वन-संस्कृति को अक्षुण्ण रखना बड़ी चुनौती

-अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस 2025- 21 मार्च, 2025-

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में वनों का सर्वाधिक महत्व रहा है, वन ऑक्सीजन, भोजन, ईंधन, दवाइयां, सुगंध, कागज़, और कपडे़ और कई तरह की चीज़ें देते हैं। वन जहां वैश्विक तापमान को बनाए रखने में मदद करते हैं वहीं वर्षा को नियंत्रित करते हैं। वन भूमि कटाव और बाढ़ पर नियंत्रण रखते हैं तो प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं। वन जहां सूखे को नियंत्रित करते हैं वहीं वे कई तरह के जीवों के लिए प्राकृतिक आवास एवं वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए जीन कोष का काम करते हैं। हमारी संस्कृति में जो सुन्दरतम और श्रेष्ठतम है, उसका उद्भव इन्हीं वनों में हुआ है। वन जीवन-ऊर्जा के स्रोत एवं गति के माध्यम है। हमारे संस्कारों पर नन्दनवन के सौंदर्य और माता सीता के कारण अशोक वन के करुणापूर्ण वातावरण की छाप लगी हुई है और वृन्दावन में भगवान श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रेम आच्छादित है।

हालांकि, आधुनिक युग में लोभ, लालच एवं संवेदनहीनता से वनों की कटाई तेज़ी से बढ़ गई है, इससे प्रदूषण, मिट्टी का कटाव और जलवायु परिवर्तन जैसी कई जटिल एवं विनाशकारी समस्याएं पैदा हो रही हैं। वनों की कटाई से वनों पर निर्भर लोगों एवं वन्य जीवों का जीवन खतरे में है, इनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ रहा है। वृक्षों की नीली छटा के लिए जो प्रेम था, जो शक्ति थी, जो जीवन था, वह कम न हो इसी उद्देश्य से विश्व वानिकी दिवस हर साल 21 मार्च को मनाया जाता है। 2012 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वानिकी के महत्व पर ध्यान केंद्रित करने और जागरूकता फैलाने के लिए इस दिन की स्थापना की। वनों के महत्व और पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में उनकी भूमिका के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए यह दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2025 की थीम है ‘वन और खाद्य पदार्थ’, जो खाद्य प्रणालियों में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान आकर्षित करता है। इसका उद्देश्य खाद्य सुरक्षा, पोषण और आजीविका में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करना है। भोजन प्रदान करने के अलावा, वन स्वस्थ मिट्टी को बनाए रखते हुए और जल स्रोतों की रक्षा करते हुए ईंधन, आय और रोजगार भी प्रदान करते हैं। इस वर्ष की थीम विश्व की बड़ी शक्तियों एवं नीति निर्माताओं से जलवायु परिवर्तन के केंद्र में वनों को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनाने का आग्रह करती है।

विश्व वानिकी दिवस का संदेश वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए वनों की सुरक्षा और देखरेख का आह्वान करता है, वनों के संरक्षण के लिये कदम उठाने और सकारात्मक प्रभाव पैदा करने का सुझाव देती है। यह आशा और आशावाद की भावना व्यक्त करता है, लाभकारी परिवर्तन की क्षमता को रेखांकित करता है। इसमें वन संरक्षण के पारिस्थितिक, सामाजिक और आर्थिक पहलू शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन से निपटने में वन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वे व्यापक कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं जो प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम से वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं। यह तंत्र वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने और ग्रीनहाउस गैसों एवं ओजोन को नुकसान के स्तर को कम करने में सहायता करता है।

इसके विपरीत, वनों की कटाई से संग्रहित कार्बन वापस वायुमंडल में चला जाता है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग और भी बदतर हो जाती है। इसलिए, जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए वनों की रक्षा और उन्हें बहाल करना बहुत जरूरी है। वन पौधों और जानवरों की आश्चर्यजनक विविधता का घर हैं, जो पृथ्वी की स्थलीय जैव विविधता का एक बड़ा हिस्सा बनाते हैं। वे सूक्ष्म कवक से लेकर बड़े स्तनधारियों तक कई जीवों के लिए आवश्यक आवास प्रदान करते हैं। वनों के लुप्त होने से आवास विखंडन और प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ रहा है और पारिस्थितिकी तंत्र की लचीलापन कम हो रहा है। वन केवल लकड़ी के स्रोत नहीं हैं, वे भोजन और पोषण के महत्वपूर्ण स्रोत भी हैं। वन मानव अस्तित्व और पर्यावरण संतुलन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।

विश्व वानिकी दिवस इस बात की प्रबल याद दिलाता है कि हमारे ग्रह का स्वास्थ्य और कल्याण हमारे वनों की भलाई से निकटता से जुड़ा हुआ है। वन संरक्षण केवल एक पर्यावरणीय चिंता नहीं है, यह एक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आवश्यकता है। वनों के विविध महत्व को स्वीकार करके और उनकी सुरक्षा के लिए एकीकृत कार्रवाई करके, हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं। हमें अपनी वन-प्रधान संस्कृति की ओर अभिमुख होना चाहिए। जब तक समस्त जीवन को एक रूप में देखने की कला हम फिर से नहीं सीखेंगे तब तक हममें न राष्ट्रीय आत्मविश्वास आयेगा, न पर्यावरण चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होंगे और न इस भयंकर परिस्थिति से पार उतरने की शक्ति आयेगी। भारत में कभी भी अन्न की कमी नहीं थी।

भूतकाल में भारत धान्य और धन से समृद्ध था। आज अन्न न्यूनता हमारे सामने तांडव कर रही है। जो धरा अभी तक ‘सजलां सफलां शस्य श्यामलां’ थी, वह क्षीण एवं बंजर होती जा रही है। वन का मानव जीवन से गहरा अन्तर्संबंध है। क्योंकि वन है तो वृक्ष है। वृक्ष ही जल हैं, जल रोटी है और रोटी ही जीवन है, यह बड़ा सत्य है। आज सभी भारतीय हृदयों में लोभ से असन्तोष उभरा है। क्योंकि हमारे खाने को अन्न नहीं। हमारे पास अन्न नहीं है; क्योंकि पानी संग्रह करने की पुरानी पद्धति हम हस्तगत नहीं कर सके। हमारे पास पानी नहीं है, वर्षा अनिश्चित है; क्योंकि हम तरु-महिमा भूल गये हैं। हजारों वर्षाें तक हम जीवित रहे; क्योंकि हम वन-विहारी लोग थे, लेकिन आज हमारी दृष्टि संकुचित हो गई। वृक्षों को हम काटने लगे। वृक्षारोपण आज एक फैशन बन गया है, परन्तु उसमें जो धार्मिक श्रद्धा का तत्त्व था, वह चला गया।

हमारी सारी संस्कृति वन-प्रधान है। ऋग्वेद, जो हमारी सनातन शक्ति का मूल है, वन-देवियों की अर्चना करता है। मनुस्मृति में वृक्ष-काटने को बड़ा पाप माना गया है। तालाबों, नदियों, सड़कों या सीमा के पास वृक्षों को काटना बड़ा गम्भीर अपराध था। उसके लिए दण्ड का भी बड़ा कड़ा प्रावधान रहता था, आज भी है। लेकिन आज कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है।

वनों के परिपार्श्व में ही अनेक ऋषियों ने कठोर साधना की है, बुद्ध भगवान् को वटवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वेदों में पर्वतों और नदियों, मेघों के गर्जन और बिजली की कड़क, भयानक प्रचण्ड वायु, प्रभात सुषमा, शीतल झरने, वृक्ष और वनों का वर्णन आता है। रामायण और महाभारत के घटनास्थल बहुधा वनों में ही हैं। महाभारत में खाण्डव वन के जलने का उल्लेख है और रामायण में पंचवटी वन की रमणीयता का वर्णन किया गया है। पुराणों में वृक्षों के महात्म्य, वृक्षारोपण के पुण्य और वृक्ष काटने के पाप के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है। अग्निपुराण में गृह निर्माता से कहा गया है कि घर के उत्तर में पलाश, पूर्व में बड़, दक्षिण में शाम और पश्चिम में अश्वत्थ के वृक्ष लगाने चाहिए। दक्षिणावर्ती सीमा पर काँटेदार झाड़ी लगानी चाहिए, घर के पास ही फूलों का एक बगीचा लगाना चाहिए। जिसमें फूलों के पौधे और शीशम के वृक्ष लगाये जायंे। इसी पुराण में वृक्षों की पूजा का महात्म्य बताया गया है।

आज वन-संस्कृति एवं वन-सोच पर तरह-तरह के हमले हो रहे हैं। मनुष्य का लोभ एवं संवेदनहीनता भी त्रासदी की हद तक बढ़ी है, जो वनों, वन्यजीवों, पक्षियों, प्रकृति, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी, पर्यावरण के असंतुलन एवं विनाश का बड़ा सबब बना है। जीवन के अनेकानेक सुख, संतोष एवं रोमांच में से एक यह भी है कि हम कुछ समय वनों एवं पशु-पक्षियों के साथ बिताने में लगाते रहे हैं, अब ऐसा क्यों नहीं कर पाते? क्यों हमारी सोच एवं जीवनशैली का प्रकृति-प्रेम विलुप्त हो रहा है? क्यों वन-संस्कृति क्षत-विक्षत है? मनुष्य के हाथों से रचे कृत्रिम संसार की परिधि में प्रकृति, पर्यावरण, वन, वन्यजीव-जंगल एवं पक्षियों का कलरव एवं जीवन-ऊर्जा का लगातार खत्म होते जाना जीवन से मृत्यु की ओर बढ़ने का संकेत है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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