पहाड़ी जीने के तरीकों पर सोच बदलनी होगी

पहले उत्तराखंड और अब हिमाचल प्रदेश की आपदाओं ने पहाड़ी जीवन पर अनेक सवाल खड़े कर दिये हैं, क्या पहाड़ी जीवन असंभव हो जायेगा या हमें नाजुक पहाड़ों पर सुरक्षित एवं निष्कंटक जीने के लिये नये तरीके से जीना सीखना होगा। इन पहाड़ों में भारी बारिश व भूस्खलन से जान-माल की तबाही चिंतित करने वाली है। पहाड़ों में यह पहली बार नहीं है कि इतनी तबाही हुई है। इससे पहले भी देश के पहाड़ी राज्यों में ऐसी तबाही होती रही है। इनमें न सिर्फ बड़ी संख्या में लोगों को जान गंवानी पड़ रही है, बल्कि निजी और सरकारी संपत्तियों को भी बड़ा नुकसान होता जा रहा है। ऐसे हालात में सवाल यही उठता है कि बार-बार की आपदाओं के कारण हो रही तबाही को न्यूनतम करने की दिशा में कदम उठाने के लिए हमने सबक क्या लिया?
क्या पहाड़ों पर सामान्य धरती यानी मैदानी क्षेत्रों की तरह विकास योजनाओं, सड़क, भवन निर्माण, टनल, औद्योगिक उपक्रम, पर्यटन आदि को आकार देना उचित है। भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं के कारणों की पड़ताल जरूरी है।

पहाड़ों पर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगातार हो रहे भूस्खलन की एक बड़ी वजह हैं। प्रोजेक्ट के दौरान टनल बनाने के लिए विस्फोट किए जाते हैं। भारी मशीनों के इस्तेमाल से पहाड़ों पर तेज कंपन होता है। हिमाचल प्रदेश का इकोसिस्टम अभी काफी संवेदनशील है। इन राज्यों में लगातार वृ़क्षों को  काटने एवं मौजूद पहाड़ों की उम्र भी कम होने की वजह से लैंडस्लाइड की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन को भी भूस्खलन के बढ़ते मामलों की एक वजह माना जा सकता है। पिछले साल फरवरी में नासा ने एक रिपोर्ट जारी की थी। इसके मुताबिक क्लाइमेंट चेंज से हिमालयी के ग्लेशियर झील वाले इलाकों में जून से सितंबर के दौरान लैंडस्लाइड बढ़ सकती है। साथ ही इससे बाढ़ की आपदा से जूझना पड़ सकता है। लेकिन ऐसे पूर्व अनुमानों से हमने क्यों नहीं सबक लिया?

हिमालय आज चिन्ताओं का हिमालय बन गया है। कुछ दशकों में खासकर हिमालयी क्षेत्र के राज्यों में विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हुआ है। इतना ही नहीं, प्रकृति से खिलवाड़ कर नियमों के खिलाफ ऐसा निर्माण खड़ा किया जा रहा है, जो बाढ़ और भूस्खलन के साथ बर्बादी लेकर आया है। सवाल यह भी है कि पहाड़ी राज्यों में विकास का क्या पैमाना होना चाहिए? अगर विकास के नाम पर कहीं निर्माण गतिविधियां आवश्यक हों तो वह नियोजन के साथ ही आपदाओं को झेलने में सक्षम होनी चाहिए। आम तौर पर देखा गया है कि इन राज्यों में पर्यटन को बढ़ावा देेने के नाम पर ऐसी बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हो गईं जो न सिर्फ बाढ़ और भूस्खलन झेलने में अक्षम साबित हुईं, बल्कि पर्यावरण के हिसाब से भी नुकसानदेह रही हैं। ऐसे निर्माण में सरकारी स्तर पर सतर्कता की जो उम्मीद की जाती है, उसे नजरअंदाज किया गया।

हमने पहाड़ों को बाजारवाद केे हवाले कर दिया है, वहां पर जिस तरह का आधारभूत ढांचा गत क्षेत्र से लेकर आवास क्षेत्र, होटलों  आदि तक में अंधाधुंध निर्माण कार्य किया है और पहाड़ों को एक तरफ खोदा है और दूसरी तरफ उन पर क्रंक्रीट का निर्माण कार्य करके बोझ बढ़ा दिया है उससे प्रकृति द्वारा निर्मित इन मनोहर स्थानों का स्वरूप बदल रहा है। पिछले दिनों हमने बद्रीनाथ तीर्थ की यात्रा के आधार नगर जोशीमठ की हालत देखी थी कि किस प्रकार यह शहर दरकने लगा है।

उससे पहले श्री केदारनाथ धाम में आयी विनाश लीला को भी देखा था। यह सब पहाड़ों पर बोझ बढ़ाने का ही नतीजा है और पहाड़ों को बेहिसाब तरीके से काटने व खोदने का ही नतीजा है। अगर कालका-शिमला राजमार्ग पर सोलन तक की दूरी में ही दस जगह भूस्खलन होता है तो हमें सोचना पड़ेगा कि गलती कहां हुई है। यदि शिमला शहर की पहाड़ियों पर ही मकान ढहने लगते हैं तो हमें सोचना पड़ेगा कि ऐसे स्थानों में भवन निर्माण के नियम क्या हैं?

शिमला की घटनाओं ने अधिक चिन्ता में डाला है। राजधानी एवं अधिक सक्रिय, जनबहुल एवं पयर्टन नगर होने की बजह से शिमला में जो दृश्य देखें गये, वे अधिक डरावने, चिन्ताजनक एवं दहशतभरे थे। शिमला के कृष्णा नगर इलाके में 15 अगस्त को लैंडस्लाइड के चलते यहां कई मकान ढह गए। अपने आस-पास दशकों से रह रहे लोगों के घर ढहते देख पड़ोसी अपनी चीखें नहीं रोक पाए, भूस्खलन के बाद समूचे देश ने मचा हाहाकार देखा है। लेकिन जब ज़मीन धंसकती है और आपकी आंखों के सामने सब-कुछ नष्ट हो जाता है, वो बेबसी सरकारी योजनाओं, विकास प्रक्रियाओं एवं असंवेदनहीन होती सोच पर सवाल खड़ा करती है। शिमला के ही समर हिल इलाक़े में बादल फटने के बाद भूस्खलन हुआ।

चपेट में इलाक़े का शिव मंदिर भी आ गया, जहां सावन का सोमवार होने के चलते भीड़ कुछ अधिक थी। ज़मीन इतनी तेज़ी से धंसी कि किसी को कुछ करने का मौका नहीं मिला। मंदिर के मलबे से अभी तक कुल लगभग 25 शवों को निकाला गया है। 14 अगस्त को ही शिमला में एक और जगह फागली पर भूस्खलन हुआ। यहां पांच लोगों की मौत हो गई। सोलन ज़िले में भी 7 लोगों के मर जाने की ख़बर है।

भारी वर्षा ने जिस तरह विनाश का खेल खेला है उससे पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के लिए की जा रही विभिन्न गतिविधियों पर सवालिया निशान लग रहे हैं और भूगर्भ शास्त्री इस बारे में चेतावनियां भी दे रहे हैं कि पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विकास का पैमाना वह नहीं हो सकता जो मैदानी क्षेत्रों में होता है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के अनुसार अब तक के आकलन के मुताबिक प्राकृतिक आपदा से 10 हज़ार करोड़ रुपयों एवं भारी जानमाल का नुक़सान हो चुका है। ये दर्दनाक एवं त्रासद घटनाएं प्रकृति के साथ तालमेल को नजरअंदाज करने का परिणाम है।

यही वजह है, दोनों पहाड़ी राज्यों के लोगों को भविष्य में अंधाधुंध विकास की दौड़ से बचने के लिए तैयार रहना होगा। प्रकृति हमें आपदाओं के साथ यही संकेत और संदेश दे रही है कि विभिन्न स्तरों पर और निरंतर बहुत कुछ करने की जरूरत है। जिम्मेदारी सरकार और वहां के लोगों की है कि वे नाजुक पहाड़ी जीवन की मर्यादा, संयम, सादगी और पवित्रता को बनाए रखें। हर कोई जीवन में सुख-समृद्धि हासिल करना चाहता है लेकिन अंधाधुंध निर्माण गतिविधियों पर नियंत्रण बनाने की जरूरत है। पहाड़ों के प्राकृतिक स्वरूप से अधिक छेड़छाड़ किए बिना संतुलित विकास हो।

पर्यावरण विशेषज्ञों एवं जानकारों के अनुसार हिमाचल प्रदेश की सड़कों को चौड़ा करने के लिए पहाड़ों को ऊपर से काटा जा रहा है। इसी वजह से भूस्खलन की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। पहाड़ी इलाकों में इंसानी एवं पर्यटन गतिविधियां लगातार बढ़ती जा रही है। इस वजह से पहाड़ों का संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। बारिश के मौसम में या फिर बारिश के बाद पहाड़ों की नींव कमजोर हो जाती है। इसी वजह से पहाड़ टूटकर गिरने लगते हैं। भूस्खलन की एक बड़ी वजह वनों को काटना भी हैं। दरअसल पेड़ों की जड़े मिट्टी पर मजबूती के साथ पकड़ बनाती है। इसके साथ ही पहाड़ों के पत्थरों को भी बांधकर रखती हैं। पेड़ों को काटने से यह पकड़ ढ़ीली होती है। इसी वजह से जब बारिश होती है, तो पहाड़ के बड़े-बड़े पत्थर गिरने लगते हैं। शिमला में हो रहे हादसों का भी यही कारण है।

मनुष्य का लोभ एवं संवेदनहीनता भी पहाड़ों में त्रासदी की हद तक बढ़ी है, जो वहां के वन्यजीवों, पक्षियों, प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ पहाड़ी जीवन के असंतुलन एवं विनाश का बड़ा सबब बना है। भारत को अपने पहाड़ों की विकास नीति तैयार करनी होगी। इस काम में भूगर्भ शास्त्रियों की ही प्रमुख भूमिका हो सकती है। हिमाचल के मुख्यमन्त्री श्री सुक्खू जब यह स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि पहाड़ों पर पूरी तरह गैर वैज्ञानिक तरीके से अंधाधुंध निर्माण करा कर और सड़कों को चौड़ी करने के मोह में पहाड़ों को अंधाधुंध काट कर हमने इस मुसीबत को खुद दावत दी है तो पूरे देश को विचार करना चाहिए कि प्रकृति का बिना जाने-बूझे शोषण करने का क्या नतीजा हो सकता है?

ललित गर्ग
ललित गर्ग
आपका सहयोग ही हमारी शक्ति है! AVK News Services, एक स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार प्लेटफॉर्म है, जो आपको सरकार, समाज, स्वास्थ्य, तकनीक और जनहित से जुड़ी अहम खबरें सही समय पर, सटीक और भरोसेमंद रूप में पहुँचाता है। हमारा लक्ष्य है – जनता तक सच्ची जानकारी पहुँचाना, बिना किसी दबाव या प्रभाव के। लेकिन इस मिशन को जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की आवश्यकता है। यदि आपको हमारे द्वारा दी जाने वाली खबरें उपयोगी और जनहितकारी लगती हैं, तो कृपया हमें आर्थिक सहयोग देकर हमारे कार्य को मजबूती दें। आपका छोटा सा योगदान भी बड़ी बदलाव की नींव बन सकता है।
Book Showcase

Best Selling Books

The Psychology of Money

By Morgan Housel

₹262

Book 2 Cover

Operation SINDOOR: The Untold Story of India's Deep Strikes Inside Pakistan

By Lt Gen KJS 'Tiny' Dhillon

₹389

Atomic Habits: The life-changing million copy bestseller

By James Clear

₹497

Never Logged Out: How the Internet Created India’s Gen Z

By Ria Chopra

₹418

Translate »