मैं बाइक लेकर घर से निकला ही था कि पैदल जा रहे युवक ने लिफ्ट का इशारा किया। मैं ने तुरंत बाइक रोकी और युवक को अपनी गाड़ी पर बैठा लिया।
दरअसल पैदल चलते लोगों को लिफ्ट देकर आगे तक छोड़ने में मुझे आत्मीय सुख मिलता था। हां, एक बात जरूर थी, मैं केवल पुरुषों को ही लिफ्ट देता। महिलाओं को तभी अपनी गाड़ी पर बैठाता, जब वह जान पहचान की होती। अंजान महिला को लिफ्ट देने से मैं हमेशां बचता रहा हूं।
एक दिन शाम के समय मैं आफिस से घर लौट रहा था। घर से कुछ पहले मार्ग सूनसान रहता है। वहां एक महिला ने हाथ का इशारा कर रुकने का संकेत दिया। मैं समझ गया, यह महिला लिफ्ट मांग रही है। मन ने किया बाइक को रोक कर महिला को बैठा लूं। यूं सोच कर एक बार तो बाइक की स्पीड धीमी की। तभी मन आशंका से भर उठा। सोचा इस अनजान महिला को लिफ्ट देना खतरनाक भी हो सकता है।
यह विचार आते ही मैंने पुनः गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी।
दूसरे दिन सुबह अखबार पढ़ने बैठा तो एक समाचार पर जाकर नजर ठहर गई। लिखा था, हार्टअटैक आने से बीच सड़क महिला की मौत। साथ में फोटो भी छपा था। मैंने देखा, यह तो वही महिला है, जिसने मुझे रुकने का इशारा किया था। अब समझ में आया कि उस महिला ने मदद के लिए मुझे रुकने का इशारा किया था। काश ! मैं रुक कर एक बार उसकी बात सुन लेता।
मिश्रीलाल पंवार
जोधपुर इकाई, महा सचिव, जर्नलिस्ट एसोसिएशन आफ राजस्थान
मानव अधिकार सेवा संघ राष्ट्रीय सेन्टर कमेटी सदस्य
“सूनसान सड़क और वह महिला”
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