सुप्रीम कोर्ट ने फैसला पलट दिखायी राह, किया उजाला 

नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म की कोशिश से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाकर न्याय की संवेदनशीलता को संबल दिया है, इससे जहां न्याय की निष्पक्षता, गहनता एवं प्रासंगिकता को जीवंत किया है, वहीं महिला अस्मिता एवं अस्तित्व को कुचलने की कोशिशों को गंभीरता से लिया गया है। शीर्ष अदालत के जजों ने इस फैसले को असंवेदनशील बताते हुए न केवल इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस विवादित फ़ैसले पर गंभीर नाराजगी दर्शायी एवं खेद प्रकट किया है, क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था- नाबालिग लड़की के ब्रेस्ट पकड़ना और उसके पायजामे के नाड़े को तोड़ना रेप नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने यौन अपराधों की गंभीरता को कम करने वाली या पीड़ितों के अनुभवों को कमतर आंकने वाली भाषा एवं सोच का इस्तेमाल न करने की चेतावनी देते हुए हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को भी ऐसा फैसला देने वाले जज से ऐसे संवेदनशील मामलों की सुनवाई न कराने का भी निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा कि यह फैसला तुरंत नहीं लिया गया, बल्कि सुरक्षित रखने के 4 महीने बाद सुनाया गया यानी पूरे विचार के बाद फैसला दिया गया है। नारी अस्मिता एवं अस्तिव को कुचलने की शर्मसार करने वाली निचली अदालतों की ऐसी न्यायिक घटनाएं चिन्ताजनक है। एक बार फिर  सुप्रीम कोर्ट की पहल से समाज में सकारात्मक संदेश दिया गया और महिलाओं की सुरक्षा, अस्मिता एवं अस्तित्व सुनिश्चित करने का सार्थक प्रयास भी किया गया है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस राममनोहर नारायण मिश्रा ने अपने 17 मार्च के इस फ़ैसले में कहा था कि ‘पीड़िता के स्तन को छूना और पायजामे की डोरी तोड़ने को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है।’ उल्लेखनीय है कि यह घटना साल 2021 में एक नाबालिग लड़की के साथ हुई थी। जिसमें तीन युवकों ने लड़की से बदतमीजी की थी और उसके प्राइवेट पॉर्टस को छुआ तथा पुल के नीचे घसीटकर उसके पायजामे की डोरी तोड़ थी। जिसे पास से गुजरने वाले ट्रैक्टर चालकों ने बचाया था। स्थानीय पुलिस से जब किशोरी के परिजनों को मदद नहीं मिली तब उन्होंने न्याय के लिये कासगंज की विशेष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। जहां अभियुक्तों पर आईपीसी की धारा 376 व पॉक्सो एक्ट की धारा 18 लगाई गई। जिसको अभियुक्तों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।

11 साल की इस लड़की के साथ हुई इस घटना के बारे में जस्टिस मिश्रा का निष्कर्ष था कि यह महिला की गरिमा पर आघात का मामला है। इसे रेप या रेप की कोशिश नहीं कह सकते। एकल पीठ का कहना था कि मामले में तथ्यों व आरोपों के आधार पर तय करना संभव नहीं है कि बलात्कार का प्रयास हुआ था। जिसके लिये अभियोजन पक्ष को सिद्ध करना था कि अभियुक्तों का यह कदम अपराध करने की तैयारी के लिये था। इस फैसले के बाद देशभर में गहरा आक्रोश, गुस्सा एवं नाराजगी सामने आयी, महिला संगठनों व बौद्धिक वर्गों में तल्ख प्रतिक्रिया देखी गयी, सोशल मीडिया एवं मीडिया ने इसे न्याय की बड़ी विसंगति एवं अमानवीयता के रूप में प्रस्तुत किया।

महिला संगठन वी द वूमेन ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट का भी रुख किया था। शीर्ष अदालत के जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने माना कि फैसला न केवल असंवेदनशील है बल्कि अमानवीय नजरिया भी दर्शाता है। जिसके चलते इस फैसले पर रोक लगाना आवश्यक हो जाता है। वहीं शीर्ष अदालत ने इस मसले पर केंद्र व उत्तर प्रदेश सरकार को भी नोटिस जारी किया है। यह बात किसी के गले नहीं उतर पा रही कि जब पाक्सो कानून में स्पष्ट रूप से किसी बच्चे के साथ गलत हरकतों को आपराधिक कृत्य माना गया है, तब कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संबंधित न्यायाधीश को न्यायिक विवेचन करते समय यह गंभीर दोष नहीं जान पड़ा। महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों में तो उन्हें घूरने, गलत इशारे करने, पीछा करने आदि को भी आपराधिक कृत्य माना गया है।

फिर उस लड़की के मामले में हर पहलू पर विचार क्यों नहीं किया गया? इस फैसले की निन्दा, भर्त्सना एवं आलोचना ने देश में एक बार फिर जताया है कि देश ऐसे संवेदनशील मामलों में जागरूक है, किसी भी तरह की लापरवाही एवं कोताही को बर्दाश्त नहीं करेगा। सुप्रीम अदालत ने देखा था कि पीछा करने, छेड़छाड़ करने और उत्पीड़न जैसे अपराधों को सामान्य बनाने वाले रवैये का ‘पीड़ितों पर स्थायी और हानिकारक प्रभाव पड़ता है।’ महिलाओं के सम्मान और गरिमा के प्रति सर्वोच्च न्यायालय संवेदनशील है, यही आशा की किरण है। यहां यह अपेक्षित हो जाता है कि महिला मामलों की सुनवाई करने वाले जजों को इसकी बारीकियों एवं गहनताओं का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। ऐसे प्रशिक्षित जजों को ही ऐसे मामलों की सुनवाई का मौका दिया जाना चाहिए। यह भी अपेक्षित है कि ऐसे मामलों में कोताही या दुराग्रह बरतने वाले जजों के लिये उचित जांच का भी प्रावधान होना चाहिए।

महिला सुरक्षा से जुड़े मामलों में फैसला देते वक्त अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे घटना, तथ्यों और प्रमाणों पर संवेदनशील तरीके से विचार करें। मगर विचित्र है कि कई बार निचली अदालतें ऐसे मामलों में आग्रह एवं पूर्वाग्रहपूर्ण निर्णय सुना देती हैं। उल्लेखनीय है कि एक ऐसे ही मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के फैसले को पलट कर कानून की संवेदनशीलता को संबल दिया था। तब भी सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2021 में कहा था कि किसी बच्चे के यौन अंगों को यौन इरादे से छूना पॉक्सो अधिनियम की धारा 7 के तहत यौन हिंसा माना जाएगा। अब चाहे इसमें त्वचा का संपर्क नहीं हुआ हो। कोर्ट का मानना था कि अभियुक्त का इरादा ज्यादा मायने रखता है।

दरअसल, इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट की महिला जज ने अभियुक्त को इस आधार पर बरी करने का फैसला लिया था कि त्वचा से त्वचा का संपर्क नहीं हुआ था। इसी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी अक्टूबर, 2023 में एक फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की थी कि किशोरियों को अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए, वे दो मिनट के सुख के लिए समाज की नजरों में गिर जाती हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जज से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वे फैसला सुनाते समय अपने विचार व्यक्त करें। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह दिशानिर्देश भी जारी किए थे कि फैसले किस तरह लिखे जाने चाहिए। इसके अलावा, कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले को भी पलट दिया था। ऐसे फैसले न्यायिक भ्रष्टता, संवेदनहीनता एवं लापरवाही के प्रतीक है, जिससे महिलाओं अपराधियों, बलात्कारियों, व्यभिचारियों एवं यौन शोषकों का नारी से खिलवाड़ करने का हौसला बुलन्द होता है।

देश में बढ़ रही यौन-शोषण, रेप एवं नारी दुराचार की घटनाओं को देखते हुए न्याय-व्यवस्था को अधिक सशक्त एवं निष्पक्ष बनाये जाने की अपेक्षा है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मामलों में पाक्सो और महिला सुरक्षा से जुड़े कानूनों का दुरुपयोग देखा गया है, मगर इसका अर्थ यह नहीं कि इससे किसी को हर महिला के साथ हुए दुर्व्यवहार और यौन शोषण को असंवेदनशील तरीके से देखने की छूट मिल जाती है। पहले ही महिला यौन उत्पीड़न के मामलों में शिकायतें दर्ज कराने को लेकर चुप्पी साध जाने या टालमटोल रवैया अपनाना एक गंभीर मामला है। जिसके चलते ऐसी घटनाएं बढ़ती ही जा रही है। आजीवन शोषण, दमन, अत्याचार, अवांछित बर्ताव और अपमान की शिकार रही भारतीय नारी को अब और नये-नये तरीकों से कब तक जहर के घूंट पीने को विवश होना होगा। अत्यंत विवशता और निरीहता से देख रही है वह यह क्रूर अपमान, यह वीभत्स अनादर, यह दूषित व्यवहार एवं संकुचित न्याय। न्याय की चौखट पर भी उसके साथ दोयम दर्जा एवं दुराग्रहपूर्ण सोच बदलना सर्वोच्च प्राथमिकता हो। यदि हम सच में नारी के अस्तित्व एवं अस्मिता को सम्मान देना चाहते हैं तो! ईमानदार स्वीकारोक्ति और पड़ताल से ही यह संभव होगा।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
आपका सहयोग ही हमारी शक्ति है! AVK News Services, एक स्वतंत्र और निष्पक्ष समाचार प्लेटफॉर्म है, जो आपको सरकार, समाज, स्वास्थ्य, तकनीक और जनहित से जुड़ी अहम खबरें सही समय पर, सटीक और भरोसेमंद रूप में पहुँचाता है। हमारा लक्ष्य है – जनता तक सच्ची जानकारी पहुँचाना, बिना किसी दबाव या प्रभाव के। लेकिन इस मिशन को जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की आवश्यकता है। यदि आपको हमारे द्वारा दी जाने वाली खबरें उपयोगी और जनहितकारी लगती हैं, तो कृपया हमें आर्थिक सहयोग देकर हमारे कार्य को मजबूती दें। आपका छोटा सा योगदान भी बड़ी बदलाव की नींव बन सकता है।
Book Showcase

Best Selling Books

The Psychology of Money

By Morgan Housel

₹262

Book 2 Cover

Operation SINDOOR: The Untold Story of India's Deep Strikes Inside Pakistan

By Lt Gen KJS 'Tiny' Dhillon

₹389

Atomic Habits: The life-changing million copy bestseller

By James Clear

₹497

Never Logged Out: How the Internet Created India’s Gen Z

By Ria Chopra

₹418

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »