बिलासपुर के सिल्वर स्क्रीन का वह सुनहरा दौर: एक इतिहास जो सिमट गया

छत्तीसगढ़ प्रदेश का बिलासपुर शहर एक समय सांस्कृतिक और मनोरंजन के क्षेत्र में बेहद समृद्ध हुआ करता था। विशेष रूप से जब बात सिनेमा की आती है, तो यह शहर कभी “फिल्म प्रेमियों का केंद्र” माना जाता था। उस सुनहरे दौर में, जब डिजिटल तकनीक औरों मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने अभी अपने पैर नहीं पसारे थे तब बिलासपुर में कुल ग्यारह सिनेमाघर हुआ करते थे। ये सिनेमा हॉल न केवल फिल्में देखने का माध्यम थे, बल्कि लोगों की भावनाओं, उत्सवों और सामाजिक मेलजोल के केंद्र भी थे। वो सुनहरा दौर था जब परदे का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोलता था। 70 के दशक से लेकर 90 के दशक तक, बिलासपुर के सिनेमाघरों में रोज़ाना भारी भीड़ जमा होती थी।ऐसे ही दीवानों में मेरे कुछ दोस्तों का नाम याद आ रहा है जैसे प्रदीप उपाध्याय और मोहम्मद अली भारमल।

ये फिल्मों के इतने ज्यादा शौकीन हुआ करते थे कि ये लोग स्कूल में हों या खाली टाइम में बस केवल पिक्चरों की स्टोरी और फिल्मों के गानों में ही खोए रहते थे प्रदीप उपाध्याय और मोहम्मद की बात करूं तो इनकी दीवानगी आप इसी बात से समझ सकते हैं कि ये दोनों भाई शहर की टाकीजों फिल्में अक्सर चार शो में चला करती थीं।और चूंकि शहर में टॉकीज  पास पास में थे तो ये दोनों पट्ठे एक के बाद एक टॉकीजों से निकलकर एक ही दिन में चारों शो की पिक्चरों को देख लिया करते थे।उनकी ऐसी दीवानगी देखकर हम भी हैरान रहते थे।  मोहम्मद अली की दीवानगी की तो हद देखिए की वह चारों शो के अलावा सुबह 10:30 बजे से तमिल तेलुगू की फिल्में भी चलती थीं, उनको भी देखना नहीं भूलता था। यह सोचकर ही हंसी आती है कि भले ही तमिल तेलुगू उसे समझ में नहीं आती थी और ना फिल्म की स्टोरी समझ में आती थी। लेकिन दीवानगी और फिल्मों के प्रति चाव ऐसा था कि वह इन्हें भी देखकर ही रहता था।    

शहर के प्रताप टॉकीज, मनोहर टॉकीज, श्याम टॉकीज, लक्ष्मी टॉकीज, बिहारी  टॉकीज,गंगा श्री टॉकीज, शिव टॉकीज, जीत टॉकीज,सिद्धार्थ टॉकीज, सत्यम टॉकीज,बलराम टॉकीज जैसे नाम हर फिल्मप्रेमी की जुबान पर होते थे।शहर में जब भी नई फिल्में रिलीज़ होती थी दर्शकों का हुजूम टिकट खिड़की पर लंबी-लंबी कतारें लगती थीं। उस दौर में सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक अनुभव था-जहां लोग परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के साथ एक साथ फिल्में देखते थे। इंटरवल में भुने हुए चने फल्ली का सिनेमा देखते हुए मजा लेना एक अलग ही आनंद देता था। वह जमाना था जब लोग राजेश खन्ना धर्मेंद्र अमिताभ बच्चन जितेंद्र विनोद खन्ना सहित हेमा मालिनी, रेखा,जीनत अमान, परवीन बॉबी, नीतू सिंह, राखी गुलजार  जैसे अदाकारों के दीवाने हुआ करते थे और तो और उसे जमाने के विलेन अदाकार प्राण रंजीत प्रेम चोपड़ा अमजद खान वैसे ही कॉमेडियन्स में मेहमूद जगदीप राजेन्द्र नाथ कैस्टो मुखर्जी असरानी जैसे  कलाकारों के प्रति भी दीवानगी कम नहीं थी। 

उन दिनों इन कलाकारों से सजी हुई फिल्में जो अगर इन टॉकीज में लग जाती थी तो उन पिक्चरों के सफलता का गारंटी माना जाता था भले ही पिक्चर कैसी भी हो लेकिन इन  कलाकारों की स्टार वैल्यू इतनी अधिक थी कि लोग केवल इनके नाम से पिक्चर हिट कर देते थे। उसे दौर में  गंगा श्री टॉकीज बनकर तैयार हुआ तो उसमें लगने वाली पहली पिक्चर थी राजेश खन्ना की “अवतार”! जिसने बंपर हिट होते हुए इसी टॉकीज में 6 महीना तक प्रदर्शित की गई थी। वहीं शिव टॉकीज की उद्घाटन पिक्चर थी अमिताभ बच्चन की “याराना”, जिसे देखने के लिए लोग टूट पड़े थे।  विनोद खन्ना और फिरोज खान की फिल्म का क्रेज ऐसा था कि वह दो टॉकीज में लगी और दोनों टॉकीज में भारी भरकम भीड़ के साथ कई महीनों चली। 

ऐसे ही कितने फिल्में शहर में आई जिनका जादू बिलासपुरियंस के सर चढ़कर बोला ऐसी फिल्मों में सबसे प्रथम था फिल्म शोले। शोले का ऐसा जादू था की गली गली में उसके डायलॉग टेप रिकॉर्डर या स्पीकर में शहर की गली गली में सुनाई देते थे, जिसे लोग बड़े चाव से सुना करते थे। उन दिनों शोले के अमजद खान द्वारा निभाए गए गब्बर सिंह का यह डायलॉग ” कितने आदमी थे” “होली कब है” जैसे गब्बर सिंह के डायलॉग लोगों के जुबान पर थे! 

लेकिन जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, सिनेमा देखने की परंपरा में बदलाव आने लगे। केबल टीवी, वीसीआर और बाद में डिजिटल प्लेटफॉर्म जैसे नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम आदि ने दर्शकों को घर बैठे ही मनोरंजन देना शुरू कर दिया। वहीं, मल्टीप्लेक्स कल्चर के आगमन ने परंपरागत सिनेमाघरों की चमक को फीका कर दिया। बड़े शहरों की तर्ज पर छोटे शहरों में भी मल्टीप्लेक्स बनने लगे, और पुराने सिंगल स्क्रीन थियेटर धीरे-धीरे दर्शकों की कमी से जूझने लगे।मेंटेनेंस की लागत, तकनीकी अपग्रेड की कमी, और प्रॉपर्टी विवाद जैसे कई कारणों से बिलासपुर के अधिकांश सिनेमा हॉल या तो बंद हो गए या किसी अन्य व्यावसायिक उपयोग में बदल दिए गए। अब वे टॉकीज या तो खंडहर  या जमींदोज कर दिए गए हैं। प्रताप टॉकीज तो आज अस्पताल बन चुका है। वही गंगा श्री टॉकीज एसबीआई बैंक बन गया तो बिहारी टॉकीज में कई सारे कंपलेक्स तैयार हो गए हैं। जीत टॉकीज व्यवसायिक कंपलेक्स के रूप में तैयार हो रहा है। 

 आज बिलासपुर में केवल एक सिनेमाघर शिव टॉकीज बचा हैं, वो भी ऐसी हालत में है कि कभी भी बंद हो सकता है ।इनकी जगह नए जमाने के मल्टीप्लेक्स थिएटर जैसे पीवीआर सिटी 36 मॉल आ चुके हैं । लेकिन पुराने सिंगल स्क्रीन थियेटर की बात ही कुछ और थी। वहां की चाय की दुकानें, मूंगफली वाले, इंटरवल में बजने वाली घंटी, और सीटी बजाते दर्शक-ये सब अब इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं।

 बिलासपुर के सिनेमा हॉलों का यह सफर उस परिवर्तनशील समाज का आईना है, जो तकनीक और समय के साथ आगे तो बढ़ा, लेकिन अपने कई संवेदनशील, सामूहिक और भावनात्मक अनुभवों को पीछे छोड़ता गया। ज़रूरत है कि हम इस विरासत को पूरी तरह भूलने न दें। शायद किसी दिन, कोई प्रयास हो पुराने थियेटरों को पुनर्जीवित करने का ताकि आने वाली पीढ़ी भी उस जादू को महसूस कर सके, जो कभी बड़े पर्दे पर छाया करता था।एक ज़माना था जब बिलासपुर की गलियों में शुक्रवार की शामें खास होती थीं। नई फिल्म का पहला शो, पोस्टरों से सजी दीवारें, टिकट खिड़की पर लंबी लाइनें और स्ट्रीट लाइट की रोशनी में चाय-पकौड़े की खुशबू-ये सब मिलकर एक ऐसा माहौल रचते थे, जो अब सिर्फ यादों में रह गया है।    

बिलासपुर शहर, जो आज तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है, कभी 11 भव्य सिनेमा हॉलों का शहर हुआ करता था। हर सिनेमाघर की अपनी पहचान थी, अपनी खुशबू थी, और अपने दर्शक होते थे।तब सिनेमा देखना महज मनोरंजन नहीं था, वह एक परंपरा थी। नए कपड़े पहनकर जाना, दोस्तों और परिवार के साथ एक शो को सेलिब्रेट करना, इंटरवल में मूंगफली और कोल्ड ड्रिंक लेना-ये सब किसी त्यौहार से कम नहीं था। ‘फिल्म हिट हुई तो कई-कई  बार देखी जाती थी। सीटें न मिलन पर लोग जमीन पर बैठकर आनंद से फिल्में देखने का मजा लिया करते थे।    

वो साल 1980 का था,जब गर्मियों की एक दोपहर, जब मैंने पहली बार सिनेमा देखा – लक्ष्मी टॉकीज में, और फिल्म थी -‘शोले’।” जो दूसरी बार रिलीज हो रही थी। आज भी वो दिन आँखों में बसा है। टिकट खिड़की पर लंबी लाइन, बाहर चने बेचता हुआ एक बूढ़ा, और मेरे हाथ में पसीने से भीगा हुआ दो रुपये का नोट। अपर  क्लास का टिकट ₹160 पैसे में आता था। हाल में भीड़ इतनी थी कि लगा जैसे कोई मेला लगा हो। लाइन में लगने के बाद टिकट लेकर  पिक्चर शुरू हुई और पर्दे पर ‘गब्बर’ पहली बार आया, तो पूरा हॉल जैसे कांप उठा था। जय-वीरू की दोस्ती, बसंती की बातें, ठाकुर का बदला-लक्ष्मी टॉकीज के पर्दे पर सिर्फ फिल्म नहीं चल रही थी, एक महाकाव्य लिखा जा रहा था। इंटरवल में बाहर निकलते समय हर चेहरा जोश में था, हर दिल उस कहानी का हिस्सा बन चुका था।उस दौर में सिनेमा देखना सिर्फ टाइमपास नहीं था, वो एक संस्कार था। वो बताता था कि बुराई कितनी भी ताक़तवर क्यों न हो, अंत में जीत अच्छाई की ही होती है। और वो संस्कार, वो भावनाएं, बिलासपुर के हर सिनेमाघर में सांस लेती थीं- लक्ष्मी टॉकीज, सत्यम, जीत, मनोहर, श्याम और मेरा अपना प्रिय -बिहारी टॉकीज  मनोरंजन संस्कारों का जो मेल दिखता था वह आज धीरे-धीरे बुझती रौशनी मैं बदल चुका है। 

 फिर समय बदला केबल टीवी, वीसीआर और डीवीडी का चलन बढ़ा। लोगों ने घर बैठे फिल्में देखना शुरू कर दिया। और जब मल्टीप्लेक्स कल्चर आया, तो इन पुराने सिनेमा हॉलों की चमक फीकी पड़ने लगी।टूटती छतें, खाली कुर्सियां, और फिर एक दिन दरवाज़ों पर ताले लग गए। कुछ हॉल शॉपिंग मॉल में बदल गए, कुछ गोदाम बन गए और कुछ सिर्फ यादें बनकर रह गए। उसे सुनहरे दौर की फिल्मों के संगीत का तो जवाब ही नहीं है। आज भी जब कोई पुराना गीत बजता है, तो  बिहारी टॉकीज की बालकनी याद आती है। श्याम टॉकीज का वो पुराना प्रोजेक्टर, जिसकी आवाज़ फिल्म के साथ चलती थी वो अब भी कानों में गूंजता है। श्याम टॉकीज के बाहर लगी भीड़, लक्ष्मी टॉकीज के ढोल-नगाड़े, और इंटरवल में बाहर आकर समोसे खाना-ये सब कुछ ऐसी अमिट यादें हैं जिसे समय मिटा नहीं सका।

कभी-कभी मन में विचार सा उठत है कि हमने सिनेमा नहीं खोया, एक युग खो दिया। बिलासपुर के पुराने सिनेमाघर सिर्फ इमारतें नहीं थे, वे समय के कैनवस पर टंगी वे तस्वीरे थीं, जिनमें भावनाएं थीं, स्मृतियां थीं, और एक पूरे समाज की संस्कृति झलकती थी।आज जब मल्टीप्लेक्स में बैठकर हम चुपचाप स्क्रीन पर झांकते हैं, तो कहीं अंदर से वो शोरगुल, वो ताली, वो सीटियों वाली दुनिया हमें पुकारती है। सिनेमा,एक संस्कार की तरह  सबके जीवन में रची बसी हुई थी। उस दौर में सिनेमा देखना सिर्फ टाइमपास नहीं था, वो एक संस्कार था जो बताता था कि बुराई कितनी भी ताक़तवर क्यों न हो, अंत में जीत अच्छाई की ही होती है। और वो संस्कार, वो भावनाएं, बिलासपुर के हर सिनेमाघर में सांस लेती थीं- प्रताप टॉकीज, मनोहर, सत्यम, बलराम, शिव और शहर के ग्यारहों टॉकीज में बिताए गए पल कभी भूले नहीं जा सकते। अब तो केवल उनकी यादें ही बसी हुई है, बाकी कुछ नहीं बचा। 

पहले वीसीआर आया, फिर केबल, फिर मोबाइल में समा गया पूरा सिनेमा। एक-एक कर सिनेमा हॉल बंद होते गए।लक्ष्मी टॉकीज, जहां कभी हर शुक्रवार को भीड़ संभालना मुश्किल होता था, इन सिनेमा हालों के ऐसे दुर्दिन आए की  एक दिन ये सभी बिलकुल सुनसान और खंडहरो में तब्दील हो गए। अब वहां कोई इमारत भी नहीं बची है केवल झाड़ झंखाडियों का जंगल दिखता है ,जो बताता है कि ये जगह कभी सपनों का पर्दा हुआ करती थी।कभी-कभी आंखें बंद करता हूँ तो खुद को उसी पुरानी कुर्सी पर बैठा पाता हूँ – लक्ष्मी टॉकीज की तीसरी कतार, बीच की सीट। परदे पर ‘शोले’ चल रही होती है, और मैं एक बार फिर उस जादू में खो जाता हूँ।आज जब मल्टीप्लेक्स में 4K स्क्रीन और एसी हॉल में फिल्में देखता हूँ, तब भी कुछ अधूरा सा लगता है शायद भावनाओं की गर्मी चली गई है, शायद सीटियों की आवाज़ खो गई है।

 बिलासपुर के सिनेमा हॉल अब भले ही मिट्टी में मिल गए हों, लेकिन उनके पर्दों पर जो सपने चलते थे, वो आज भी ज़िंदा हैं-मेरी यादों में, आपके दिलों में, और इस शहर की आत्मा में। शायद भविष्य में हम इन जगहों को फिर से सहेज सकें, शायद कोई “फिल्म संग्रहालय” बने, या फिर कोई त्योहार जो इन सिनेमाघरों की विरासत को ज़िंदा रखे।लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक बिलासपुर के इन सिनेमा हॉलों को हम अपनी स्मृतियों की रील में संभाल कर रखें-क्योंकि ये सिर्फ फिल्में दिखाने वाली जगहें नहीं थीं, ये हमारी ज़िंदगी के वो फ्रेम थे, जो अब भी दिल के पर्दे पर चल रहे हैं । 

वो परदे की रौशनी, वो तालियों की गूंज थी,
हर दिन जैसे कोई छोटी सी पूजा थी। 
अब खामोश हैं हॉल, बस यादें बोलती हैं,
 परदे पे चलता था सपना कोई, 
सीटियों में गूंजता था अपना कोई। 
अब खामोश हैं वो गलियाँ सारी, 
वो सिनेमा हाल रह गई यादों में हमारी ।।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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