बिहार चुनावः मुद्दों एवं मूल्यों से दूर भागती राजनीति

बिहार में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। हर दल अपने-अपने घोषणापत्र, नारों और वादों के साथ जनता को लुभाने में जुटा है। मंचों पर भाषणों की गरमी है, प्रचार रथ दौड़ रहे हैं, लेकिन इस शोर में सबसे बड़ी कमी है-जनता के असली मुद्दों की आवाज़। राजनीति का यह शोर विकास की असली जरूरतों को दबा रहा है। बिहार जैसे राज्य में जहां गरीबी, बेरोजगारी, अपराध, और सामाजिक पिछड़ापन अब भी विकराल रूप में मौजूद हैं, वहां चुनावी विमर्श का इनसे विमुख होना चिंताजनक है। यह लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव का विरोधाभास ही नहीं, दुर्भाग्य है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर क्यों बिहार चुनाव में कोई भी दल उन मुद्दों को ईमानदारी से नहीं उठा रहा जो सीधे-सीधे जनता के जीवन से जुड़े हैं? क्यों शराबबंदी, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, अपराध-माफिया शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे वास्तविक सवाल राजनीतिक एजेंडे से गायब हैं?

बिहार चुनावः मुद्दों एवं मूल्यों से दूर भागती राजनीति

बिहार में शराबबंदी एक बड़ा सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा रहा है। यह मुद्दा केवल कानून का नहीं, बल्कि नैतिकता, सामाजिक सुधार और जनजीवन की स्थिरता से जुड़ा हुआ है। शराबबंदी की सफलता या विफलता को लेकर जनता के मन में अनेक प्रश्न हैं, क्योंकि इस नीति ने जहां कई परिवारों को विनाश से बचाया, वहीं भ्रष्टाचार, अवैध तस्करी और पुलिसिया मनमानी को भी जन्म दिया। दिलचस्प यह है कि इस बार के चुनाव में लगभग सभी प्रमुख दल इस मुद्दे से दूरी बनाए हुए हैं। एनडीए खेमे के नेता खुलकर इस पर बोलने से बच रहे हैं। केवल प्रशांत कुमार जैसे कुछ नेता हैं जो पूर्ण शराबबंदी की पुनः स्थापना का नारा उठा रहे हैं। यह सवाल उठता है, अगर शराबबंदी सचमुच जनता के हित में थी, तो सत्ता पक्ष इससे डर क्यों रहा है? क्या यह स्वीकारोक्ति है कि कानून तो बनाया गया, लेकिन उसका क्रियान्वयन असफल रहा? शराबबंदी क्यों जरूरी है, उस महिला से पूछिये,  जिसकी बिछुए शराब पीने से लिये उसके पति ने बेच दी। ऐसी त्रासद घटनाएं बिहार के जन-जन में देखने को मिलती है।

वैसे तो हर एक का जीवन अनेकों विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरा रहता है। हमारा हर दिन भी कई विरोधाभासों के बीच बीतता है। आज तो हमारी सारी नीतियों मंे, हमारे सारे निर्णयों में, हमारे व्यवहार में, हमारे कथन में विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित है। लेकिन बिहार चुनाव ऐसे विरोधाभास के कारण कथनी करनी के अंतर का अखाड़ा ही बनते हुए प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि हमारे जीवन में सत्य खोजने से भी नहीं मिलता। राजनेताओं एवं राजनीतिक दलों का व्यवहार दोगला हो गया है। उनके द्वारा दोहरे मापदण्ड अपनाने से हर नीति, हर निर्णय समाधानों से ज्यादा समस्याएं पैदा कर रहे हैं। चुनाव एवं चुनावी मुद्दें समस्याओं के समाधान का माध्यम बनने चाहिए, लेकिन वे समस्याओं को बढ़ाने का जरिये बनते रहे हैं। यही कारण है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, महिला-सुरक्षा, अपराध-नियंत्रण की प्राथमिकता के नारे हमारे लिए स्वप्न ही बने हुए हैं।

ये तो कुछ नमूने हैं जबकि स्वतंत्रता के 78 वर्ष बाद भी हमें अहसास नहीं हो रहा है कि हम स्वतंत्र हैं। राजनीतिक विरोधाभासों और विसंगतियों से उत्पन्न समस्याओं से हम आज़ाद नहीं हुए हैं। हमारे कर्णधारों के चुनावी भाषणों में आदर्शों का व्याख्यान होता है और कृत्यों में भुला दिया जाता है। सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि हम हर स्तर पर वैश्वीकरण व अपने को बाजार बना रहे हैं। अपने को, समय को पहचानने वाला साबित कर रहे हैं। पर हमने अपने आप को, अपने भारत को, अपने बिहार को, अपने पैरों के नीचे की जमीन को नहीं पहचाना। नियति भी एक विसंगति का खेल खेल रही है। पहले जेल जाने वालों को कुर्सी मिलती थी, अब कुर्सी पाने वाले जेल जा रहे हैं। यह नियति का व्यंग्य है या सबक? पहले नेता के लिए श्रद्धा से सिर झुकता था अब शर्म से सिर झुकता है। जिन्दा कौमें पांच वर्ष तक इन्तजार नहीं करतीं, हमने 15 गुना इंतजार कर लिया है। यह विरोधाभास नहीं, दुर्भाग्य है, या सहिष्णुता कहें? जिसकी भी एक सीमा होती है, जो पानी की तरह गर्म होती-होती 50 डिग्री सेल्सियस पर भाप की शक्ति बन जाती है। बिहार इस नियति से कब मुक्त होगा, यही इस चुनावों में विमर्श का सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए।
बिहार की सबसे बड़ी त्रासदी बेरोजगारी है। लाखों युवाओं के पास न काम है, न अवसर। हर चुनाव में इस पर वादे किए जाते हैं, लेकिन परिणाम लगभग शून्य रहते हैं।

प्रदेश के नौजवान पलायन को मजबूर हैं, मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों का रुख करते हैं। चुनावी सभाओं में नौकरियों का झांसा तो मिलता है, लेकिन ठोस योजनाएं और नीतियां कहीं दिखाई नहीं देतीं। राजनीतिक दलों के पास न तो रोजगार सृजन की दीर्घकालिक योजना है, न शिक्षा और कौशल विकास को जोड़ने की कोई ठोस रणनीति। चुनावी भाषणों में ‘बिहार के विकास’ की बातें होती हैं, लेकिन युवा भविष्य की वास्तविक चिंता कहीं नहीं झलकती। बिहार में महिला सुरक्षा, अपराध और माफिया तंत्र का प्रश्न भी उतना ही ज्वलंत है। हाल के वर्षों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में लगातार वृद्धि हुई है। भूमि विवादों, रंगदारी और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त अपराधियों की गतिविधियाँ अब भी जारी हैं। मगर किसी भी दल की ओर से इन पर कोई ठोस नीति या वचन नहीं दिखाई देता।

राजनीतिक दल जानते हैं कि इन विषयों पर बात करना असुविधाजनक है, क्योंकि यह सीधा शासन व्यवस्था की विफलता को उजागर करता है। इसलिए वे इन पर मौन साधे हुए हैं। अपराध और महिला सुरक्षा पर चुप्पी बताती है कि सत्ता प्राप्ति की होड़ में संवेदनशीलता की कोई जगह नहीं बची है। बिहार की राजनीति आज भी जातीय समीकरणों और तुष्टिकरण की जकड़ में फंसी हुई है। विकास और सुशासन की बातें केवल नारों तक सीमित हैं। उम्मीदवार चयन से लेकर प्रचार तक, हर जगह जातीय गणित प्राथमिकता में है। परिणाम यह है कि मुद्दे हाशिये पर चले जाते हैं और वोट बैंक की राजनीति सर्वाेच्च स्थान पा लेती है। विकास के नाम पर किए गए बड़े-बड़े दावे चुनाव बीतते ही धुंधले पड़ जाते हैं। गांवों में आज भी सड़कें टूटी हैं, अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं, और प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। ऐसे में जब राजनीतिक दल मुद्दों पर संवाद करने के बजाय केवल आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त हों, तो जनता का विश्वास कमजोर पड़ना स्वाभाविक है।

आज बिहार को ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जो चुनाव को जन-कल्याण के दृष्टिकोण से देखे, न कि केवल सत्ता प्राप्ति की दौड़ के रूप में। शराबबंदी, रोजगार, अपराध-मुक्ति, महिला सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे बिहार राज्य की आत्मा हैं। इन्हें नज़रअंदाज़ करना, बिहार के भविष्य को अंधेरे में धकेलने जैसा है। विकास का अर्थ केवल सड़कें और पुल नहीं, बल्कि मानव विकास है, जहां हर व्यक्ति सुरक्षित, शिक्षित, रोजगारयुक्त और सम्मानजनक जीवन जी सके। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि जनता अब केवल नारों से नहीं, परिणामों से प्रभावित होती है। बिहार चुनाव हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या राजनीति अब केवल सत्ता का खेल बनकर रह गई है? क्या लोकतंत्र का मूल उद्देश्य जनसेवा-अब खो गया है? जब जनता के असली मुद्दे, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, महिला सुरक्षा और सामाजिक न्याय, चुनावी भाषणों से गायब हो जाएं, तब यह लोकतंत्र के क्षरण का संकेत है।

जरूरत है कि राजनीतिक दल फिर से उन बुनियादी प्रश्नों पर लौटें, जिन पर बिहार का वर्तमान और भविष्य निर्भर करता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो बिहार की जनता का यह चुनाव एक बार फिर केवल चेहरों और गठबंधनों का उत्सव बनकर रह जाएगा, जहाँ जनहित और जनसरोकार फिर से पीछे छूट जाएंगे। बिहार को नारों नहीं, नीतियों की राजनीति चाहिए और यह तभी संभव है, जब मुद्दों पर बात करने का साहस राजनीति में लौट आए।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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