गुरु रामदास जयंती अवसर पर-
गुरु राम दास जी की जयंती सभी सिखों के लिए महत्वपूर्ण दिनों में से एक है, क्योंकि इस दिन, वो सिख समुदाय में उनके योगदान के लिए उनका सम्मान करते हैं। उनका जन्म 24 सितंबर, 1534 को हुआ था, लेकिन उनके भक्त 9 अक्टूबर को उनकी जयंती मनाते हैं। 24 सितंबर, 1534 को लाहौर की चूना मंडी में सोढ़ी खत्री परिवार में जन्म हुआ. उनके पिता हरि दास और माता दया कौर का देहांत तब हो गया था जब वो केवल 7 वर्ष के थे। उनका पालन-पोषण उनकी दादी ने किया और बारह साल की उम्र में उन्होंने गुरु अमर दास को अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। गुरु राम दास के तीन पुत्र थे, जिनमें से उनके सबसे छोटे पुत्र गुरु अर्जन उनकी मृत्यु के बाद पांचवें गुरु बने। ये सिख समुदाय के चौथे गुरु बनने के बाद, उन्हें गुरु अमर दास के पुत्रों से शत्रुता का सामना करना पड़ा था और इस कारण से वो स्थानांतरित हो गए और दूसरे शहर में अपना आधिकारिक आधार बना लिया। नए शहर को रामदासपुर कहा जाता था, लेकिन बाद में इसका नाम बदलकर अमृतसर कर दिया गया, जो सिख समुदाय का सबसे पवित्र शहर था।

अपने जीवनकाल के दौरान, उन्होंने कई महान कार्य किए, जिनमें से धार्मिक और आर्थिक रूप से सिख आंदोलन का समर्थन करने के लिए लिपिक नियुक्तियों और दान संग्रह के लिए मांजी संगठन का विस्तार करना शामिल है। सिख समुदाय में गुरु राम दास के योगदान को याद करने के लिए, उनके भक्त इस साल 9 अक्टूबर को उनकी जयंती मनाएंगे. उनके योगदान को उनके भक्तों द्वारा जाना जाता है और ये उन्हें सिखों के विशेष गुरुओं में से एक बनाता है।
उन्होंने मिशनरी कमांड की स्थापना की और लगभग 688 भजन लिखे। . उनका लेखन समाज के प्रति निश् प्रेम और प्रतिबद्धता के बारे में था। उनके जन्मदिन की तैयारी गुरु राम दास जयंती से ग्यारह दिन पहले शुरू हो जाती है। संगत नाम का एक धार्मिक समूह रेहरा करता है और गुरु राम दास के मंत्रों का जाप करता है, जिन्हें शबद कहा जाता है. इसके अलावा, इस दिन, भक्त गुरुद्वारों में जाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं।
सिक्ख धर्म की प्रगति में एक मील का पत्थर साबित हुआ। गुरू रामदास साहिब जी ने सिख धर्म को आनन्द कारज’ के लिए – चार लावों’ (फेरों) की रचना की और सरल विवाह की गुरमत मर्यादा को समाज के सामने रखा। इस प्रकार उन्होने सिक्ख पंथ के लिए एक विलक्षण वैवाहिक पद्धति दी। इस प्रकार इस भिन्न वैवाहिक पद्धति ने समाज को रूढिवादी परम्पराओं से दूर किया। बाबा श्रीचंद जी के उदासी संतों व अन्य मतावलम्बियों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। गुरू साहिब जी ने अपने गुरूओं द्वारा प्रदत्त गुरू का लंगर प्रथा को आगे बढाया। इनके द्वारा अन्धविश्वास, वर्ण व्यवस्था आदि कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया गया। उन्होंने ३० रागों में ६३८ शबद् लिखे जिनमें २४६ पौउड़ी, १३८ श्लोक, ३१ अष्टपदी और ८ वारां हैं और इन सब को गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित किया गया है। उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र अरजन साहिब को पंचम् नानक’ के रूप में स्थापित किया। इसके पश्चात वे अमृतसर छोड़कर गोइन्दवाल चले गये। भादौं सुदी ३ (२ आसू) सम्वत १६३८ (१ सितम्बर १५८१) को ज्योति जोत समा गए।
