सफल जीवन के लिये जोश भी चाहिए और होश भी

सफल लोगों को गौर से देखें तो पाएंगे कि वे देर तक किसी बात पर अटकते नहीं। क्या मिला, क्या नहीं- हमेशा इसकी शिकायत नहीं करते, संतुलित एवं समतामय बनकरं सीखते रहते हैं। अपने लक्ष्य को नहीं भूलते। दूसरों की सुनते हैं, पर उनके डर को खुद पर हावी नहीं करते। अच्छी बात यह है कि हम मनुष्यों में ही यह क्षमता है कि हम अपनी कमियों को देख सकते हैं। उन्हें सुधार सकते हैं। इसलिए अर्श से फर्श पर गिरने के बाद भी फिर से संभल जाते हैं। इसलिये सफल जीवन के लिये समता, संतुलन एवं सहिष्णुता का अभ्यास जरूरी है।

इनके बिना किसी का भविष्य उज्ज्वल नहीं  हो सकता। जीवन की रक्षा के लिए भी इनकी जरूरी है। जीव-विज्ञान बायोलोजी के अनुसार जीव-जंतुओं की वे ही प्रजातियाँ अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकती हैं जिनमें हर परिस्थिति और चुनौती को झेलने की क्षमता एवं समता होती है। ‘सरलाईवल ऑफ दि फिटेस्ट’ डार्विन के इस सिद्धांत का भी यही तात्पर्य है।

चिंतक खलील जिब्रान का कहना है, ‘हम जब प्रकृति की शीतल छांव में बैठकर हरियाली और शांति को महसूस करें, तब अपने दिल को चुपके से कहने दें-प्रभु विवेक में बसते हैं। और जब बारिश और तूफान हमें हिला रहे हों तो कहें-प्रभु, जोश में बढ़ते हैं। आप भी विवेक के साथ आराम करिए और जुनून के साथ आगे बढ़ते रहिए।’ हर व्यक्ति को अपने जीवन में कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना होता है। यह एक सार्वभौम नियम है। इसमें किसी का अपवाद नहीं है।

समय और परिस्थिति के अनुसार समस्याओं का रूपांतरण होता रहता है, पर जिंदगी के साथ उनका अटल संबंध है। वे पहले भी थी, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। जो सहिष्णुता का कवच धारण कर लेते हैं उनके लिए समस्याएँ भी समाधान बन जाती हैं, जो प्रगति के बाधक तत्त्व हैं, वे भी साधक और सहयोगी बन जाते हैं। जो सुविधाएँ सहज रूप से सुलभ हैं उनका उपयोग करने में कठिनाई नहीं हैं। पर उन्हें दिमाग पर हावी नहीं होने देना चाहिए।

जिनकी मनोवृत्ति सुविधावादी हो जाती है उनके लिए छोटी-सी प्रतिकूलता को सहना कठिन हो जाता है। कहते हैं कि आपका काम, रबड़ की गेंद है, जिस पर जितना जोर देते हैं, वह उतना ऊंचा उठता है। पर आपका परिवार, दोस्त, सेहत और व्यवसाय कांच की गेंदें हैं, जो हाथ से छूटती हैं तो टूट ही जाती हैं। इसलिए जब सफलता करीब आ रही हो तो पूरी मेहनत से जुटे रहें, संतुलित रहे। बड़ाई मिले या बुराई, उसे सिर चढ़ाने के बजाय समतामय, सहिष्णु, शांत और शालीन बनें। सफलता दिमाग पर हावी न हो और हार दिल पर।

आज दरकते रिश्तों के जीवन में हर रिश्ते को संवेदना से जीने की जरूरत है, इसके लिये जरूरी है प्रेम एवं विश्वास। प्यार एवं विश्वास दिलों को जोड़ता है। इससे कड़वे जख्म भर जाते हैं। प्यार की ठंडक से भीतर का उबाल शांत होता है। हम दूसरों को माफ करना सीखते हैं। इनकी छत्रछाया में हम समूह और समुदाय में रहकर शांतिपूर्ण जीवन जी सकते हैं। लेखिका रोंडा बायन कहती हैं कि जितना ज्यादा हो सके हर चीज, हर व्यक्ति से प्यार करें।

ध्यान केवल प्यार पर रखें। पाएंगे कि जो प्यार आप दे रहे हैं, वह कई गुणा बढ़कर आप तक लौट रहा है। हम समाज में एक साथ तभी रह पाते हैं जब वास्तविक प्रेम एवं संवेदना को जीने का अभ्यास करते हैं। उसका अभ्यास सूत्र है-साथ-साथ रहो, तुम भी रहो और मैं भी रहूं। या ‘तुम’ या ‘मैं’ यह बिखराव एवं विघटन का विकल्प है। ‘हम दोनों साथ नहीं रह सकते’ यह नफरत एवं द्वेष का प्रयोग है। विरोध में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। जो व्यक्ति दूसरे के साथ सामंजस्य स्थापित करना नहीं जानता, वह परिवार एवं समाज में रह कर शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता।

दूसरों के साथ हमारे रिश्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है अहंकार। यह बड़ी चतुराई से अपनी जगह बनाता है। अहंकारी अपने फायदे के लिए ही दूसरों के पीछे भागता है। बड़ों से संबंध जोड़ता है और छोटों एवं कमजोर की अनदेखी कर देता है। प्रेम हंसाता है तो अहंकार चोट पहुंचाता रहता है। अहंकार गले लगाकर भी दूसरे को छोटा ही बनाए रखता है। यह केवल दूसरों से पाने की चाह रखता है।

जब हम अपने हिस्से में से दूसरों को भी देना सीख जाते हैं और अपनी खुशियां दूसरों के साथ बांटना सीख जाते हैं तो जीवन एक प्रेरणा बन जाता है। पारिवारिक एवं सामाजिक शांति एवं सौहार्द के लिए सहिष्णुता के साथ विनय और वात्सल्य भी आवश्यक है। आज का पढ़ा लिखा आदमी विनम्रता को गुलामी समझता है। उसका यह चिंतन अहंकार को बढ़ा रहा है। विनय भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व रहा है।

जिस परिवार एवं समाज में विनय की परंपरा नहीं होती, उसमें शांतिपूर्ण जीवन नहीं हो सकता। एक विनय करे और दूसरा वात्सल्य न दे तो विनय भी रूठ जाता है। वात्सल्य मिलता रहे और विनय बढ़ता रहे तो पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में शांति का संचार बना रहता है। सामंजस्य, समझौता, व्यवस्था, सहिष्णुता, विनय और वात्सल्य इन्हें जीवन में उतारें तभी पारिवारिक एवं सामाजिक शांति बनी रहेगी।

जब तक आप दिमाग से संचालित होते हैं, आपको सच्चा प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम का एहसास हो सकता है, लेकिन वह सच्चा प्रेम नहीं होता। मसलन- हममें से ज्यादातर लोगों ने अपने जीवन में महसूस किया होगा कि उन्हें प्यार हो गया है। लेकिन वास्तव में एक-दो लोग ही होते हैं, जो सचमुच प्यार में होते हैं।

ज्यादातर लोगों में कुछ समय बाद ही प्यार का एहसास समाप्त हो जाता है। जरूरी है हम पहले अपनी मदद करना सीखें तभी दूसरों की मदद कर पाएंगे। खुद को थामे रखे बिना दूसरों को पकड़ने की कोशिश निराशा ही देती है। यहां तक कि आप अपने लोगों पर ही बोझ बन जाते हैं। इसलिए दूसरों को बदलने से पहले हम खुद को भी बदलना सीख लें। हमारे दुश्मन दूसरे कम होते हैं, हम खुद ज्यादा होते हैं। और लेखिका आयरीन बटर कहती हैं, ‘दुश्मन वो है, जिसके बारे में हमें पता नहीं।’

जीवन में ऊँचाई और गहराई का समन्वय आवश्यक है। हर व्यक्ति के मन में ऊँचाई पर पहुँचने का आकर्षण है, पर गहराई के बिना ऊँचाई भी वरदान नहीं होकर अभिशाप सिद्ध होती है। भारत की जीवनशैली में जो परिपक्वता है, स्थिरता है, यह ऊँचाई और गहराई के समन्वय का परिणाम है। किताब ‘इगो इज एनिमी’ में लेखक रेयान हॉलिडे लिखते हैं, ‘अहंकार सफलता और संतुष्टि दोनों का दुश्मन है। इस पर कड़ी नजर बनाए रखना जरूरी है।’

जीवन में गति और ठहराव के साथ कुछ रहस्यों की गुंजाइश भी रखनी चाहिए। जिसके लिए हमें जोश भी चाहिए और होश भी। ना होश से घबराएं और ना ही जोश से। तूफान कितना ही भीषण हो, थम ही जाता है। जैसे हर तूफान की एक उम्र होती है तो दुख-दर्द की भी होती है। वैसे, जीवन इतना गंभीर होता भी नहीं, जितना कि हम उसे बना देते हैं।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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