इच्छा मृत्युः संवेदना एवं संविधान के बीच फंसा मानवीय प्रश्न

इच्छा मृत्यु यानी व्यक्ति की अपनी इच्छा के अनुसार जीवन का अंत, भारत में लंबे समय से सामाजिक, नैतिक और कानूनी विमर्श का विषय रही है। यह प्रश्न केवल मृत्यु से जुड़ा नहीं है, बल्कि असहनीय पीड़ा, मानवीय गरिमा, करुणा और आत्मनिर्णय के अधिकार से गहराई से संबंधित है। इनदिनों एक 32 वर्षीय युवक, जो पिछले 13 वर्षों से कोमा जैसी स्थिति में है, इस त्रासदी का जीवंत उदाहरण है। न चेतना, न संवाद, न सुधार की कोई संभावना, फिर भी परिवार भावनात्मक, मानसिक और आर्थिक यातना झेलने को विवश है। इस मामले ने एक बार फिर इच्छा मृत्यु के प्रश्न पर विमर्श का वातावरण बना दिया है। ऐसे हजारों मामले देशभर में चुपचाप पीड़ा सह रहे हैं, जिनका न तो कोई समाधान है और न ही कोई स्पष्ट कानूनी रास्ता। यह स्थिति केवल चिकित्सा संकट नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना और सामाजिक न्याय की गंभीर परीक्षा है।

इच्छा मृत्युः संवेदना एवं संविधान के बीच फंसा मानवीय प्रश्न

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने जीवन को कृत्रिम रूप से लंबे समय तक बनाए रखने की क्षमता तो विकसित कर ली है, लेकिन यह तय नहीं कर पाया है कि जब जीवन केवल पीड़ा, चेतनाहीनता और निरर्थक जैविक क्रिया बन जाए, तब उसे ढोते रहना ही मानवता है या उसे सम्मानपूर्वक विदा देना अधिक करुणामय विकल्प है। विडंबना यह है कि जो लोग असाध्य बीमारी, लंबे कोमा या पूर्णतः चेतनाशून्य अवस्था में नारकीय जीवन जीने को विवश हैं, उनके लिए भारतीय कानून आज भी स्पष्ट और मानवीय मार्ग तय नहीं कर पाया है। ऐसे लोग यह मानते हैं कि जब जीवन से गरिमा, चेतना और आशा समाप्त हो जाए, तब जीवन की तुलना में गरिमापूर्ण मृत्यु अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।

प्रश्न यह उठता है कि हमारा कानून ऐसी मृत्यु को आज भी संदेह, भय और अपराध की दृष्टि से क्यों देखता है? भारतीय दंड संहिता की धारा 309 और 306 लंबे समय तक इच्छा मृत्यु के मार्ग में कानूनी बाधा बनी रहीं। भले ही 2017 के मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम में आत्महत्या के प्रयास को मानसिक पीड़ा का परिणाम मानते हुए अपराध की श्रेणी से आंशिक रूप से बाहर किया गया हो, लेकिन इच्छा मृत्यु के प्रश्न पर आज भी कोई समग्र और स्पष्ट कानून मौजूद नहीं है। संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की बात करता है, परंतु यह बहस आज भी जारी है कि क्या इसमें गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार अंतर्निहित है या नहीं? इच्छा मृत्यु को लेकर भारतीय न्यायपालिका का सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मोड़ वर्ष 2011 में अरुणा शानबाग मामले में देखने को मिला।

अरुणा शानबाग, जो मुंबई के केईएम अस्पताल में नर्स थीं, 1973 में हुए एक अमानवीय हमले के बाद मस्तिष्क क्षति का शिकार हो गईं और 42 वर्षों तक परसिस्टेंट वेजिटेटिव स्टेट-यानी सतत् विकृतशील दशा में रहीं। उनकी ओर से दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सक्रिय इच्छा मृत्यु को अस्वीकार करते हुए यह स्वीकार किया कि निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को सशर्त अनुमति दी जा सकती है। न्यायालय ने माना कि यदि रोगी की स्थिति असाध्य है, चेतना लौटने की कोई संभावना नहीं है और उपचार केवल जीवन को यांत्रिक रूप से खींच रहा है, तो विशेषज्ञों की राय और न्यायिक निगरानी में जीवन रक्षक उपचार हटाया जा सकता है। यह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक बड़ा कदम था, लेकिन यह भी स्पष्ट हो गया कि यह समाधान अपवाद था, स्थायी कानून नहीं।

इसके बाद 2018 में कॉमन कॉज बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक टिप्पणी की कि जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने का अधिकार नहीं, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन और गरिमापूर्ण मृत्यु का अधिकार भी है। इसी फैसले में ‘लिविंग विल’ या ‘एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव’ को वैध माना गया, जिसके माध्यम से कोई व्यक्ति पहले से यह दर्ज कर सकता है कि असाध्य अवस्था में उसे जीवन रक्षक उपचार न दिया जाए। किंतु इस प्रक्रिया को इतनी जटिल औपचारिकताओं से बाँध दिया गया कि व्यवहार में यह अधिकार आम नागरिक के लिए लगभग अप्राप्य बनकर रह गया। हाल के वर्षों में ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं जो इस समस्या की भयावहता को उजागर करते हैं। इच्छा मृत्यु की आवश्यकता इसी यथार्थ से जन्म लेती है। असाध्य कैंसर, न्यूरोलॉजिकल रोगों और अंतिम अवस्था की बीमारियों में जीवन पीड़ा का पर्याय बन जाता है। चेतनाहीन शरीर को मशीनों के सहारे जीवित रखना जीवन कम और यातना अधिक प्रतीत होता है।

व्यक्ति को अपने जीवन के अंतिम निर्णय का अधिकार मिलना चाहिए, क्योंकि आत्मनिर्णय लोकतांत्रिक समाज का मूल मूल्य है। लंबे समय तक चलने वाला उपचार परिवार को आर्थिक और मानसिक रूप से तोड़ देता है और सीमित चिकित्सा संसाधनों का प्रश्न भी खड़ा करता है। इच्छा मृत्यु के विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है, बुजुर्गों या गरीबों पर दबाव बनाया जा सकता है और डॉक्टर जीवन-मृत्यु का निर्णयकर्ता बन जाएंगे। ये आशंकाएँ गंभीर हैं, किंतु इनका समाधान इच्छा मृत्यु को नकारने में नहीं, बल्कि स्पष्ट, सख्त और पारदर्शी कानून बनाने में है। अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि जहां स्पष्ट कानून और बहुस्तरीय निगरानी व्यवस्था है, वहां दुरुपयोग की संभावना कम होती है। नीदरलैंड्स, बेल्जियम, कनाडा और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों ने यह सिद्ध किया है कि करुणा और नियंत्रण साथ-साथ चल सकते हैं। वैसे भारत में भी जैन धर्म का संथारा (सल्लेखना) और आधुनिक संदर्भ में इच्छा मृत्यु दोनों पहली दृष्टि में समान प्रतीत होते हैं, किंतु दर्शन, उद्देश्य, प्रक्रिया और संवैधानिक व्याख्या के स्तर पर इनके बीच मौलिक अंतर भी हैं और कुछ गहरी समानताएँ भी। इसी कारण एक ही देश में संथारा निर्वाध चलता रहा है और इच्छा मृत्यु आज भी बहस का विषय बनी हुई है।

जैन धर्म में संथारा या सल्लेखना को मृत्यु नहीं, बल्कि जीवन की अंतिम साधना यानी मृत्यु का महोत्सव माना गया है। यह न तो पीड़ा से पलायन है और न ही जीवन से पलायन, बल्कि आसक्ति, क्रोध, भय और मोह के क्षय की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। संथारा तब लिया जाता है जब व्यक्ति यह अनुभव करता है कि उसका शरीर साधना के योग्य नहीं रहा, बीमारी असाध्य हो चुकी है, या वृद्धावस्था में देह शिथिल हो गई है। इसमें भोजन और जल का त्याग क्रमशः, संयमपूर्वक और गुरु की आज्ञा से किया जाता है। इसका उद्देश्य शरीर को नष्ट करना नहीं, बल्कि आत्मा को निर्मल करना होता है।

जैन दर्शन में यह माना जाता है कि मृत्यु तो अनिवार्य है, प्रश्न केवल इतना है कि वह आसक्ति और व्याकुलता में हो या समता और सजगता में। इसके विपरीत इच्छा मृत्यु आधुनिक विधिक अवधारणा है, जिसका मूल उद्देश्य असहनीय शारीरिक या मानसिक पीड़ा से मुक्ति है। इसमें व्यक्ति यह चाहता है कि जीवन की यातना समाप्त हो जाए, क्योंकि चेतना, संवाद और सुधार की कोई संभावना नहीं बची है। यह निर्णय भावनात्मक, चिकित्सकीय और परिस्थितिजन्य होता है, न कि आध्यात्मिक साधना का अंग। इच्छा मृत्यु में दवा, इंजेक्शन या जीवन रक्षक प्रणाली हटाने जैसे भौतिक साधन जुड़े होते हैं, जबकि संथारा में हिंसा का कोई सक्रिय साधन नहीं होता।

अब समय आ गया है कि भारत भी इच्छा मृत्यु विषय पर संकोच छोड़कर स्पष्ट और मानवीय कानून बनाए। ऐसा कानून जो असाध्य और अपरिवर्तनीय स्थितियों की वैज्ञानिक पहचान करे, रोगी की इच्छा और गरिमा को सर्वाेपरि माने, परिजनों को अनावश्यक पीड़ा से बचाए और डॉक्टरों को नैतिक तथा कानूनी सुरक्षा प्रदान करे। इच्छा मृत्यु जीवन के विरुद्ध नहीं, बल्कि अर्थहीन पीड़ा के विरुद्ध एक करुणामय विकल्प है। जब जीवन केवल मशीनों पर टिका एक जैविक क्रम बन जाए और चेतना, सम्मान व आशा समाप्त हो जाए, तब मृत्यु को अपराध नहीं, बल्कि मानवीय अधिकार के रूप में देखना होगा।

यदि हमारा संविधान जीवन को गरिमा देता है, तो उसी गरिमा के साथ मृत्यु चुनने का अधिकार भी देना होगा। इच्छा मृत्यु पर स्पष्ट कानून बनाना केवल कानूनी सुधार नहीं, बल्कि एक संवेदनशील, परिपक्व और करुणामय समाज की पहचान है। मानवीय करुणा की मांग है कि जीवन की पवित्रता और पीड़ा की क्रूरता के बीच संतुलन बनाया जाए। इच्छामृत्यु जब सहमति से होगी तो मानवता को कायम रखा जा सकता है। न्यायपालिका को ऐसा न्याय देना चाहिए, जो रोगी को पीड़ा से मुक्त करे और एक करुणामय भविष्य का मार्ग प्रशस्त करे।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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