उदास लोगों का देश बनना भारत की एक त्रासदी

भारत उदास, निराश एवं थके हुए लोगों का देश बनता जा रहा है। हम प्रसन्न समाजों की सूची में अव्वल नहीं आ पा रहे हैं। आज अक्सर लोग थके हुए, उदास, निराश नज़र आते हैं, बहुत से लोग हैं जो रोज़मर्रा के काम करने में ही थक जाते हैं। उनका कुछ करने का ही मन नहीं होता। छोटे-मोटे काम भी थकाऊ और उबाऊ लगते हैं। विडम्बना तो यह है कि लम्बे विश्राम एवं लम्बी छुट्टियों के बाद भी हम खुद को तरोताजा नहीं बना पा रहे हैं। भारत में ऐसे लोगों का प्रतिशत लगभग 48 तक पहुंच गया है, जो चिन्ता का बड़ा सबब है। ऐसे थके एवं निराश लोगों के बल पर हम कैसे विकसित भारत एवं नये भारत का सपना साकार कर पायेंगे? यह सवाल सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर दे रहा है, वहीं नीति-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां समाज निर्माण में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार थके हुए लोगों के देश के रूप में पहचाने जा रहे है। खुशहाल देशों की सूची में भी हम सम्मानजनक स्थान नहीं बना पा रहे हैं।

हर साल जारी होने वाली वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट, जो संयुक्त राष्ट्र सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशंस नेटवर्क की प्रस्तुति है, बताती है कि कौन देश सबसे ज्यादा खुश और कौन से देश सबसे ज्यादा दुखी हैं? वैश्विक स्तर पर खुशी का स्तर तय करने के कई पैमाने है, जिनमें लोगों की आजादी, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, आय जैसी बातें शामिल होती हैं। सबसे अधिक दुखी देशों की लिस्ट में पहला नाम अफगानिस्तान का आता है। इस लिस्ट में भारत की रैंकिंग भी बेहद निराश करने वाली है। भारत में उदास एवं निराश लोगों की स्थिति के कई कारण हो सकते हैं-जनसंख्या वृद्धि दर ज्यादा होना, कृषि पर ज्यादा निर्भरता, आर्थिक विकास की दर कम होना, बेरोज़गारी, अशिक्षा, आय में असमानता, भ्रष्टाचार, आंतरिक द्वेष, कमज़ोर आर्थिक नीतियां एवं जटिल प्रशासनिक प्रक्रिया। दुःख जीवन के उतार-चढ़ाव का एक अभिन्न अंग है।

जिस तरह इंसान ख़ुशी, निराशा, उदासी, गुस्सा, गर्व आदि भावनाओं को महसूस करता है, उसी तरह हर कोई समय-समय पर दुःख महसूस करता है। दुःख कभी-कभी इंसान को मोटीवेट करने में भी मदद कर सकता है, लेकिन यह जिजीविषा, खुशहाली, सक्रियता, जोश को भी कम करता है। दुनिया की खुशहाल देशों की सूची में भारत इस वर्ष 143 देशों में 126वें स्थान पर है। यह रैंक पिछले साल के मुकाबले बिल्कुल वही रही है। भारत के पड़ोसी देशों में चीन 60वें, नेपाल 93वें, पाकिस्तान 108वें, म्यांमार 118वें, श्रीलंका 128वें और बांग्लादेश 129वें स्थान पर है।

भारत दुनिया का सबसे उदास देश है। शोधों के निष्कर्ष बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन एवं अत्यधिक गर्मी के कारण 2100 तक भारत में हर साल 15 लाख लोगों की मौत हो सकती है? इसी कारण उदास लोगों की संख्या भी बढ़ सकती है। 2018 की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत सबसे अधिक अवसादग्रस्त देशों की सूची में सबसे ऊपर है। भले ही भारतीयों को स्वभाव से समायोजित और संतुष्ट लोगों के रूप में जाना जाता है, लेकिन यह पता चला है कि वे सबसे अधिक उदास भी हैं। एक तरफ हम खुद को किसी भी चीज़ में आसानी से समायोजित कर लेते हैं, चाहे वह कम पैसा हो, खराब सड़कें हों, बुनियादी ढाँचे की कमी हो या कुछ भी हो। नेशनल केयर ऑफ मेडिकल हेल्थ के एक अध्ययन के अनुसार लगभग 6.5 प्रतिशत भारतीय गंभीर मानसिक स्थितियों से पीड़ित हैं, चाहे वे ग्रामीण हों या शहरी। सरकार जागरूकता कार्यक्रम चला रही है लेकिन मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य डॉक्टरों की भी कमी है।

भारत के मानव-स्वभाव में उग्र हो रही उदासी एवं निराशा का बड़ा कारण प्रदूषित हवा एवं पर्यावरण है। शुद्ध वायु में ही जीवन है और उसी में जीवन की सकारात्मकता एवं जीवन-ऊर्जा समाहित है। यही हमारी अराजक जीवन शैली को संयमित कर सकती है। कुछ ऐसे रोग जो उपचार योग्य नहीं माने जाते, उन पर अंकुश लगा सकती है। व्यक्ति अपने घर में आहार-विहार को संतुलित करके भी उत्साही एवं प्रसन्न होने का प्रयास कर सकता है। हम सूरज के उगने से पहले उठें। धूप में न बैठने से हम विटामिन डी की समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं, जिससे शरीर में उदासी एवं निराशा बढ़ जाती हैं। आमतौर पर विदेशों में लोग नवंबर से जनवरी तक सूर्य स्नान लेते हैं जिससे लोगों को विटामिन-डी मिल जाता है। आज आम लोग शारीरिक श्रम नहीं करते। खान-पान की चीजों में भारी मिलावट है। बाजार की शक्तियां कई तरह के भ्रम फैलाती हैं। पारिवारिक जीवन अनेक दबावों से घिरा है, कॉरपोरेट संस्कृति में रिश्ते, स्वास्थ्य एवं खुशहाली बहुत पीछे छूट रही है।

वास्तव में अधिकांश आधुनिक रोग काम न करने की बीमारी है। हम लोग दिमाग को थका रहे हैं, शरीर को नहीं थका रहे हैं। इसी वजह से शरीर को भुगतना पड़ रहा है। आदमी पैदल नहीं चल रहा है। स्वस्थ रहने के लिये जरूरी है हम आहार सही ढंग से लें। दरअसल हमारा आहार दवा है। देर रात भोजन करना, देर रात तक जगना एवं सुबह देर से उठना शरीर के साथ अत्याचार करने जैसा है। इन्हीं जटिल से जटिलतर होती स्थितियों ने हमें उदासी दी है। वैसे उदासी, निराशा, थकावट, दुख या खुशी एक ऐसी अवस्था है, जिस पर किसी सर्वे के जरिये एकमत नहीं हुआ जा सकता। फिर भी, ऐसी सूचियों से सकारात्मक प्रेरणा लेते हुए प्रसन्न, उत्साही, सक्रिय समाज की संरचना के लिये तमाम तरह के प्रयास करने में ही भलाई है।

हमारा शीर्ष नेतृत्व आजादी के बाद से ही निरन्तर आदर्शवाद और अच्छाई का झूठ रचते हुए सच्चे आदर्शवाद के प्रकट होने की असंभव कामना करता रहा है, इसी से जीवन की समस्याएं सघन होती गयी है, इसी ने उदासी को बढ़ाया है, नकारात्मकता का व्यूह मजबूत होता गया है, खुशी, उत्साही, जोशीला एवं प्रसन्न जीवन का लक्ष्य अधूरा ही रहा है, इनसे बाहर निकलना असंभव-सा होता जा रहा है। दूषित और दमघोंटू वातावरण में आदमी अपने आपको टूटा-टूटा सा अनुभव कर रहा है। आर्थिक असंतुलन, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, बिगड़ी कानून व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार उसकी धमनियों में कुत्सित विचारों का रक्त संचरित कर रहा है। ऐसे जटिल हालातों में इंसान कैसे खुशहाल, जोशीला एवं सकारात्मक जीवन जी सकता है? इन गहन अंधेरों से बाहर निकलते हुए विगत एक दशक में सरकारों के कामकाज एवं नीतियों से एक आशावाद झलका है, लेकिन इंसानों का लगातार निराश एवं उदास होते जाना एक बड़ी चुनौती है।

वैसे भी खुशी, जोश एवं उत्साह महसूस करना व्यक्ति के खुद की सोच पर निर्भर करता है। इसलिये प्रश्न है कि हमारी जोश, तरोताजगी एवं उत्साह का पैमाना क्या हो? विकास की सार्थकता इस बात में है कि देश का आम नागरिक खुद को संतुष्ट, जोशीला, तरोताजा और आशावान महसूस करे। स्वयं आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ बने, कम-से-कम कानूनी एवं प्रशासनिक औपचारिकताओं का सामना करना पड़े, तभी वह निराशा एवं उदासी को कम कर पायेगा। कृत्रिम बौद्धिकता, डिजिलीकरण, आर्थिक नवाचार जैसी घटनाओं ने आम आदमी को अधिक परेशानी एवं कंकाली दी है। समस्याओं के घनघोर अंधेरों के बीच उनका चेहरा बुझा-बुझा है। न कुछ उनमें जोश है न होश। अपने ही विचारों में खोए-खोए, निष्क्रिय और खाली-खाली से, निराश और नकारात्मक तथा ऊर्जा विहीन। हाँ सचमुच ऐसे लोग पूरी नींद लेने के बावजूद सुबह उठने पर खुद को थका महसूस करते हैं, कार्य के प्रति उनमें उत्साह नहीं होता। ऊर्जा का स्तर उनमें गिरावट पर होता है। क्यों होता है ऐसा? कभी महसूस किया आपने? यह स्थितियां एक असंतुलित एवं अराजक समाज व्यवस्था की निष्पत्ति है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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