चुनाव कब तक विसंगतियों पर सवार होते रहेंगे?

लोकसभा एवं पांच प्रांतों में विधानसभा चुनाव सन्निकट है, जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, हैसियत से आगे निकलकर राजनीतिक दल जनता को मुफ्त की रेवड़िया एवं सुविधाएं देने के लिए वादों का पिटारा खोलते जा रहे हैं, चुनाव सुधार की दिशा में सार्थक कदम इन चुनावों में भी उठते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिताऊ उम्मीदवार अब भी राजनीतिक दलों की चुनाव प्रक्रिया पर हावी है, धनबल एवं बाहुबल का ही वर्चस्व एक बार फिर देखने को मिले, तो कोई आश्चर्य नहीं है। योग्यता और उपलब्धियां एक बार फिर हवा होगी। प्रश्न है कि चुनाव सुधार की प्रक्रिया कब मजबूती से आगे बढ़ेगी, चुनाव जनतंत्र की जीवनी शक्ति है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है।

जनतंत्र के स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता, पारदर्शिता और उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत होने पर लोकतंत्र की जड़े खोखली होती चली जाती हैं। चुनाव प्रक्रिया महंगी एवं धन के वर्चस्व वाली होने से विसंगतिपूर्ण एवं लोकतंत्र की आत्मा का हनन करने वाली हो जाती है। करोड़ों रुपए का खर्चीला चुनाव, अच्छे लोगों के लिये जनप्रतिनिधि बनने का रास्ता बन्द करता है और धनबल एवं धंधेबाजों के लिये रास्ता खोलता है। हाल के वर्षों में चुनाव सुधार की दिशा में जितने भी कदम उठे हैं, उनमें राजनीतिक दलों की बजाय सर्वाेच्च न्यायालय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है या फिर चुनाव आयोग की।

लोकप्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत चुनाव आयोग भारत में चुनाव कराता है। साल 1990 में जब टीएन शेषन देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाए गए तो उन्होंने चुनाव सुधारों की दिशा में वे कदम उठाए जो असंभव समझे जाते थे। शेषन चुनाव-सुधार के प्रेरक बने एवं उन्होंने क्रांतिकारी कदम उठाते हुए पहली बार देश को अहसास कराया कि चुनाव आयोग नामक कोई दमदार संस्था भी होती है, जो चाहे तो बंदूकों के दम पर बूथ लूटने वाले आपराधिक तत्वों पर लगाम लगा सकती है। तभी पता चला कि चुनावी प्रशासन कितना कठोर और अनुशासनबद्ध हो सकता है।

शेषन के बाद चुनाव आयोग सक्रिय हुआ है, लेकिन शेषन जैसे प्रभावी कदम उठाने की कमी अब भी दिखाई दे रही है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल, मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान एवं राजस्थान में अशोक गहलोत सरकारों ने मुफ्त की रेवड़िया बांटने की झड़ी लगा रखी है। धनबल एवं बाहुबल के बाद इन वर्षों में सर्वाधिक मुक्त सुविधाएं देने की घोषणाएं समूची लोकतांत्रिक प्रणाली को दूषित करने का सबब बन रही है। इस तरह की बुराई एवं विकृति को देखकर आंख मंूदना या कानों में अंगुलियां डालना जनता की राष्ट्र के प्रति उदासीनता का द्योतक है, जरूरत इसके विरोध में व्यापक जनचेतना को जगाने की है। यह समस्या या विकृति किसी एक प्रांत की नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र की लोकतांत्रिक समस्या है।

साल 2015 में चुनाव आयोग ने अपनी चुनावी गाइड लाइन में कहा था कि राजनीतिक दल चुनावी मैदान में उतरते वक्त मतदाताओं से जो वादे करते हैं, उन्हें यह भी बताना होगा कि किस स्रोत से सत्ता में आने के बाद उन्हें पूरा करेंगे। ऐसी गाइन लाइन का पालन कहां होता है? आम चुनाव एवं पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर चुनाव आयोग को चाहिए कि कम से कम इस बार अपने दिशा-निर्देशों को सख्ती से लागू करे। चूंकि राजनीति में सेवा अब ज्यादातर दिखावटी हो गई है, मकसद व्यक्तिगत और दलगत दोनों स्तरों पर सिर्फ सत्ता प्राप्ति ही रह गया है। मुफ्त की रेवडियां बांटने या अतिश्योक्तिपूर्ण सुविधाओं की घोषणाएं करने के पीछे भी मकसद यही है।

इस पूरी प्रक्रिया में अंततः नुकसान जनता को ही होता है। तरह-तरह के नये टैक्स और महंगाई के बोझ से आखिर जनता ही दबती है। अब जरूरी हो गया है कि साल 2015 के अपने ही दिशा-निर्देश को कड़ाई से लागू करने की दिशा में चुनाव आयोग आगे बढ़े। राजनीतिक दल जनता को बताएं कि जो वादे वे कर रहे हैं उन्हें किस स्रोत से पूरा करेंगे। तब मतदाता भी फायदा या नुकसान समझ पाएगा। तब शायद वोट देते वक्त वह अपने विवेक पर भरोसा करने की दिशा में भी आगे बढ़ना शुरू कर सकेगा। चुनावों में धनबल का बढ़ता प्रयोग एवं मुफ्त रेवड़िया बांटने का दूषित एवं पूर्वाग्रहपूर्ण प्रचलन चिन्ता का सबब होना चाहिए। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, चौपट काम-धंधें एवं जीवन संकट के समाधान में क्या पांच राज्यों के विधानसभा एवं अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव कोई आदर्श प्रस्तुत कर पायेेंगे?

इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, जो लोग चुनाव जीतने के लिए इतना अधिक खर्च कर सकते हैं तो वे जीतने के बाद क्या करेंगे, पहले अपनी जेब को भरेंगे, आम जनता पर आर्थिक दबाव बनायेंगे। और मुख्य बात तो यह है कि यह सब पैसा आता कहां से है? कौन देता है इतने रुपये? धनाढ्य अपनी तिजोरियां तो खोलते ही है, कई कम्पनियां हैं जो इन सभी चुनावी दलों एवं उम्मीदवारों को पैसे देती हैं, चंदे के रूप में। चन्दा के नाम पर यदि किसी बड़ी कम्पनी ने धन दिया है तो वह सरकार की नीतियों में हेरफेर करवा कर लगाये गये धन से कई गुणा वसूल लेती है। इसीलिये वर्तमान की भारतीय राजनीति में धनबल का प्रयोग चुनाव में बड़ी चुनौती है।

यथार्थ में देखा जाए तो जनतंत्र अर्थतंत्र बनकर रह जाता है, जिसके पास जितना अधिक पैसा होगा, वह उतने ही अधिक वोट खरीद सकेगा। सभी दल पैसे के दम पर चुनाव जीतना चाहते हैं, जनता से जुड़े मुद्दों एवं समस्याओं के समाधान के नाम पर नहीं। कोई भी ईमानदारी और सेवाभाव के साथ चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। राजनीति के खिलाड़ी सत्ता की दौड़ में इतने व्यस्त है कि उनके लिए विकास, जनसेवा, सुरक्षा, महामारियां, आतंकवाद, बेरोजगारी, महंगाई की बात करना व्यर्थ हो गया है। सभी पार्टियां जनता को गुमराह करती नजर आती है। सभी पार्टियां नोट के बदले वोट चाहती है। राजनीति अब एक व्यवसाय बन गई है। सभी जीवन मूल्य बिखर गए है, धन तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सत्ता का अर्जन सर्वाेच्च लक्ष्य बन गया है, बात चाहें विधानसभा चुनावों की हो या लोकसभा चुनाव की। लेकिन इस तरह लोकतंत्र की आत्मा का ही हनन होता है, इस सबसे उन्नत एवं आदर्श शासन प्रणाली पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं।

आगामी चुनावों की सबसे बड़ी विडम्बना एवं विसंगति भी जो सामने आने वाली है वह यह है कि चुनाव आर्थिक विषमता की खाई को पाटने की बजाय बढ़ाने वाले साबित होंगे। क्योंकि ये चुनाव अब तक के सर्वाधिक खर्चीले होने जा रहे हैं, इन चुनावों से पहले जिस तरह की सुविधाएं दी जा रही है या देने की घोषणाएं की जा रही हैं, वे नयी बनने वाली सरकारों के लिये बड़ी चुनौती होगी। संभव है ऐसी अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं मुफ्त रेवड़िया बांटने वाले दलों की सरकारें बन भी जाये। लेकिन प्रश्न है कि वे  इन आश्वासनों एवं घोषणाओं को पूरा करने के लिये धन कहां से लायेंगे? जैसाकि ‘मुफ्त’ के वादे के साथ पंजाब में आम आदमी पार्टी सत्तारूढ़ तो हो गई, पर अब उसके बोर्डों और निगमों को पैसे की कमी से जूझना पड़ रहा है। यही हाल दिल्ली का भी है।

दिल्ली परिवहन निगम में सालों से नई बसें नहीं आईं, सड़कों का बदहाल है और निगम करीब पैंतालीस हजार करोड़ के घाटे में है। दिल्ली जल बोर्ड भी सत्तर हजार करोड़ के घाटे में है। पंजाब में पुरानी पेंशन योजना लागू करना भी कठिन हो गया है। जबकि सत्ताधारी दल ने चुनाव लड़ते वक्त इसका वादा किया था। हिमाचल में भी पुरानी पेंशन और महिलाओं को मासिक भत्ता देने का वादा करके कांग्रेस सत्ता में आई। पर बढ़ते आर्थिक बोझ के चलते वादे लागू करना मुश्किल पड़ता जा रहा है। मई में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पांच गारंटियों का वादा करके जीत गई। पर अब गारंटी पूरा करना कठिन होता जा रहा है। सामान्य विकास के लिए धन की कमी पड़ती है तो इन सुनहरें सपनें दिखाने वाली घोषणाओं को आकार देने एवं पूरा करने के लिये धन कहां से आयेगा? आखिर कब तक चुनाव इस तरह की विसंगतियों पर सवार होता रहेगा?

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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