राजर्षि नये भारत के निर्माता एवं हिंदी के क्रांतिकारी योद्धा

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जयन्ती- 1 अगस्त, 2023

हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में जिन महापुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान था उनमें सबसे अग्रणी थे राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के क्रांतिकारी नेता होने के साथ-साथ वे हिंदी के अनन्य सेवक, स्वतंत्रता सेनानी, समर्पित राजनयिक, कुशल वक्ता, ऊर्जावान पत्रकार, कवि, लेखक, साहित्यकार, समाज सुधारक और समाज सेवी होने के साथ एक बहुत ही संत स्वभाव के व्यक्तित्व थे।

उनकी बहुआयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर देवराहा बाबा ने उन्हें -‘राजर्षि’ की उपाधि से विभूषित किया। राष्ट्रीयता के पोषक, भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर प्रहार करते हुए उनके खिलाफ सशक्त आवाज उठाई। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे।

पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म एक अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहबाद में खत्री परिवार में हुआ था। राधास्वामी सम्प्रदाय से संबंध रखने वाले पिता श्री शालिग्राम टंडन इलाहाबाद के एकाउण्टेण्ट जनरल आफिस में क्लर्क थे, उनकेे संत स्वभाव का उन पर खूब असर हुआ। बचपन से ही पढ़ने में मेधावी रहे पुरुषोत्तम दास 1899 में इंटर की परीक्षा पास करते ही  कांग्रेस के स्वयंसेवक बन गए। अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेंट्रल कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था और 1903 में अपने पिता के निधन के बाद उन्होंने एक अन्य कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड का अध्ययन करने वाली कांग्रेस पार्टी की समिति के वह एक सदस्य थे।

महात्मा गांधी के कार्यक्रमों एवं विचारों का उन पर विशेष प्रभाव पड़ा। गांधीजी के कहने पर वे वकालत को छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वे सन् 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में बस्ती में गिरफ्तार हुए और उन्हें कारावास का दंड मिला। 1931 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन से गांधीजी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था उनमें जवाहरलाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। उन्होंने बिहार में कृषि को बढ़ावा देने के लिए काफी कार्य किए। 1933 में वह बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष चुने गए और बिहार किसान आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते हुए विकास के अनेक कार्य किए।

भारत की आजादी एवं आजाद भारत के निर्माण में पुरुषोत्तम दास टंडन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन् 1905 में उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ जब बंगाल विभाजन के विरोध में समूचे देश में आन्दोलन हो रहा था। बंगभंग आन्दोलन के दौरान उन्होंने स्वदेशी अपनाने का प्रण किया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार प्रारंभ किया। वे ‘लोक सेवक संघ’ का भी हिस्सा रहे थे। 1920 और 1930 के दशक में उन्होंने असहयोग आन्दोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लिया और जेल गए। भारत की आजादी के बाद 1951 में हुए देश के पहले चुनाव में पाँच प्रत्याशी निर्विरोध चुने गए थे। इसके बाद 1952 में हुए उप-चुनाव में इलाहाबाद पश्चिम में कांग्रेस के पुरुषोत्तम दास टंडन निर्विरोध विजयी हुए।

वे लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित ‘लोक सेवा मंडल’ का भी अध्यक्ष रहे। वे यूनाइटेड प्रोविंस (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के विधान सभा के 13 साल (1937-1950) तक अध्यक्ष रहे। उन्हें सन् 1946 में भारत के संविधान सभा में भी सम्मिलित किया गया। आजादी के बाद सन् 1948 में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सितारमैय्या के विरुद्ध चुनाव लड़ा, पर हार गए। सन् 1950 में उन्होंने आचार्य जे.बी. कृपलानी को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष पद हासिल किया पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के साथ वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

राजर्षि टंडन ने 10 अक्टूबर, 1910 को नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी के प्रांगण में हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। इसी क्रम में 1918 में उन्होंने ‘हिंदी विद्यापीठ’ और 1947 में ‘हिंदी रक्षक दल’ की स्थापना की। वे हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। वह हिंदी में भारत की मिट्टी की सुगंध महसूस करते थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में स्पष्ट घोषणा की गई कि अब से राजकीय सभाओं, कांग्रेस की प्रांतीय सभाओं और अन्य सम्मेलनों में अंग्रेजी का एक शब्द भी सुनाई न पड़े।

हिंदी का पुरजोर समर्थन करने वाले राजर्षिजी पर अकसर हिंदी का अधिक समर्थन और अन्य भाषाओं को नजरअंदाज करने का आरोप लगता रहा है। उन्होंने हिन्दी के लिये पूरे जीवन में बड़े संघर्ष किया, इस विषय एवं अन्य विषयों को लेकर उनके और नेहरूजी के संबंधों को लेकर भी हमेशा मतभेद रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच टंडन ने हिंदी प्रेम और समर्पण धूमिल होने नहीं दिया। उन्होंने हिंदी का खूब  प्रचार प्रसार किया।

संविधान सभा में राजभाषा के चुनाव पर उन्होंने हिंदी की तगड़ी पैरवी की और उन्हीं के अथक प्रयासों के चलते ही हिंदी को संविधान में आधिकारिक राजभाषा का दर्जा मिला। 1956 में उन्हें संसदीय विधिक और प्रशासकीय शब्दों के संग्रह हेतु गठित समिति का सभापति बनाया गया। उनके योगदान की सूची बहुत लंबी है। 1961 में हिंदी भाषा को देश में अग्रणी स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें देश का सर्वाेच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ से  विभूषित किया गया।

हिंदी के अनन्य सेवकों में ही नहीं, हिंदी के सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ने वाले महारथियों में भी राजर्षि टंडन का नाम सबसे आगे आता है। वे अकेले व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदी को आगे बढ़ाने में काम ही नहीं किया बल्कि हिंदी के लिए दुर्धुर्ष लड़ाइयां भी लड़ीं। इसके लिए राजनीतिक क्षेत्र में कदम-कदम पर मिलने वाले विरोध के अलावा निजी तौर पर भी उन्हें कोसने वाले कम न थे। पर टंडनजी तो किसी और ही मिट्टी के बने थे।

वे हर आंधी-तूफान में हिमगिरी की तरह अडिग खड़े रहे और हिंदी की सेवा के लिए जो कटुतम आलोचनाएं और अपशब्द सुनने को मिले, उन्हें हिंदी का प्रसाद समझकर झोली में डाल लिया। यहां तक कि हिंदी के लिए उन्हें जो विकट शूल सहने पड़े, उन्हें लेकर अपनी विपदाओं का बखान करना भी उन्हें कतई प्रिय नहीं था। हिंदी उनके लिए भाषा नहीं, सचमुच मां ही थी और बेटे को मां की सेवा में अगर अथक कष्ट झेलने भी पड़ें, तो उसकी चर्चा कर वह स्वयं को या अपनी वत्सला जननी की ममता और बड़प्पन को क्यों छोटा करेगा?

ऊपर से देखने पर टंडनजी के जीवन में बड़ी विरोधाभासी स्थितियां नजर आती हैं। उनका परिवार राधास्वामी का अनुयायी था। टंडनजी पर भी इसका प्रभाव पड़ा। उनके रहन-सहन, वेश और खानपान में जो सादगी और सरलता थी तथा उनके मन में जो करुणा, दयाभाव और परदुखकातरता थी, वह भी संभवतः वहीं से आई।

उन्होंने अपने बेटों के नाम संतप्रसाद, स्वामीप्रसाद, गुरुप्रसाद आदि रखे, पर इस पर भी राधास्वामी संप्रदाय का ही प्रभाव था और एक बार तो मठाधीश होते-होते बचे। आगरा के राधास्वामी संप्रदाय की गद्दी के लिए चुनाव हुआ, तो कुछ मित्रों के कहने पर उन्होंने भी अपना नाम दे दिया। चुनाव हुआ तो बहुत कम मतों से वे हार गए, वरना शायद उनकी नियति कुछ और होती।

टंडनजी सादगी और सरलता की मिसाल थे और अपनी बहुत सादा कुर्ते-धोती वाली वेशभूषा से ही उनकी पहचान थी, पर बहुतों को शायद पता न हो कि कॉलेज के दिनों में वे क्रिकेट के बहुत अच्छे खिलाड़ी और अपनी क्रिकेट टीम के कप्तान थे। इसी तरह टंडनजी हिंदी के अनन्य भक्त होने के साथ ही फारसी के बहुत अच्छे विद्वान थे और अंग्रेजी भी उनकी बहुत अच्छी थी। पर इन सबके बावजूद उनका हिंदी प्रेम एक अनोखी मिसाल बन गया।

इसकी कुछ-कुछ प्रेरणा उन्हें स्वदेशी आंदोलन से मिली। फिर बालकृष्ण भट्ट सरीखे हिंदी के विद्वान साहित्यकार उनके गुरु थे, जिनके सान्निध्य में उनका हिंदी-प्रेम परवान चढ़ा। टंडनजी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे ऊपर से संत सरीखे सरल नजर आते थे, पर उनके भीतर एक आदि विद्रोही एवं क्रांतिकारी योद्धा भी बैठा था, जो किसी भी अन्याय के विरोध में तनकर खड़ा हो जाता था। एक बार वे कोई फैसला कर लेते तो कोई उन्हें सत्य पथ से डिगा नहीं सकता था। 

ललित गर्ग
ललित गर्ग
आपका सहयोग ही हमारी शक्ति है! AVK News Services, एक स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार प्लेटफॉर्म है, जो आपको सरकार, समाज, स्वास्थ्य, तकनीक और जनहित से जुड़ी अहम खबरें सही समय पर, सटीक और भरोसेमंद रूप में पहुँचाता है। हमारा लक्ष्य है – जनता तक सच्ची जानकारी पहुँचाना, बिना किसी दबाव या प्रभाव के। लेकिन इस मिशन को जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की आवश्यकता है। यदि आपको हमारे द्वारा दी जाने वाली खबरें उपयोगी और जनहितकारी लगती हैं, तो कृपया हमें आर्थिक सहयोग देकर हमारे कार्य को मजबूती दें। आपका छोटा सा योगदान भी बड़ी बदलाव की नींव बन सकता है।
Book Showcase

Best Selling Books

The Psychology of Money

By Morgan Housel

₹262

Book 2 Cover

Operation SINDOOR: The Untold Story of India's Deep Strikes Inside Pakistan

By Lt Gen KJS 'Tiny' Dhillon

₹389

Atomic Habits: The life-changing million copy bestseller

By James Clear

₹497

Never Logged Out: How the Internet Created India’s Gen Z

By Ria Chopra

₹418

Translate »