उठाना आवश्यक है। पड़ोस में लगी यह आग यदि समय रहते नहीं बुझाई गई, तो इसकी तपिश केवल बांग्लादेश तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया को झुलसा सकती है। स्थिरता, लोकतंत्र और सह-अस्तित्व की रक्षा के लिए यह अनिवार्य है कि बांग्लादेश की मौजूदा अराजकता को एक चेतावनी की तरह लिया जाए, न कि एक क्षणिक राजनीतिक उथल-पुथल के रूप में।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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